वर्ष 2001 में जब अमेरिका के न्यूयॉर्क में भयावह 9/11 का हमला हुआ था तो उसके बाद पूरे विश्व का ध्यान अफगानिस्तान में फलते-फूलते उग्रवादी संगठन तालिबान पर गया। अफगानिस्तान में तालिबान पर आरोप लगाया गया कि उसने ओसामा बिन लादेन और अल क़ायदा को पनाह दी है जिसे न्यूयॉर्क हमलों को दोषी बताया जा रहा था। ठीक उसी के बाद सात अक्तूबर 2001 में अमेरिका के नेतृत्व वाले सैन्य गठबंधन ने अफगानिस्तान पर हमला बोला और तालिबान को खत्म करने के नाम पर वह अफगानिस्तान में घुसा। हालांकि, यह अमेरिकी सेना की विफलता ही है कि पिछले कुछ सालों में तालिबान ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान में दोबारा अपनी पकड़ मजबूत की है, और अब यही कारण है कि अमेरिका तालिबान के साथ पिछले एक साल से बातचीत करने को आतुर है।
डोनाल्ड ट्रम्प यह पहले ही कह चुके हैं कि वे अमेरिकी सेना को जल्द से जल्द अफ़गानिस्तान से बाहर निकालना चाहते हैं, और इसीलिए कल यानि रविवार को अमेरिका के ‘कैम्प डेविड’ में तालिबान और अमेरिका के बीच एक महत्वपूर्ण गुप्त बैठक होने वाली थी। हालांकि, 7 सितंबर को तालिबान के एक हमले में 1 अमेरिकी सैनिक समेत 12 लोग मारे गए जिसके बाद गुस्से अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ने तालिबान के साथ इस बातचीत को रद्द कर दिया। इस बातचीत के रद्द होने से तालिबान और पाकिस्तान को गहरा झटका लगा है, लेकिन भारत में इसे एक खुशखबरी के तौर पर देखा जा रहा है।
Unbeknownst to almost everyone, the major Taliban leaders and, separately, the President of Afghanistan, were going to secretly meet with me at Camp David on Sunday. They were coming to the United States tonight. Unfortunately, in order to build false leverage, they admitted to..
— Donald J. Trump (@realDonaldTrump) September 7, 2019
भारत को यह अंदेशा था कि पाकिस्तान, तालिबान और अमेरिका के बीच डील के कारण इस क्षेत्र में अशांति आ सकती है। अगर अमेरिका तालिबान से बात करके इस क्षेत्र से निकलता तो दो बातें हो सकती थीं। पहला, अफगानिस्तान में एक बार फिर से गृह युद्ध हो सकता था और दूसरा, पाकिस्तान अपने जिहादियों को भारत खासकर कश्मीर भेजने की कोशिश करता। अमेरिका के जाने के बाद तालिबान को इस क्षेत्र में आतंक फैलाने की खुली छूट मिल जाती और पाकिस्तान का प्रभुत्व भी अफ़गानिस्तान में काफी हद तक बढ़ जाता। इतना ही नहीं, भारत अफ़गानिस्तान में काफी निवेश करता आया है और भारत के रिश्ते अफ़गानिस्तान की चुनी हुई सरकार के साथ काफी मजबूत हैं। ऐसे में अगर तालिबान को अफ़गानिस्तान में खुला छोड़ दिया जाता है, तो इससे ना सिर्फ अफ़गानिस्तान की सरकार का अस्तित्व खतरे में आ जाएगा बल्कि अफ़गानिस्तान में भारत के निवेश पर खतरे के बादल मंडराने लगेंगे। यही कारण है कि तालिबान और अमेरिका की बातचीत रद्द होने को खुद अफ़गानिस्तान के लोग भी जश्न की तरह मना रहे हैं। अफगान सरकार ने कहा था कि यह समझौता जल्दबाजी में हो रहा है। राष्ट्रपति अशरफ गनी ने एक बयान में कहा था, ‘बेगुनाह लोगों की हत्या करने वाले समूह से शांति समझौता करना निरर्थक है।’
हालांकि, यह भी हो सकता है कि अफ़गानिस्तान को हमेशा के लिए छोड़कर जाने वाले विचार को अब अमेरिका ने भुला दिया हो, क्योंकि जम्मू-कश्मीर को लेकर भारत के एतिहासिक फैसले ने पाकिस्तान को काफी हद तक कमजोर कर दिया है। कश्मीर पर भारत के फैसले ने पाकिस्तान की सरकार के साथ सेना का ध्यान भी कश्मीर पर केन्द्रित कर दिया है, जिसके कारण उसके द्वारा किये जा रहे तालिबान के समर्थन में भारी कमी देखने को मिली है। तालिबान को पाकिस्तान का समर्थन ना मिलने के कारण तालिबान बेहद कमजोर पड़ा है जिसके कारण अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के खिलाफ लड़ाई लड़ने में काफी मदद मिलेगी। यानि एक तरीके से कश्मीर पर फैसला लेकर भारत ने अफ़गानिस्तान में बिना सेना भेजे ही अमेरिका का काम आसान कर दिया है। स्पष्ट है कि जो अमेरिका पहले तालिबान के सामने घुटने टेक कर उससे बातचीत करने के पक्ष में था, वह अब तालिबान के साथ खुद अपनी वार्ता को रद्द कर रहा है।
भारत अफ़गानिस्तान में विकास कार्यों में काफी निवेश करता आया है, और इसी के कारण अफ़गानिस्तान के लोगों में भारत की छवि बेहद सकारात्मक है। क़ाबुल में मौजूद भारतीय दूतावास के अनुसार अब तक भारत अफगानिस्तान में 2 बिलियन अमरीकी डॉलर यानि करीब 139 अरब रुपये का निवेश कर चुका है और भारत इस देश में शांति, स्थिरता और तरक्की के लिए प्रतिबद्ध है। इससे पहले भारत ने साल 2011 में भयंकर सूखे से जूझ रहे अफ़गानिस्तान को ढाई लाख टन गेहूं दिया था। इसके अलावा अफ़गानिस्तान के हेरात में सलमा बांध भारत की मदद से बना। ये बांध 30 करोड़ डॉलर (क़रीब 2040 करोड़ रुपये) की लागत से बनाया गया और इसमें दोनों देशों के क़रीब 1500 इंजीनियरों ने अपना योगदान दिया था। इसकी क्षमता 42 मेगावाट बिजली उत्पादन की भी है। 2016 में अस्तित्व में आए इस बांध को भारत-अफगानिस्तान मैत्री बांध का नाम दिया गया। इसके अलावा भारत अफ़गानिस्तान में संसद का निर्माण भी कर चुका है।
इसके अलावा भारत आतंक के खात्मे के लिए पहले ही अफगानिस्तान की खूफिया स्तर मदद करता आया है, और उसके सैनिकों को भी भारत में ट्रेन कर चुका है। भारत अफगानिस्तान में शांति और सुरक्षा के लिए प्रतिबद्ध है और अब चूंकि तालिबान और अमेरिका के बीच वार्ता रद्द हो गयी है, तो इससे भारत और अफ़ग़ानिस्तान के रिश्तों में और मधुरता आने की संभावना है।