अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा ने पंजाब और हरियाणा के राज्यों में के इलाकों में पराली (फसलों के अवशेष) जलाने की तस्वीरें जारी की हैं। 10 अक्तूबर की इन तस्वीरों को दिल्ली सरकार ने भी साझा किया है। यह दिल्ली में वायु प्रदूषण के स्तर में अचानक वृद्धि के प्रमुख कारणों में से एक बताया जा रहा है। समाचार एजेंसी पीटीआई के अनुसार, समग्र वायु गुणवत्ता सूचकांक (एक्यूआई) 275 था, यह पीएम 2.5 का स्तर 232, पीएम 10 का स्तर 233 रहा, जो सबसे खराब माना जाता है। गाजियाबाद, ग्रेटर नोएडा और लोनी देहात के एनसीआर क्षेत्र पहले ही 300 का आंकड़ा पार कर चुके हैं, और इस तरह ‘बहुत खराब’ वायु गुणवत्ता श्रेणी में आ गए हैं।
परंतु दिल्ली के लिए यह कोई नई बात नहीं है। क्षेत्रीय मौसम पूर्वानुमान केंद्र के प्रमुख कुलदीप श्रीवास्तव ने पिछले महीने इस मुद्दे पर विस्तार से बातचीत की और कहा, “साल के इस समय दिल्ली में पूर्वी और दक्षिण-पूर्वी हवाएं चलती हैं। परंतु 15 अक्टूबर तक हवा का रुख बदल जाता है। पश्चिम और उत्तर-पश्चिमी हवाएं, जो पंजाब और हरियाणा से उड़ती हैं, प्रदूषण के कणों को उड़ाने के लिए उतनी मजबूत नहीं होती हैं”।
पिछले वर्ष, सेंटर ऑफ़ एयर क्वालिटी फोरकास्टिंग एंड रिसर्च (SAFAR) ने एक रिपोर्ट जारी की थी। दिल्ली के कुल प्रदूषण में 32 प्रतिशत योगदान पंजाब और हरियाणा में पराली जलाए जाने से होता है। इसलिए हवा की दिशा में बदलाव के साथ-साथ पंजाब और हरियाणा में जले हुए फसलों के अवशेष दिल्ली में प्रदूषण के स्तर को बढ़ा देता है। इस वर्ष भी दिल्ली और एनसीआर में प्रदूषण के अत्यधिक स्तर के कारण सभी निवासियों को स्वास्थ्य संकट का सामना करना पड़ रहा है।
पराली जलाए जाने को लेकर उचित कदम न उठाने के लिए पंजाब और हरियाणा की सरकारों की आलोचना हो रही है। 2015 के एक एनजीटी के आदेश ने राजस्थान, उत्तर प्रदेश, हरियाणा और पंजाब में पराली जलाने पर प्रतिबंध लगा दिया था। फसल या उसके अवशेष जलाना आईपीसी एवं वायु (प्रदूषण निवारण एवं नियंत्रण) अधिनियम, 1981 के अंतर्गत एक दंडनीय अपराध है।
परंतु पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने राज्य में पराली जलाने पर अंकुश लगाने की अपनी जिम्मेदारी से पलड़ा झाड़ते हुए केंद्र सरकार को किसानों को अधिक भुगतान देने की बात कही। उन्होंने प्रस्ताव दिया है कि केंद्र को ‘स्टबल बर्निंग’ यानि पराली जलाने को रोकने के लिए किसानों को प्रति क्विंटल 100 रुपये अधिक देना चाहिए ताकि किसान पराली को बिना जलाए निपटारा करने का अतिरिक्त खर्च वहन कर सकें। ये न केवल बेतुका प्रस्ताव है, बल्कि पंजाब के सीएम की ओर से एक अजीब संकेत देता है। अमरिंदर सिंह के बयान से तो स्पष्ट है कि राज्य सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से पलड़ा झाड़ लिया है और केंद्र को खुद ही इससे निपटने के लिए कह दिया है। उनका यह गैर-जिम्मेदाराना बयान शर्मनाक है।
गौरतलब है कि केंद्र सरकार द्वारा हरियाणा और पंजाब सरकार को दी गई लगभग 1,150 करोड़ रुपये की सहायता से 18,000 मशीनें खरीदी गई हैं। ये मशीनें फसल के अवशेषों को खाद में बदलने में सहायता करती हैं, जिसका इस्तेमाल आने वाले समय में फसल अवशेषों को जलाने के चलन को ही खत्म कर सकता है। स्पष्ट है केंद्र सरकार ने अपनी जिम्मेदारियों का पूर्ण रूप से निर्वाह किया है और अब पंजाब और हरियाणा सरकार को पराली जलाने पर नियंत्रण के लिए प्रयास करने चाहिए। स्थिति की गंभीरता को न समझना और केंद्र सरकार पर दबाव बनाना दर्शाता है कि कैप्टन अमरिंदर सिंह अपनी जिम्मेदारियों से भाग रहे हैं।
जमीनी स्तर की स्थिति में बदलाव लाने से मना करने और आगे के उपाय के लिए केंद्र सरकार पर दबाव डालने से कैप्टन अमरिंदर सिंह केवल अपनी जिम्मेदारियों से भागने की कोशिश कर रहे हैं। यहाँ पर इस बात पर भी ध्यान आवश्यक है कि राज्यों के पास वर्तमान स्थिति का समाधान निकालने के लिए कई विकल्प हैं। भले ही हरियाणा और पंजाब की सरकार उच्च न्यायालय के फैसले के आधार पर किसानों को ठूंठ [फसल के अवशेष] जलाने के लिए जुर्माना नहीं लगा सकती, पर वे उदाहरण के लिए राज्य के वन भूमि जैसे वैकल्पिक स्थानों पर फसल के अवशेषों के भंडारण के लिए प्रावधान तो कर ही सकती है। इसके अलावा राज्यों को खाद मांग को पूरा करने के लिए के लिए उचित इनफ्रास्ट्रक्चर की ओर अपने कदम बढ़ाने ही होंगे। कायदे से दोनों राज्यों को पहले ही उस दिशा में काम करना चाहिए था, परंतु पंजाब के सीएम द्वारा दिए गए बयान में उनकी निष्क्रियता और इस समस्या से निपटने में उनकी अक्षमता साफ दिख रही है। अब पंजाब और हरियाणा के लिए यही उचित होगा कि वे केंद्र से इस मुद्दे से निपटने की अपेक्षा करने के बजाय स्वयं इस समस्या से निपटने का प्रयास करें।