सांप्रदायिक हिंसा से पीड़ित बंगाली हिन्दू शरणार्थियों के लिए उम्मीद की नई किरण है सिटिजनशिप बिल

बंगाली हिंदू

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भारत के संवैधानिक मानकों के अनुसार राज्य का सभी नागरिकों के साथ समान व्यवहार करना अति आवश्यक है। परंतु यह दो प्रकार के शरणार्थियों – उत्तर भारत में स्थित पंजाबी हिन्दू व सिख शरणार्थी और बंगाली हिन्दू शरणार्थी पर ये बात लागू नहीं होती। दोनों ही समुदायों ने अखंड भारत के विभाजन के कारण हुई सांप्रदायिक हिंसा के शिकार बने, और दोनों ही समुदायों को इस ऐतिहासिक गलती के दुष्परिणाम भुगतने पड़े। परंतु पंजाबी शरणार्थियों की तुलना में आज भी बंगाली हिन्दू शरणार्थियों को भारतीय नागरिकता के लिए कई समस्याओं से जूझना पड़ता है।

पंजाब के लिए, विभाजन का अर्थ था तत्कालीन जनसंख्या का त्वरित आदान-प्रदान करना। पश्चिमी पंजाब से आने वाले हिंदू और सिक्खों को भारत की ओर जाना था, तो वहीं भारतीय पंजाब के मुसलमानों को पाकिस्तान का रूख करना था। परंतु बांग्लादेश के मामले में आबादी का ऐसा आदान-प्रदान नहीं हुआ। बंगाली हिंदुओं की आवाजाही पहले पूर्वी पाकिस्तान और उसके बाद 1971 में बांग्लादेश के विभाजन के बाद कई वर्षों तक जारी रही।

परंतु यह घटना अवैध प्रवासियों की घुसपैठ से पूरी तरह भिन्न थी, जो बेहतर आजीविका, आर्थिक अवसरों आदि के लिए भारत में प्रवेश करते हैं और यही वह बात है जहां नागरिकता (संशोधन) विधेयक का सार निहित है।  इस बिल के अंतर्गत पाकिस्तान और बांग्लादेश से आने वाले अल्पसंख्यक समुदायों को छोड़कर हिंदू, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन और पारसी को “अवैध अप्रवासी” के वर्ग से अलग किया गया है, जो बंगाली हिंदू शरणार्थियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय का प्रायश्चित ही है।

बंगाली हिन्दू शरणार्थियों को किस प्रकार के अत्याचार सहने पड़े थे, इसका प्रत्यक्ष प्रमाण मरीछझापी नरसंहार में देखने को मिलता है। इसकी शुरुआत उस समय शुरू होती है, जब दलित मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थकों में से एक जोगेन्द्र नाथ मण्डल ने स्वतन्त्रता के बाद पूर्वी पाकिस्तान में रहने के लिए नांशूद्र समुदाय [अनुसूचित जाति] को मनाया था। परंतु 1950 तक जोगेन्द्र नाथ मण्डल स्वयं पाकिस्तान छोड़कर भाग आए और उन्होंने पाकिस्तानी सरकार पर हिन्दू विरोधी होने का आरोप लगाया। परंतु 1971 तक अधिकतर अनुसूचित जाति और जनजाति के लोगों को पूर्वी पाकिस्तान में रहना पड़ा।

जब उन्होंने भारत में शरण ली, तो बंगाल के प्रथम साम्यवादी मुख्यमंत्री ज्योति बसु ने काँग्रेस नेताओं को पत्र लिखते हुये इन शरणार्थियों के लिए सुंदरबन के द्वीपों पर बसाने को कहा। 1988 तक मरीचझापी द्वीप पर 30000 से ज़्यादा शरणार्थी बस चुके थे। परंतु इनकी बढ़ती संख्या साम्यवादी सरकार की आँखों में चुभने लगी, और जल्द ही मरीचझापी द्वीप पर एक वीभत्स नरसंहार हुआ, जिसमें 1700 से भी ज़्यादा लोग मारे गए और कई महिलाओं को यौन शोषण का शिकार होना पड़ा। परंतु यह नरसंहार हमारे इतिहास में महज़ एक ‘दुर्घटना’ मानी जाती है, जिससे यह सिद्ध होता है कि किस तरह इन साम्यवादी लोगों के प्रभुत्व के कारण बंगाली हिन्दू शरणार्थियों के साथ सदैव अन्याय किया गया।

इसके अलावा इस सोच ने भी स्थिति को बिगाड़ा, जिसमें ये माना जाता था कि भारत में बंगाली हिंदुओं का आना अस्थायी है, और मामला ठीक होने पर वे अपने मूल घरों [यानि बांग्लादेश] को लौट जाएंगे। ये भ्रम 1950 में हस्ताक्षरित नेहरू-लियाकत समझौते में निकलकर सामने आया और हमारे नेता इसी भ्रम में 1972 तक रहे। ऐसे में कोई बंगाली हिन्दू शरणार्थियों के पुनर्वास के लिए कैसे सोचता। कई जगह तो उन्हे आज भी भारतीय नागरिक के तौर पर नहीं माना जाता।

मेघालय उच्च न्यायालय के माननीय न्यायमूर्ति एसआर सेन द्वारा सुनाये 37 दिन लंबे निर्णय में भारत के विभाजन के बाद से पड़ोसी देशों से भारत आए शरणार्थियों के लिए नागरिकता का मुद्दा उठा। उन्होंने कहा, “यह एक निर्विवाद तथ्य है कि विभाजन के समय, लाखों सिख और हिंदू मारे गए थे, उन पर हर तरह के अत्याचार किए गए और महिलाओं के साथ बलात्कार हुआ और उन्हें अपने पूर्वजों की संपत्ति छोड़ने के लिए मजबूर किया गया। उन्हें अपने जीवन और गरिमा को बचाने के लिए भारत में प्रवेश करने के लिए मजबूर होना पड़ा”।

बिना किसी लाग लपेट के उन्होने आगे कहा, ” पाकिस्तान ने खुद को एक इस्लामिक देश घोषित किया और चूंकि भारत को धर्म के आधार पर विभाजित किया गया था, इसे भी एक हिंदू राष्ट्र घोषित किया जाना चाहिए था, परंतु यह एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में रहा। उनके अनुसार आज भी पाकिस्तान, बांग्लादेश जैसे पड़ोसी देशों में हिंदू, सिख, जैन, बौद्ध, ईसाई, पारसी, खासी और गारो जाति के लोगों को प्रताड़ित किया जाता है और उनके पास जाने के लिए कोई जगह नहीं होती है और “उन हिंदुओं को विभाजन के दौरान भारत में प्रवेश दिया जाता है, परंतु उनके साथ विदेशियों जैसे व्यवहार किया जाता है। वास्तव में यह व्यवहार बेहद ही अतार्किक है और यह प्रकृति के नियमों के खिलाफ भी है।

साम्यवादियों की कृपा से सांप्रदायिक हिंसा के शिकार हुये बंगाली हिन्दू शरणार्थियों और देश को तोड़ने की मंशा रखने वाले घुसपैठियों के बीच का अंतर मिटा दिया गया। इसीलिए हमारी कम्युनिस्ट लॉबी लगभग जश्न मनाने लगी, क्योंकि रिपोर्टों के अनुसार असम एनआरसी लिस्ट में बहुसंख्यक हिंदू थे। इस लिस्ट के आने से आशंका और भी बढ़ जाती है कि बांग्लादेश से भारत आए बंगाली हिंदुओं को फिर से बांग्लादेश निर्वासित किया जा सकता है।

हमें इस बात को समझना होगा कि कौन किस परिप्रेक्ष्य में बांग्लादेश से भारत आया है। उनके बीच के अंतर को समझना होगा। जिन्हें तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान यानि अब के बांग्लादेश में पाकिस्तानी सेना द्वारा उत्पीड़ित किए जाने के बाद भारत आने के लिए उन्हें मजबूर होना पड़ा। बंगाली हिन्दू शरणार्थियों के साथ अवैध आप्रवासियों की तरह व्यवहार नहीं किया जाना चाहिए, बल्कि यह देश का दायित्व है कि वह उन्हें पहले राष्ट्रीयता प्रदान करे और उसके बाद उन्हें उचित आर्थिक और बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराए।

बंगाली कम्यूनिस्ट बुद्धिजीवियों ने आज तक हिंदू शरणार्थियों और घुसपैठियों के बीच इस अंतर को हटाने के लिए निरंतर प्रयास किए हैं। बांग्लादेश में उत्पीड़न का सामना कर रहे बंगाली हिंदुओं की वास्तविकता से वे पूरी तरह बेखबर हैं। बंगाली हिंदू शरणार्थियों को भारत सरकार से वह न्याय नहीं मिला जो पंजाबी हिंदू शरणार्थियों को मिला और यह हमारे पूर्व की सरकार व न्याय व्यवस्था की सबसे बड़ी विफलता है। ऐसे में केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित नागरिकता संशोधन कानून आशा की एकमात्र झलक है जो वर्षों से बंगाली हिन्दू शरणार्थियों के साथ हुये अन्याय को रोक सकता है साथ ही उन्हें एक सम्मानजनक जीवन दे सकता है।

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