महाराष्ट्र-हरियाणा चुनावों में BJP की जीत का श्रेय कांग्रेस को मिलना चाहिए, कारण यहां है

कांग्रेस

हरियाणा और महाराष्ट्र में हुए चुनावों के नतीजों में बेशक भाजपा सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी हो, हालांकि कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों ने भी भाजपा को कड़ी टक्कर दी। कांग्रेस को महाराष्ट्र में जहां 44 सीटें मिली, तो वहीं हरियाणा में कांग्रेस 31 सीटों पर कब्जा जमाने में सफल हुई। कुल मिलाकर इन चुनावों में कांग्रेस का प्रदर्शन काफी अच्छा रहा। हालांकि, यह स्थिति तब है जब कांग्रेस पहले ही अपने आप को एक हारी हुई पार्टी मानकर चल रही थी। इस साल के लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को जो करारी शिकस्त मिली थी, उसी का यह परिणाम था कि ना तो कांग्रेस के नेता इन चुनावों को लेकर उत्साहित थे और ना ही पार्टी के कार्यकर्ता।

वहीं दूसरी ओर पार्टी के आलाकमान ने भी इन चुनावों में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि अगर कांग्रेस गंभीरता से इन चुनावों पर अपना फोकस करती, तो वह ना सिर्फ महाराष्ट्र में और बेहतर प्रदर्शन कर सकती थी, बल्कि हरियाणा में सरकार बनाने में भी सफल हो सकती थी।

वर्ष 2014 के चुनावों की बात करें तो काँग्रेस ने हरियाणा में 90 विधानसभा सीटों में से महज़ 19 सीटों पर जीत दर्ज़ की थी, जबकि इन चुनावों में उसने लगभग बिना लड़े 31 सीटों पर अपना कब्जा किया है। ऐसे ही महाराष्ट्र में पिछले चुनावों में काँग्रेस ने 42 सीटों पर कब्जा जमाया था, लेकिन अबकी बार जहां एनडीए राज्य में बेहद मजबूत स्थिति में नज़र आ रही थी, ऐसी स्थिति में भी काँग्रेस 44 सीटों पर कब्जा जमाने में सफल हो गयी

हालांकि, इन चुनावों से पहले काँग्रेस पूरी तरह बिखरी और अव्यवस्थित नज़र आ रही थी। ना तो काँग्रेस के नेताओं में पार्टी को लेकर आत्मविश्वास था और न ही पार्टी में कई मुद्दों पर एकमत था। उदाहरण के तौर पर जहां सोनिया गांधी और राहुल गांधी जैसे नेताओं ने कश्मीर से अनुच्छेद 370 हटाने के फैसले का विरोध किया था, तो वहीं ज्योतिरादित्य सिंधिया और दीपेन्द्र हुड्डा जैसे क्षेत्रीय नेताओं ने सरकार के इस फैसले का समर्थन किया था। इसी अव्यवस्था का नतीजा था कि कांग्रेस के नेता लगातार पार्टी छोड़कर जा रहे थे। एक ओर जहां हरियाणा कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष अशोक तंवर ने टिकट बंटवारे से नाराज होकर पार्टी छोड़ दी तो वहीं दूसरी ओर मुंबई कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष संजय निरुपम पार्टी छोड़ने के कगार पर जाकर खड़े हो गए। इन दोनों ने अपने ही नेताओं पर गंभीर आरोप लगाए। हरियाणा के पूर्व सीएम भूपेन्द्र सिंह हुड्डा तो कांग्रेस पार्टी को छोड़कर अपनी नई पार्टी बनाने पर उतर आए थे। इसके अलावा इस बात से भी हर कोई भलीभांति परिचित है कि कांग्रेस की युवा पीढ़ी के नेताओं और बुजुर्ग नेताओं के बीच लम्बे अरसे से खींचतान चलती रहती है, इसी वजह से कांग्रेस बेहद कमजोर नज़र आ रही थी।

स्पष्ट है कि आज की तारीख में भाजपा की एक उपयुक्त विकल्प की कमी के कारण लोग काँग्रेस को वोट देना चाहते हैं और पार्टी को सत्ता में देखना चाहते हैं, लेकिन कांग्रेस पार्टी खुद इसको लेकर गंभीर नहीं है। काँग्रेस के आलाकमान ने भी इन चुनावों में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। राहुल गांधी ने हरियाणा में जहां सिर्फ 2 रैलियाँ की, वहीं महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में भी उन्होंने महज़ 4 रैलियाँ की। राहुल गांधी के अलावा सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी तो चुनाव प्रचार से नदारद ही दिखे। सोनिया गांधी की महेंद्रगढ़ में एक रैली प्रस्तावित जरूर थी, हालांकि अपनी खराब सेहत का हवाला देते हुए उन्होंने इस रैली में भी शिरकत नहीं की। यह दिखाता है कि काँग्रेस ने लड़ाई से पहले ही हार मान ली थी और अगर काँग्रेस गंभीरता से इन चुनावों में लड़ती तो नतीजों में हमें वाकई बड़े फेरबदल देखने को मिल सकते थे।

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