महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा चुनावों के परिणाम आ चुके हैं। दोनों ही राज्यों में भाजपा ने जीत हासिल की है। एक तरफ महाराष्ट्र में शिवसेना के साथ जहां पूर्ण बहुमत के साथ सरकार बना रही है तो वहीं, दूसरी ओर हरियाणा में 40 सीटों के साथ बहुमत से 6 सीट पीछे रह गयी है। लेकिन एक बात गौर करने वाली रही कि गांधी परिवार के ज्यादा दिलचस्पी न लेने के बावजूद कांग्रेस का प्रदर्शन दोनों ही राज्यों में अच्छा रहा। इस चुनाव परिणाम ने यह साबित कर दिया कि अप्रासंगिक हो चुके गांधी परिवार से ज्यादा अब क्षेत्रीय नेताओं की पकड़ है और कांग्रेस को अब उनके इशारों पर ही चलना होगा। यह परिणाम कांग्रेस में हो रही शक्ति का विकेन्द्रीकरण के भी संकेत दे रहा है।
एक ओर जहां महाराष्ट्र में 2014 के अपने प्रदर्शन में सुधार करते हुए 44 सीटें जीतीं हैं वहीं, हरियाणा में जबरदस्त प्रदर्शन करते हुए अपने पिछले प्रदर्शन 15 से 200 प्रतिशत बेहतर करते हुए 31 पर जीत हासिल की। इससे यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि कांग्रेस अब बिना गांधी परिवार के ही राज्यों के नेताओं की बदौलत जीत हासिल करने में सक्षम है।
गांधी परिवार में से सभी बड़े नेता चुनाव प्रचार से लगभग दूर ही रहे। राहुल गांधी ने हरियाणा में जहां सिर्फ 2 रैलियां की, वहीं महाराष्ट्र जैसे बड़े राज्य में भी उन्होंने महज़ 4 रैलियां की। राहुल गांधी के अलावा सोनिया गांधी और प्रियंका गांधी तो चुनाव प्रचार से नदारद ही दिखे। सोनिया गांधी की महेंद्रगढ़ में एक रैली प्रस्तावित जरूर थी। हालांकि, अपनी खराब सेहत का हवाला देते हुए उन्होंने इस रैली में भी शिरकत नहीं की।
स्वतन्त्रता के बाद से ही गांधी परिवार के नाम पर चलने वाली कांग्रेस में गाँधी परिवार का अब इस तरह से राजनीति महत्ता कम होने पर क्षेत्रीय नेताओं का उदय और राजनीतिक ताकत का विकेन्द्रीकरण कांग्रेस में संरचनात्मक बदलाव के संकेत दे रहा है।
स्वतन्त्रता के बाद जब जवाहरलाल नेहरू ने सत्ता संभाली थी तब वह कांग्रेस के अध्यक्ष भी थे। उन्होंने क्षेत्रिय नेताओं को भरपूर छूट दिया या यूं कहे कि उस समय उनकी मजबूरी भी थी। इस वजह से कई नेता अपनी पहचान बनाने में सफल रहे, भले वह राजनीतिक इतिहास में न दिखाई देते हों, पर उनकी अपने क्षेत्रों में पैठ थी। चाहे वह ओडिशा के कैलाश नाथ काटजू हो या कर्नाटक के आरआर दिवाकर या फिर पंजाब के बलदेव सिंह। इसके अलावा के कामराज, लाल बहादुर शास्त्री, गुलजारी लाल नंदा, मोरारजी देसाई और जगजीवन राम जैसे नेता भी रहे, जिन्होंने आगे चल कर देश में नेतृत्व भी किया।
लेकिन जब सत्ता इन्दिरा गांधी के हाथों में आई तो वह लाल बहादुर शास्त्री के छाए से बाहर निकलना चाहती थीं, इसलिय उन्होंने राजनीतिक ताकत का केन्द्रीकरण करना शुरू किया। इससे पहले लाल बहादुर शास्त्री ने इन्दिरा गांधी को पूरी तरह से दरकिनार कर दिया था और उन्हें केबिनेट से भी हटाने का मन बना चुके थे, तभी उनकी अचानक से ताशकंद में हत्या कर दी गयी। इससे इन्दिरा को सत्ता में लौटने का अवसर मिल गया। इसके बाद इन्दिरा गांधी ने नेतृत्व को अपने परिसीमन में इस तरह से केंद्रित किया कि कोई भी फाइल बिना उनकी इजाजत के पास नहीं हुई। यही नहीं कांग्रेस एक पार्टी के तौर पर भी छोटे-छोटे फैसले लेने के लिए शीर्ष नेतृत्व पर निर्भर रहने लगी। इससे निर्भरता बढ़ती गयी जो आज तक व्याप्त है। कांग्रेस पार्टी में शीर्ष नेतृत्व पर निर्भरता इसी बात से अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि आपातकाल के दौरान 1975 से लेकर 1977 कांग्रेस के अध्यक्ष रहने वाले देवकांत बरुआ “इंडिया इज इंदिरा एंड इंदिरा इज इंडिया”का नारा दे चुके थे।
इंदिरा गांधी के बाद कांग्रेस राजीव गांधी के इर्द-गिर्द घूमती रही। और फिर राजीव के बाद सोनिया का दौर आया। बीच में अगर नरसिम्हा राव के पाँच वर्ष निकाल दें तो गांधी परिवार केंद्र में ही रहा और कार्यकर्ता परिवार पर ही निर्भर रहा। इस दौरान किसी क्षेत्रीय नेताओं को उभरने का जरा भी मौका नहीं मिला। राजीव गांधी की हत्या के बाद और नरसिम्हा राव की सरकार के दौरान कुछ क्षेत्रीय नेताओं जैसे वरिष्ठ नेता शरद पवार, पीए संगमा और तारिक अनवर ने जरूर उभरने की कोशिश की लेकिन सोनिया गांधी के कांग्रेस अध्यक्ष चुने जाने के बाद इन सभी ने भी कांग्रेस से अलग हो कर नई पार्टी बना ली। लेकिन कांग्रेस के कार्यकर्ता इस प्रकार गांधी परिवार पर निर्भर हो चुके थे कि वह सोनिया के बदले 3 बड़े क्षेत्रीय क्षत्रप को बाहर का रास्ता दिखाना अधिक जरूरी समझा। इसी राजनीतिक ताकत के केन्द्रीकरण ने कांग्रेस को क्षेत्रीय स्तर पर कमजोर करती गयी। आज यह हालत है कि कांग्रेस सिर्फ 4 राज्यों (मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और पंजाब) तक सिमट कर रह गयी है। हालांकि, इन 4 राज्यों में भी अगर कांग्रेस सत्ता में है तो वह क्षेत्रीय नेताओं के बल पर ही है।
परन्तु इस बार के आम चुनाव में करारी हार के बाद इस विधानसभा चुनाव में क्षेत्रीय नेताओं का अच्छा प्रदर्शन फिर से राजनीतिक ताकत का विकेन्द्रीकरण के संकेत दे रहा है। यह कांग्रेस के लिए अच्छी बात भी है क्योंकि इससे कांग्रेस का ही देश में विस्तार होगा, नए नेता उभरेंगे और सभी फैसले 10 जनपथ पर नहीं कांग्रेस के कार्यालय में लिए जाएंगे। इन चुनावों ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि कांग्रेस अगर अपने आप को पुनर्जीवित करना चाहती है तो उसे गांधी परिवार से छुटकारा दिलवाना ही होगा। चुनाव प्रचार में गाँधी परिवार की अनुपस्थिति से दोनों राज्यों में कांग्रेस पार्टी को फायदा ही हुआ। ऐसे में हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों से कांग्रेस को फिर एक बार यह सबक मिला है कि उसे गांधी परिवार के बिना ही अपने अभियानों को आगे बढ़ाने की जरूरत है।