शास्त्रों में कहा गया है, ‘अति सर्वत्र वर्जयते’, अर्थात किसी भी चीज़ की अति सही नहीं है। वर्तमान विधानसभा चुनाव के परिणामों से ऐसा प्रतीत होता है कि भाजपा को इस सीख का कड़वा अनुभव मिला होगा। एक ओर जहां हरियाणा राज्य में भाजपा को अपनी सरकार बचाने के लिए एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाना पड़ रहा है, तो वहीं महाराष्ट्र में भी उनकी स्थिति ज़्यादा बेहतर नहीं है। हरियाणा में जहां भाजपा 90 में से 40 सीटों पर आगे चल रही है, तो वहीं महाराष्ट्र में भाजपा और शिवसेना का गठबंधन कुल 288 सीटों में से 160 से ज़्यादा सीटों पर आगे चल रही है।
2014 की तुलना में यदि इस प्रदर्शन को देखें, तो ये निस्संदेह भाजपा के लिए एक शुभ संकेत नहीं है। 2014 में भाजपा ने दोनों राज्यों में अकेले ही चुनाव लड़ा था, और हरियाणा में सभी को चौंकाते हुये उम्मीद से भी ज्यादा 47 सीटों पर जीत दर्ज की थी। ऐसा पहली बार हुआ था जब भाजपा ने हरियाणा में न केवल सबसे ज़्यादा सीट जीत पाई थी, बल्कि वह राज्य में पहली बार अपने दम पर सरकार बनाई थी। इसके अलावा भाजपा ने महाराष्ट्र में बिना शिवसेना के समर्थन के 122 सीटें जीतकर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी।
लेकिन इस बार हालात बदल चुके हैं, भाजपा न केवल हरियाणा में अपनी सरकार बचाने के लिए जूझ रही है, बल्कि महाराष्ट्र में भी उसका कद घटा है। महाराष्ट्र में वर्तमान रुझानों के अनुसार भाजपा सिर्फ 160 से ज़्यादा सीटों पर ही आगे चल रही है, जो पिछली बार के मुक़ाबले कम हैं। इसके अलावा शिव सेना ने भी पिछली बार से ज़्यादा सीटें जीती हैं, जिसके कारण अब गठबंधन में शिवसेना का वर्चस्व एक बार फिर बढ़ेगा।
सच कहें तो भाजपा का अति आत्मविश्वास अक्सर चुनावों में उसके प्रदर्शन को बड़ा झटका देता है। महाराष्ट्र और हरियाणा के विधानसभा चुनावों के साथ 16 राज्यों के 51 विधानसभा सीटों पर हुए उपचुनावों में भी कुछ ऐसा ही देखने को मिल रहा है। भले ही भाजपा बाद में हरियाणा में सरकार बनाने में कामयाब रहे, परन्तु अति आत्मविश्वास भाजपा के लिए कितना बड़ा घातक साबित हो सकता है यह वर्तमान चुनावों में साफ देखने को मिल रहा है।
भाजपा के वर्तमान प्रदर्शन के पीछे कई कारण हैं, परंतु प्रमुख कारणों में से एक है इस बार का चुनाव प्रचार। तमाम चुनौतियों से पार पाते हुये भाजपा ने जिस तरह से अर्थव्यवस्था को समय रहते संभाला और अनुच्छेद 370 को जम्मू-कश्मीर से हटवाया, उस हिसाब से उन्हें अपने प्रचार में कोई कसर नहीं छोड़नी चाहिए थी।
परंतु ज़बरदस्त प्रचार की बात तो दूर, इन दोनों ही राज्यों में भाजपा का चुनाव प्रचार बेहद फीका रहा। जमीनी स्तर पर भाजपा ने अपने बूथ टू बूथ प्रचार के फॉर्मूले का प्रयोग ही नहीं किया, स्टार प्रचारकों की लंबी लिस्ट तो जारी की लेकिन उनकी चुनाव प्रचार में भागीदारी नहीं दिखी।
स्टार प्रचारकों की लिस्ट में शामिल यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ, पीएम मोदी और अमित शाह के बाद सबसे लोकप्रिय नेता के तौर पर जाने जाते हैं लेकिन हरियाणा चुनाव प्रचार में उनका प्रयोग नहीं किया गया, जिसका नुकसान सामने है।
इतना ही नहीं, हर चुनाव में ट्रम्प कार्ड के तौर पर प्रयोग किए जाने वाले पीएम मोदी और अमित शाह की जोड़ी का भी भरपूर प्रयोग नहीं किया गया, और लोकसभा चुनाव में भाजपा के क्लीन स्वीप के बाद पार्टी के राज्य इकाई में ये ओवर कॉन्फिडेंस आ गया कि उन्हें किसी भी स्थिति में वोट अवश्य मिलेगा। दावे तो यह भी किए गए कि बीजेपी 90 में से 75 सीटों पर विजयी होकर दिखाएगी, परंतु सच्चाई इससे कोसों दूर निकली।
2016 से भाजपा ने कई ऐसे राज्यों में चुनाव जीते, जहां बहुमत प्राप्त करना तो दूर, एक सीट जीतना भी किसी करिश्मे से कम नहीं माना जाता था। चाहे पूर्वोत्तर में असम, त्रिपुरा जैसे राज्य हों, या फिर फिर दक्षिण में कर्नाटक जैसे राज्य हों, या उत्तर प्रदेश, झारखंड जैसे राज्य क्यों न हो, बीजेपी इसलिए वहाँ पर विजयी हुई, क्योंकि इन चुनावों में अमित शाह, पीएम मोदी एवं योगी आदित्यनाथ जैसे नेताओं का चुनाव प्रचार में भरपूर प्रयोग किया गया, और वो काफी हद तक सफल भी रहा था।
राजस्थान में जहाँ भाजपा को काफी कमजोर माना जा रहा था, वहाँ पर बीजेपी ने कांग्रेस को कड़ी टक्कर दी थी और इसके साथ ही कर्नाटक में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी थी। काफी जनादेश के बावजूद भी मध्य प्रदेश में भाजपा मामूली अंतर से सरकार बनाने से चूक गयी, और विपक्ष में बैठना पड़ा। इसकी तुलना में वर्तमान चुनावों के प्रचारकों की सूची देखें तो भाजपा का प्रदर्शन काफी लचर रहा।
परंतु ये पहली बार नहीं हुआ है। इससे पहले भी कई बार बीजेपी को इस तरह के अति आत्मविश्वास के कारण बड़ा झटका लगा है। 2015 में हुए इसी अति आत्मविश्वास के कारण दिल्ली एवं बिहार के विधानसभा चुनावों में बीजेपी को हार का मुंह देखना पड़ा था, और भला वे 2004 में हुए लोकसभा चुनाव को कैसे भूल सकते हैं?
‘इंडिया शाइनिंग’ का दावा करने वाली बीजेपी को अपने अति आत्मविश्वास के कारण सत्ता से न केवल हाथ धोना पड़ा था, बल्कि देश की सत्ता को 10 वर्षों तक कांग्रेस के हाथों में सौंपनी पड़ी थी। स्वयं वयोवृद्ध भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने इस बात को स्वीकारते हुये कहा था, “2004 का चुनाव बीजेपी इसलिए हारी क्योंकि पार्टी को जीत का जरूरत से ज्यादा यकीन हो गया था”।
अब जब झारखंड और दिल्ली के विधानसभा चुनाव ज़्यादा दूर नहीं हैं, तो ये परिणाम एक कड़वी दवाई की भांति सही समय पर भाजपा को मिली है। यदि समय रहते भाजपा ने अपने अति आत्मविश्वास की प्रवृत्ति को नियंत्रित कर लिया, तो स्थिति को सुधरते देर नहीं लगेगी। इस बार भले ही पार्टी महाराष्ट्र में सरकार बनाने में सफल होती दिख रही है परन्तु उन्हें अपने अति आत्मविश्वास पर विचार करने की जरूरत है।