जब भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का निधन हुआ था, तब शिवसेना के नेता संजय राउत ने पार्टी के मुखपत्र ‘सामना’ के संपादक होने के नाते ये पूछा था- ‘क्या पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी का निधन 16 अगस्त को ही हुआ था या उस दिन उनके निधन की घोषणा की गई जिससे यह सुनिश्चित हो सके कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का स्वतंत्रता दिवस भाषण बाधित न हो।‘
“स्वराज्य म्हणजे काय” [‘स्वराज्य क्या है?’] नामक लेख में राऊत लिखते हैं, “हमारे लोगों की बजाए हमारे शासकों को पहले यह समझना चाहिए कि ‘स्वराज्य’ क्या है। वाजपेयी का निधन 16 अगस्त को हुआ लेकिन 12-13 अगस्त से ही उनकी हालत बिगड़ रही थी। स्वतन्त्रता दिवस पर शोक मनाने या राष्ट्रध्वज को आधा झुकाने से बचने के लिए वाजपेयी जी 16 अगस्त को परलोक सिधार गए, ताकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लाल किले की प्राचीर से अपना भाषण दे पायें।
संजय राउत को इस बेतुके बयान के लिए जमकर लताड़ा गया। परंतु अगर इनके बयानों को ध्यान से देखें, तो वाजपेयी जी के देहावसान को लेकर दिया गया बयान ऐसा पहला बयान नहीं है जो राऊत जी के ‘श्रीमुख’ से निकला हो। संजय राउत ऐसे बेतुके बयान पहले भी दे चुके हैं, और इसी स्वभाव के कारण आज शिवसेना अपनी विश्वसनीयता खोती हुई दिख रही है।
संजय राउत ‘सामना’ के प्रमुख संपादक हैं और उद्धव ठाकरे के काफी करीब भी रहे हैं। शायद बालासाहेब ठाकरे के जीवित रहते राऊत की करतूतें खुलकर सामने नहीं आई थी। परंतु बालासाहेब ठाकरे के निधन के बाद आज शिवसेना मझधार में खड़ी है और इस समय संजय राउत ने अपने आप को शिवसेना की कोर टीम में सबसे प्रभावशाली नेता के तौर पर सिद्ध किया है।
संजय राउत कई राजनेताओं और नीति निर्माताओं के प्रचुर मिश्रण हैं। वे अमर सिंह की भांति चतुर हैं और शरद यादव की भांति काफी घमंडी भी। अब तक संजय राउत या शिवसेना प्रमुख के तंज़ अक्सर भाजपा के प्रति उनकी गलतफहमियों को दर्शाती थी। परंतु बात यहीं पर नहीं रुकी, संजय राउत ने तो राहुल गांधी की प्रशंसा करते हुए यहाँ तक कह दिया कि वे पूरे देश को संभालने योग्य हो गए हैं और अब मोदी लहर की चमक धूमिल पड़ती जा रही है। शायद अमर सिंह और शरद यादव की खूबियों के साथ-साथ राहुल गांधी के राजनीतिक गुरु कहे जाने वाले दिग्विजय सिंह के गुण भी विरासत में लिए हैं।
यूं तो शिव सेना ने ऐसे बयान पहले भी दिये हैं, परंतु काँग्रेस के समर्थन में संजय राउत द्वारा दिये गये बयान ने शिवसेना की छवि को काफी धूमिल किया है। अब अगर सूत्रों की मानें तो राऊत के मार्गदर्शन में शिवसेना काँग्रेस और एनसीपी के साथ मिलकर महाराष्ट्र में सरकार बनाने पर विचार कर रही है। शायद राऊत और उनके सलाहकार यह भूल रहे हैं कि शिवसेना एक आक्रामक पार्टी है जो पहले मराठी माणूस और फिर हिन्दुत्व के हितों की रक्षा के लिए देशभर में विख्यात थी। ऐसे में एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन कर शिवसेना उसी छद्म धर्मनिरपेक्षता को अपनाएगी, जिसके विरुद्ध इनके संस्थापक बालासाहेब ठाकरे ने आजीवन लड़ाई लड़ी थी।
भले ही कुछ लोगों को ऐसा लगे कि वे हिन्दुत्व और राष्ट्रवाद की अपनी मूल विचारधारा से विमुख हो रहे हैं, परंतु भाजपा अभी भी देश में एक ऐसी पार्टी है, जो इस विचारधारा का निस्संकोच प्रतिनिधित्व करती है। ऐसे में शिवसेना का वर्तमान स्वरूप युवा पीढ़ी को भाजपा से जुडने की ओर आकर्षित कर सकता है। इससे न केवल शिवसेना की छवि धूमिल होगी, बल्कि उसकी कार्यकुशलता पर भी प्रश्नचिन्ह खड़ा होगा। ग्रामीण क्षेत्रों और जमीनी स्तर पर शिवसेना पहले ही काफी कुछ खो चुकी है।
ऐसे में यदि शिवसेना अपने कैडर और कार्यकर्ताओं से विमुख होने लगी, तो उन्हें पार्टी छोड़ने में ज़्यादा देर नहीं लगेगी। भाजपा सांसद संजय काकड़े का बयान, जहां उन्होने शिवसेना के 45 राजनेताओं के भाजपा के संपर्क में होने की ओर इशारा किया है, इसी ओर संकेत देता है।
सच पूछें तो सेना को राज्य में बने रहने के लिए भाजपा की सख्त आवश्यकता है। नितीश कुमार ने समय रहते यह बात शायद भाँप ली थी, जिसके कारण वे न केवल एनडीए में वापस आए, बल्कि बिहार में उनकी सरकार भी बनी रही। परंतु संजय राउत और उनके तंज़ न केवल गठबंधन को तोड़ने में प्रयासरत हैं, बल्कि उनकी एनसीपी और कांग्रेस के साथ जुड़ने की धमकियाँ भाजपा और सेना के सम्बन्धों को उसी ओर ले जा रहे हैं, जहां चंद्रबाबू नायडू तेलुगू देसम पार्टी और भाजपा के गठबंधन को हाल ही में लोकसभा चुनाव से पहले ले गए थे। 1990 के दशक में प्रमोद महाजन ने उस समय की स्थिति को भाँपते हुए शिव सेना के साथ संबंध स्थापित किए थे। यदि शिव सेना को अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा वापस लानी है, तो संजय राउत को प्रमोद महाजन से कुछ सीख लेनी चाहिए।
देवेंद्र फड़नवीस ने पहले ही कहा था कि सेना, सरकार और विपक्ष दोनों में नहीं हो सकती। ऐसे में अब शिवसेना को चाहिए कि वे संजय राउत के बड़बोले स्वभाव को पीछे छोड़ व्यावहारिकता से भाजपा के साथ बातचीत करें। अमित शाह से भले ही शिवसेना चिढ़ती हो, परंतु उनकी राजनीतिक सूझबूझ पर बहुत कम ही संदेह किया जा सकता है। यदि सेना को महाराष्ट्र में बने रहना है, तो उन्हें अपनी वर्तमान छवि को सुधारनी होगी, अन्यथा संजय राउत के मार्गदर्शन में शिवसेना का पतन तय है।