क्यों दुष्यंत चौटाला ने बिना लड़े ही कर दिया सरेंडर? इसका जवाब पटना और बैंगलोर में है

दुष्यंत चौटाला

हरियाणा विधानसभा चुनाव में कई चौकने वाले परिणाम सामने आए लेकिन इनमें सबसे ख़ास रहा दुष्यंत चौटाला का उदय। हालांकि, इस चुनाव में किसी एक पार्टी को पूर्ण बहुमत नहीं मिला है, लेकिन भाजपा 40 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी रही है। चुनाव नतीजे आने के बाद भारतीय जनता पार्टी अगली सरकार बनाने के लिए जरूरी बहुमत के आंकड़े से छह सीट पीछे रह गई। चुनाव में कांग्रेस को 31 सीटों पर जीत मिली है, जबकि जननायक जनता पार्टी (जजपा) को 10 और इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) और हरियाणा लोकहित पार्टी (एचएलपी) को एक-एक सीट मिली हैं। स्वतंत्र उम्मीदवारों ने सात सीटों पर जीत दर्ज की है। ऐसी स्थिति में दुष्यंत चौटाला, JJP द्वारा जीती गयी 10 सीटों के साथ “किंग मेकर” की भूमिका में आ गए। वह अगर चाहते तो कर्नाटका के एचडी कुमारस्वामी की तरह सत्ता में वापसी को मजबूर कांग्रेस को समर्थन देकर “मुख्यमंत्री पद हासिल कर सकते थे। लेकिन ऐसा नहीं हुआ और अमित शाह से मुलाक़ात के बाद वह उपमुख्यमंत्री पद और 2 कैबिनेट मंत्री पद पर संतोष कर भाजपा को समर्थन देने पर राज़ी हो गए।

आखिर यह कैसे संभव हुआ?

इसका उत्तर पटना और बेंगलुरु में छिपा है यानि बिहार और कर्नाटक के राजनीतिक परिदृश्य से दुष्यंत चौटाला द्वारा ली गयी सीख।

जेडीएस और कांग्रेस द्वारा कर्नाटक में किया गया राजनीतिक उलटफेर अभी तक सभी के ज़हन में है और शायद दुष्यंत चौटाला ने भी इसे याद रखा होगा कि किस तरह कांग्रेस ने सत्ता के लोभ में जेडीएस के कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बना कर एक साल तक दबाव में रखा और फिर समर्थन ही वापस ले लिया। यही नहीं, कई बार तो खुद मुख्यमंत्री पद पर रहे कुमारस्वामी कांग्रेस के दबाव से परेशान दिखे और कई मौकों पर वो रोते भी नजर आये। सत्ता के दौरान कांग्रेस और जेडीएस के बीच कैबिनेट  में मंत्रालय को लेकर झगड़े से लेकर सिद्धारमैया पर आरोप लगाने तक आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी रहा। गठबंधन को सरकार बनाने के बाद इसी वर्ष जुलाई में आखिर यह अवसर-वादी गठबंधन टूटा और सरकार गिर गयी। वैचारिक रूप से विरोधी रही कांग्रेस और JDS का इस तरह से गठबंधन करना अवसरवादिता का नमूना था जिससे आने वाले समय के नेता जरुर सीख लेना चाहेंगे। और ऐसा ही अब देखने को मिल रहा जब दुष्यंत चौटाला ने सीख लेते हुए कांग्रेस का नहीं बल्कि भाजपा को समर्थन करने का फैसला किया।

ऐसा ही दूसरा उदाहरण बिहार के नितीश कुमार का है। बिहार में बीजेपी, जनता दल यूनिटेड और राष्ट्रीय जनता दल के बीच ऐसा ही अवसरवादी खेल देखने को मिला था। वर्ष 2014 के आम चुनाव से ठीक पहले नितीश की जेडीयू ने भाजपा से 17 वर्ष पुराना गठबंधन तोड़ लिया था लेकिन आम चुनाव के परिणाम नितीश के उम्मीद के विपरीत आये और जेडीयू सिर्फ 2 लोकसभा सीटें जीत पायी। जबकि मोदी लहर पर सवार हो कर भाजपा ने 40 में से 31 लोक सभा सीटों पर जीत हासिल की। वहीं राष्ट्रीय जनता दल और जेडीयू ने 2015 के विधानसभा चुनाव के लिए रणनीति बनाई और इन दोनों ने साथ आने का निर्णय किया जिसका समर्थन कांग्रेस ने भी किया और महागठबंधन बना। यह दिलचस्प था क्योंकि केवल भाजपा को बिहार की सत्ता से दूर रखने के लिए वैचारिक रूप से धुर-विरोधी रहीं दो पार्टियों ने हाथ मिलाया था।

चुनाव के बाद बिहार की 178 विधानसभा सीटों में राजद 80 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी तथा जेडीयू को 71 और कांग्रेस को 27 सीटों पर जीत हासिल हुई।

लेकिन यहाँ यह देखने वाली बात है कि ज्यादा सीट जीतने के बाद भी राजद ने नितीश कुमार को मुख्यमंत्री के रूप में स्वीकार किया। बिहार की राजनीति में धुर-विरोधी रही जेडीयू और राजद पार्टियों के लिए साथ मिलकर सरकार चलाना कठिन था और जल्द ही ये गठबंधन टूट भी गया। जनता के बीच केंद्र की मोदी सरकार की लहर को भांपते हुए नितीश कुमार जुलाई 2017 में राजद को छोड़ वापस एनडीए में शामिल हो गए और फिर एनडीए की सरकार बन गयी। लेकिन फिर से मुख्यमंत्री का पद नितीश कुमार के पास ही था।

इन दोनों ही मामलों से यह कहा जा सकता है कि लोकतन्त्र में जनता ही सर्वोपरि है, और अपने राजनीतिक फायदे के लिए सरकार बनाने वाली पार्टियां ज्यादा दिन तक सत्ता में नहीं रह पाती। सत्ता के लोभ में आकर और जनादेश के विरुद्ध सरकार बनाने वाली पार्टियों को को हमेशा ही मुंह खानी पड़ती है।

बता दें कि भारतीय राजनीति में चौथी पीढ़ी के वंशज दुष्यंतचौटाला पूर्व उप-प्रधानमंत्री देवीलाल के परपोते और जेल में बंद इनेलो के नेता ओ.पी.चौटाला के पोते है।

उन्होंने निश्चित रूप से इन दोनों ही स्थिति को समझ कर भाजपा को समर्थन देने का फैसला किया है। हरियाणा में कांग्रेस के साथ जाने का स्पष्ट मतलब होता चौटाला को कांग्रेस मुख्यमंत्री पद की पेशकश करती। परन्तु इसे स्वीकार करने के बाद भी चौटाला के लिए सीएम की पारी आसान नहीं होती।

जैसा कि कर्नाटक में यह देखा गया कि कुमारस्वामी को कांग्रेस ने एक कठपुतली बना कर रख दिया था, उससे सीख लेकर चौटाला ने मुख्यमंत्री के स्थान पर उप-मुख्यमंत्री स्वीकारना उचित समझा। चौटाला इस बात से भी भली भांति परिचित होंगे कि भाजपा न केवल अपने सहयोगी दलों का सम्मान करती है बल्कि उन्हें सरकार बनाने के बाद उचित स्थान भी देती है। वैचारिक तौर पर सबसे मजबूत भाजपा ने सहयोगी दलों के साथ लंबी साझेदारी में विश्वास करती है। ऐसे में चौटाला का भाजपा के साथ आना स्पष्ट दर्शाता है कि उन्होंने यह फैसला सोच समझकर लिया है।

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