आज यानि 26 नवंबर को भारत अपना संविधान दिवस माना रहा है। भारत सरकार ने 19 नवंबर, 2015 को राजपत्र अधिसूचना की सहायता से 26 नवंबर को संविधान दिवस के रूप में घोषित किया था। आज के ही दिन 26 नवम्बर 1949 को भारत गणराज्य का संविधान बनकर तैयार हुआ था। संविधान सभा ने भारत के संविधान को 2 वर्ष 11 माह 18 दिन में तैयार कर 26 नवम्बर 1949 को राष्ट्र को समर्पित किया था।
संविधान ही वह आलेख है जिसमें वर्णित मौलिक अधिकारों के बल पर हम देश के हर कोने में अपनी स्वतंत्रता का आनंद उठाते हैं। किसी भी प्रकार का अन्याय होने पर यही मौलिक अधिकार हमारी ढाल बन जाते हैं। आज देश में मौलिक अधिकारों या fundamental rights की बात तो बड़े जोर-शोर से की जाती है, लेकिन जब बात आती है देश के प्रति अपनी जिम्मेदारियों की, तो हम सब पीछे हट जाते हैं।
अधिकार तो संविधान में शुरू से ही जोड़ा गया था लेकिन हमारे संविधान को लिखने वाले कर्तव्य जोड़ना भूल गए थे। देश की हजारों वर्ष पुरानी सभ्यता को देखकर उन्हें लगा होगा कि भारत भूमि के लोग पहले ही की तरह अपने कर्तव्यों को अपने अधिकारों से पहले रखेंगे। परंतु उन्हें नहीं पता था कि देश के लोग आने वाले दिनों में पश्चिमी बौद्धिकता का चोगा पहन लेंगे। लेकिन कानून बनाने वालों को आखिर इसका एहसास हुआ और इन्हें वर्ष 1976 में संविधान के 42वें संशोधन द्वारा जोड़ा गया है। यह श्री स्वर्ण सिंह समिति की सिफारिश पर आंतरिक आपातकाल की ज़रूरत एवं आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए लाया गया था।
मौलिक कर्तव्यों की अवधारणा को रूस के संविधान से लिया गया है। कहने को तो मौलिक कर्तव्यों की संख्या ग्यारह है, पर इनमें कुछेक कर्तव्यों को एक-दूसरे में जोड़ दिया गया है अर्थात नाम अलग-अलग कर दिया गया है। लेकिन आज भी हालात वही है। देश में लोग अपने अधिकारों को लेकर तो खूब छाती पीटते हैं परंतु कर्तव्यों के निर्वहन करने की जब बात आती है तो कदम खींच लेते हैं।
पिछले कुछ वर्षों में कर्तव्यों को छोड़ अधिकारों के लिए हुए कई विवादों ने दिखाया है कि कैसे मौलिक अधिकार, विशेष रूप से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गलत फायदा उठा कर मौलिक कर्तव्यों की उपेक्षा की गयी।
आज जाति या धर्म के नाम पर बंटने-बांटने के बजाय हम क्यों नहीं अपने मौलिक कर्तव्यों का पालन करते? अपने-अपने धर्म की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकारों की बात तो सब करते हैं लेकिन सर्वधर्म स्वतंत्रता व धार्मिक विश्वास को बढ़ाने की बात आखिर क्यों नहीं की जाती? तब हम इसी मौलिक अधिकार के साथ-साथ मौलिक कर्तव्य की बात क्यों नहीं करना चाहते? हम शिक्षा, स्वास्थ्य, व सड़क जैसी जन सुविधाएं पाने के लिए अपने मौलिक अधिकारों की बात भी करते हैं लेकिन इन्हीं जन सुविधाओं को पा लेने के बाद इनके रखरखाव की बात हम क्यों नहीं करते?
हमें परिवहन सुविधा मिलती है लेकिन हम उसी सुविधा के प्रति अपने मौलिक कर्तव्य को भूल जाते हैं। अपनी मांगें मनवाने के लिए हम मौलिक अधिकार की आड़ लेकर आंदोलन करते हैं, लेकिन मौलिक अधिकार में शांतिपूर्वक विरोध प्रकट करने की बात है, न कि हिंसक प्रदर्शन या आगजनी कर सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाना। हम तब क्यों भूल जाते हैं कि सार्वजनिक संपत्ति को सुरक्षित रखने का मौलिक कर्तव्य भी इसी संविधान ने दिया है।
आपका रोष व्यवस्था से हो सकता है लेकिन सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का मतलब खुद को नुकसान पहुंचाना है। देखा जाए तो हम मौलिक अधिकारों को अपनी जागीर मानते हैं जबकि मौलिक कर्तव्यों को दूसरों के लिए छोड़ देते हैं, मतलब लेने का अधिकार हमारा और देने का किसी दूसरे का। यह सोच हमें विकसित होने नहीं दे सकती।
उदाहरण के लिए, 2016 में जब जेएनयू में देश विरोधी नारे लगाए गए तो सीधे तौर पर भारत को तोड़ने की धमकी दी गई। जब सरकार ने इस मुद्दे पर कड़ा फैसला लेना चाहा तो यह हंगामा होने लगा कि सरकार अभिव्यक्ति के अधिकार का हनन कर रही है। हालांकि, यह बिल्कुल भी नहीं बताया गया था कि अनुच्छेद 51A (c) यह लिखा है कि प्रत्येक नागरिक पर “भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता की रक्षा” करने का कर्तव्य है। “ भारत तेरे टुकड़े होंगे इंशाल्लाह इंशाल्लाह“ और “हम लेके रहेंगे आज़ादी, कश्मीर मांगे आज़ादी” जैसे नारे भारत की संप्रभुता, एकता और अखंडता के लिए स्पष्ट चुनौती देते हैं।
वहीं हाल में ही एक और मुद्दा भी सामने आया था जब सुप्रीम कोर्ट ने सिनेमा हाल में राष्ट्रीय गान को बजाना अनिवार्य कर दिया था। कई लोग तो राष्ट्रगान बजते समय खड़े होना भी आवश्यक नहीं समझते हैं और कारण अपने अभिव्यक्ति की आजादी बताते हैं। हालांकि, यह तर्क देते वाले संविधान के भाग IV-A से पूर्णतः अज्ञात थे। मौलिक कर्तव्य के अनुच्छेद 51 A (a) में यह स्पष्ट लिखा है कि अन्य बातों के साथ, यह राष्ट्रगान का सम्मान करना प्रत्येक नागरिक का कर्तव्य है।
इन दोनों ही विवादों से यह स्पष्ट होता है कि कैसे अधिकारों को जेब में रख कर कर्तव्यों को पैरों तले दबा दिया जाता है। हमारा संविधान कई भागों से मिलकर तैयार हुआ है और अगर इस तरह एक भाग का इस्तेमाल कर दूसरे को नज़रअंदाज़ किया जाता रहेगा तो हम कभी भी विश्व के सामने अपने देश और संविधान की छवि को इसके सही स्वरूप में पेश नहीं कर पाएंगे।
यह सच है कि मौलिक अधिकारों की तरह ही मौलिक कर्तव्यों को न्यायालयों के समक्ष लागू नहीं किया जाता है जिसके उल्लंघन पर संवैधानिक न्यायालय अपने क्षेत्राधिकार से त्वरित कारवाई की पुष्टि करता है। हालांकि, इसका यह अर्थ नहीं निकाला जाना चाहिए कि भारत के संविधान का भाग IVA मात्र दिखावा के लिए है।
बता दें कि AIIMS Students’ Union v AIIMS, AIR 2001 SC 3262 केस में मजूमदार का यह मानना था कि भले ही अनुच्छेद 51 A में वर्णित मौलिक कर्तव्य कोर्ट के रिट पर लागू करने योग्य न हो लेकिन इसे हम नकार नहीं सकते। इसमें भी वही उपसर्ग यानि “मौलिक” जुड़ा है जो संविधान के भाग III में दिये गए मौलिक अधिकारों में जुड़ा है जिसे हमारे देश के संविधान निर्माताओं द्वारा लिखा गया था।
वहीं एक और केस Government of India v George Philip, AIR 2007 SC 705, में सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा था कि कोर्ट को ऐसे फैसले नहीं देने चाहिए जो संविधान की भाग- IVA की अंतर्निहित भावना को प्राप्त नहीं करते हैं, लेकिन उसी नष्ट करने की प्रवृत्ति रखते हैं।
इस तथ्य के आधार पर एक मौलिक अधिकार बताता है कि आप एक इंसान हैं, जबकि एक मौलिक कर्तव्य भी मनुष्य के रूप में आपकी ज़िम्मेदारी तय करता है। अतः मौलिक अधिकार और मौलिक कर्तव्य के बीच प्राथमिक अंतर यह है कि मौलिक अधिकार आपके लिए दी गई विशेषाधिकार पर आधारित है, जबकि मौलिक कर्तव्य जवाबदेही पर आधारित है। हमें अब यह तय करना है कि हम अपने अधिकारों से पहले अपने कर्तव्यों की बात करें। यही हमें और हमारे देश को उन्नति की राह पर ले जाएगा।
यह सच है कि मौलिक कर्तव्य मूल संविधान का हिस्सा नहीं था और बाद में एक संवैधानिक संशोधन के माध्यम से इसे शामिल किया गया था। लेकिन इसी संविधान ने हमें समाज व देश के प्रति जो जिम्मेदारी तय करने के मौलिक कर्तव्य दिए उनकी बात या तो कोई करना नहीं चाहता या हम जान-बूझ कर नहीं करते। मतलब साफ है, हम पाना तो सबकुछ चाहते हैं लेकिन बदले में या अपना दायित्व समझ कर कुछ करना नहीं चाहते। भारतीय संविधान में वर्णित मौलिक अधिकार एवं मौलिक कर्तव्य दोनों एक सिक्के के दो पहलू हैं और किसी भी समाज के संचालन के लिए इन दोनों का पालना करना अनिवार्य है।
हमें अपने मौलिक अधिकारों से पहले अपने मौलिक कर्तव्यों का पालन करना चाहिए। मौलिक कर्तव्य, देश के नागरिक के रूप में आपको दिया जाने वाला मूलभूत कर्तव्य या उत्तरदायित्व है। मौलिक अधिकार और मौलिक कर्तव्य के बीच यह सबसे महत्वपूर्ण अंतर है