सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश, न्यायमूर्ति शरद अरविंद बोबड़े ने सोमवार को 47वें भारत के मुख्य न्यायाधीश के रूप में शपथ ली। वह सेवानिवृत्त सीजेआई रंजन गोगोई की जगह लेंगे, जिनके कार्यकाल में भारतीय न्यायपालिका के प्रमुख के रूप में अब तक के सबसे प्रभावशाली कार्यकालों में से एक के रूप में सफल रहे हैं। अयोध्या का निर्णय जहां एक ऐतिहासिक फैसला साबित हुआ है, वहीं कई अन्य महत्वपूर्ण मामलों पर भी जस्टिस गोगोई ने अहम निर्णय दिए हैं- जैसे कि भारत के मुख्य न्यायाधीश के कार्यालय को दायरे में लाना, आरटीआई अधिनियम, सबरीमाला विवाद के लिए सात न्यायाधीश वाले पीठ का सुझाव देना इत्यादि।
न्यायमूर्ति एसए बोबड़े स्वयं अभूतपूर्व निर्णयों का हिस्सा रहे हैं। उदाहरण के लिए भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति खेहर की अध्यक्षता वाली नौ-न्यायाधीश पीठ भी शामिल थी, जिसने सर्वसम्मति से माना कि निजता का अधिकार मौलिक अधिकार है। जस्टिस बोबडे इस पीठ में न्यायाधीशों में से एक थे। वह सर्वोच्च न्यायालय की तीन-न्यायाधीश पीठ का भी हिस्सा थे जिसने यह माना कि आधार कार्ड के बिना एक नागरिक को बुनियादी सेवाओं और सरकारी सेवाओं से वंचित नहीं किया जा सकता है।
2016 में, जस्टिस बोबडे सुप्रीम कोर्ट की उस पीठ का भी हिस्सा थे, जिसने 2005 के सोहराबुद्दीन शेख मुठभेड़ मामले में वर्तमान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के विरुद्ध एक याचिका को खारिज कर दिया था। वह पूर्व CJI रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ का भी हिस्सा थे, जिसने हाल ही में अयोध्या के प्राचीन शहर में राम जन्मभूमि स्थल पर 134 साल पुराने कानूनी विवाद का फैसला किया, जो रामलला के पक्ष में आया।
जस्टिस बोबड़े ने जब TOI से अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के महत्वपूर्ण मुद्दे के बारे में बात की थी, तो उन्होंने बताया कि विभिन्न श्रेणियों को दिए गए भाषण की स्वतंत्रता के स्तर में असमानता कैसे है। जस्टिस बोबड़े ने आगे ये भी कहा कि कुछ लोग सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म पर कुछ भी बोलकर निकल सकते हैं, तो वहीं दूसरे लोगों को अपनी बात कहने के लिए काफी हाथ पैर मारने पड़ते हैं। “समस्या स्पष्ट है। कुछ को बोलने की बहुत स्वतंत्रता होती है। ऐसा समय कभी नहीं आया है जहाँ कुछ लोगों के लिए अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता इतनी निर्बांध रही हो।”
जस्टिस बोबड़े की टिप्पणी ऐसे समय में आई है जब देश अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के बारे में गहन बहस के दौर से गुजर रहा है। देश का एक विशेष वर्ग खुद को बुद्धिजीवी के रूप में चित्रित करने की कोशिश कर रहा है और लगातार दावा करता रहा है कि यह ज्ञान पर एकाधिकार रखता है। वाम-उदारवादियों से मिलकर बने इस अभिजात्य वर्ग ने अपने आप में एक विशेष वैचारिक या सामाजिक समूह को बोलने की आजादी का मानक तय करने का अधिकार भी दे दिया है।
भारत के लोग भारतीय न्यायपालिका में बहुत विश्वास करते हैं। इसे सरकार के तीनों विंगों में सबसे विश्वसनीय माना जाता है। इसलिए किसी भी सीजेआई को भारतीय न्यायपालिका के प्रमुख के तौर पर काफी आशाओं पर खरा उतरना पड़ता है। जहां तक उनके कार्यकाल का सवाल है, तो सबरीमाला निर्णय काफी अहम निर्णय सिद्ध हो सकता है। पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली सर्वोच्च न्यायालय की पांच-न्यायाधीशों की बेंच ने संवेदनशील सबरीमाला मामले में समीक्षा याचिका को सात न्यायाधीशों वाली पीठ को सौंपने का फैसला किया, जो निश्चित रूप से तय करेगी कि क्या कोई भी धर्म महिलाओं के प्रवेश के लिए पूजा स्थलों में प्रवेश पर प्रतिबंध लगा सकता है और क्या न्यायालयों को इस बात पर ध्यान देना चाहिए कि क्या इस तरह की प्रथा वैध है या नहीं, यह तय करने के लिए न्यायालयों को आवश्यक कदम उठाना चाहिए और फिर संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार आगे बढ़ें।
सीजेआई बोबड़े को सबरीमाला विवाद का फैसला करने के लिए सात न्यायाधीशों वाली पीठ का गठन करना होगा। भक्त भगवान अयप्पा की ब्रह्मचर्य स्थिति को बहुत अधिक मानते हैं, जिसके अंतर्गत 10 से 50 वर्ष की आयु के महिलाओं के धर्मस्थल में प्रवेश पर प्रतिबंध की भी व्याख्या की गयी है। पिछले वर्ष सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले ने इस प्रतिबंध को हटा दिया और भक्तों को इस मामले में समीक्षा याचिका पर शीर्ष अदालत के फैसले का बेसब्री से इंतजार है।
यह मामला अब और भी महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि अन्य महत्वपूर्ण मामलों को भी एक साथ जोड़ दिया गया है। जैसा कि न्यायालय “आवश्यक धार्मिक अभ्यास” सिद्धांत पर एक पद लेने जा रहा है। इस सिद्धांत के संबंध में न्यायालय जिस भी तरीके से जाता है, उसका धार्मिक प्रथाओं से संबंधित वर्तमान विवादों और न्यायालय के समक्ष आने वाले भविष्य के विवादों पर भी महत्वपूर्ण असर पड़ेगा। सबरीमाला मामला न केवल इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि यह भगवान अयप्पा के भक्तों की भावनाओं से संबन्धित है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि हमारे समाज के लिए एक बड़ी मिसाल पेश करता है। इस प्रकार यह भारत के मुख्य न्यायाधीश शरद अरविंद बोबड़े के लिए एक निर्णायक फैसले से कम नहीं होगा।