आखिरकार महाराष्ट्र में चल रहा राजनीतिक उठा-पटक समाप्त हुआ और 2 महीने पूर्व कांग्रेस और NCP की धूर विरोधी पार्टी रही शिवसेना ने अपनी विचारधारा को कुचलकर गठबंधन से सरकार और मुख्यमंत्री पद दोनों को ही हासिल कर लिया। शिवसेना में ऐसे-ऐसे नेता हैं जो पहले कांग्रेस में थे लेकिन कांग्रेस छोड़कर शिवसेना में शामिल हुए और आज फिर से वे सोनिया मैडम के सामने जी हुजूरी कर रहे हैं। ऐसे नेताओं में सबसे पहले नाम आता है ‘प्रियंका चतुर्वेदी’ का।
प्रियंका चतुर्वेदी ने NDTV पर एक कॉलम लिखा है जिसमें उन्होंने कांग्रेस- NCP और शिवसेना गुणगान किया है। उन्होंने यह लिखा है कि, “महाराष्ट्र के संदर्भ और गौरव गाथा को समझने के लिए हमें याद रखना होगा कि किस तरह से छत्रपति शिवाजी के दृढ़ निश्चय के बदौलत दिल्ली के शासकों का प्रभुत्व कमजोर पड़ गया था।” प्रियंका ने यहाँ चतुरता के साथ BJP को मुग़ल और शिवसेना को शिवाजी बना दिया।
परंतु उन्हें यह नहीं पता है कि पानीपत 3 की तरह ही एक विदेशी ताकत अहमद शाह अब्दाली के साथ उन्होंने हाथ मिलाया जिसका उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ भारत को लूटना था। हालांकि 20 वर्षों से राजनीति में सक्रिय प्रियंका चतुर्वेदी ने तो कोई काम ऐसा नहीं किया जिससे उन्हें सीरियसली लिया जाए लेकिन यहां केंद्र सरकार को मुग़ल शासक से तुलना करना कुछ अधिक ही अशोभनिय था।
उन्होंने बीजेपी पर आरोप लगाते हुए यह कहा कि भाजपा के खुद के सहयोगियों ने भी BJP के साथ गठबंधन की कीमत चुकाई है। यहाँ पर तो प्रियंका खुद यह भूल गईं कि कैसे उनकी मौजूदा पार्टी शिवसेना ने BJP को छोटी-छोटी बातों के लिए धमकाया और आरे से लेकर आर्थिक सुधारों जैसे कई मुद्दों पर तो सहयोग भी नहीं किया।
उन्होंने यह नहीं लिखा कि उनकी पार्टी से BJP को कितना नुकसान हुआ। उन्होंने आगे लिखा है कि- “महाराष्ट्र की बात करें तो यहां बीजेपी की राह में शिवसेना किसी चुनौती से कम नहीं थी।” यह तो तथ्यहीन बात हो गई। BJP की राह में शिवसेना नहीं बल्कि शिवसेना को ऐसा लगने लगा था कि BJP उसके राह में आ रही है मुख्यमंत्री पद पर बैठना चाहती है। सब कुछ निर्णय होने, साथ चुनाव लड़ने के बाद, और फिर चुनाव जीतने के बाद वैचारिक तौर पर विरोधी पार्टियों के साथ गुटबाजी कर मुख्यमंत्री पद पाना तो यही दिखाता है।
आगे उन्होंने शिवसेना के बारे में लिखा है कि, “एक ऐसी क्षेत्रीय पार्टी, जिसके वोट शेयर में लोकसभा और विधानसभा चुनावों में बढ़ोतरी हुई, जो अपनी क्षेत्रीय आकांक्षाओं को मजबूत करते हुए गठबंधन से परे आगे बढ़ना चाहती थी, उसे हर कदम पर नाकामी ही मिला।” यहाँ पर प्रियंका जी यह भूल गईं कि इस बार का चुनाव शिवसेना ने भाजपा के साथ लड़ा था। जनता को भी इस गठबंधन पर भरोसा था। 2014 में जब शिवसेना ने अकेले ही 282 सीटों पर चुनाव लड़ा था औरत उन्हें सिर्फ 63 सीट पर जीत मिली थी और वोट प्रतिशत 19% था। जबकि BJP ने 230 सीटों पर चुनाव लड़ा था और 122 पर जीत मिली थी।
इसी आंकड़े को इस बार के विधान सभा चुनाव से तुलना करके देखें तो शिवसेना ने 124 सीटों पर चुनाव NDA की गठबंधन में लड़ा और उसे 56 सीटों पट जीत हासिल हुई। जबकि BJP ने 152 सीटों पर चुनाव लड़ा और 105 सीटों पर विजयी रही। इस बार के चुनाव में शिवसेना का वोट शेयर 2.94 प्रतिशत कम हुआ तो वहीं BJP का वोट शेयर 2.06 प्रतिशत रहा। अब इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है अगर BJP यह गठबंधन नहीं करती और सभी सीटों पर चुनाव लड़ती तो बहुमत आसानी से पा सकती थी। शिवसेना को चुनाव में भाजपा के साथ का फायदा अधिक हुआ। लोकसभा चुनावों में BJP को मिली भारी जीत का भी फ़ायदा शिवसेना को मिला।
इतना ही नहीं प्रियंका ने यह भी लिखा कि, “भले ही शिवसेना और कांग्रेस पहली बार गठबंधन सरकार चलाने के लिए साथ आए हों, लेकिन दोनों के बीच यह सहयोग इतिहास में दर्ज हो गया है।” तो इस बात पर प्रियंका को यह पता होना चाहिए कि इस तरह से सिर्फ BJP को सत्ता से बाहर रखने के लिए अभी तक कई गठबंधन हुए और उनमें से कोई भी 12 महीने से अधिक नहीं चल सका है। उदाहरण के लिए कर्नाटक में कांग्रेस JDS का, बिहार में JDU-कांग्रेस और RJD के बीच हुआ गठबंधन एक वर्ष भी नहीं चल पाया। इनकी भी विशेषता यही थी कि गठबंधन में आने वाली पार्टियों का वैचारिक रूप से कोई मेल न होना।
अगर इस तरह से देखें तो प्रियंका एक आस्तीन की साँप की तरह हैं जो कांग्रेस को छोड़ शिवसेना में शामिल हुईं थी। वह वंशवादियों की छ्त्रछाया से दूर नहीं होना चाहती। पहले गांधी परिवार फिर ठाकरे परिवार। जिस कांग्रेस को उन्होंने यह कहकर छोड़ा था कि मेरे साथ इस पार्टी के नेता बदसलूकी करते हैं आज उसी पार्टी की गुणगान करते नहीं थक रही हैं।
प्रियंका चतुर्वेदी ने लोगों के लिए आज तक कुछ नहीं किया है, और उनकी राजनीतिक कैरियर का ग्राफ देखें तो साफ पता चलता है कि पूरा कैरियर व्यक्तिगत लाभ पर ही आधारित है। यह उनके बदलते वैचारिक झुकाव से देखा और समझा जा सकता है कि उनमें किसी एक विचारधारा के लिए खड़े होने का दम नहीं है।