राम मंदिर के फैसले की घोषणा के तुरंत बाद ‘द वायर’ में हुआ तगड़ा शॉर्ट सर्किट

न्यायालय की अवमानना का स्पष्ट मामला

अयोध्या

वामपंथी मीडिया पोर्टल  द वायर रामलला (कानूनी इकाई) के पक्ष में सुप्रीम कोर्ट द्वारा फैसला सुनाए जाने के बाद पूरी तरह से बौखला गया है। 5 जजों की बेंच ने सर्वसम्मति से हिंदू पक्ष को राम जन्मभूमि परिसर सौंपा लेकिन अनुच्छेद 142 के तहत सुप्रीम कोर्ट की विशेष शक्ति का उपयोग करते हुए उन्होंने मुसलमानों को 5 एकड़ जमीन दी।

चूंकि सुप्रीम कोर्ट ने हिंदुओं के पक्ष में फैसला सुनाया, इसलिए द वायर ने कई ऐसे लेख प्रकाशित किए, जिसमें उसने ‘सर्वोच्च न्यायालय के फैसले’ पर प्रश्न चिन्ह लगाया और कहा कि यह ‘भयावह विरोधाभासों’ पर आधारित है। द वायर ने इस विषय पर अपने विश्लेषण में एक लेख प्रकाशित किया, जिसका शीर्षक था “आखिर क्यों सुप्रीम कोर्ट के अयोध्या का फैसला विरोधाभासी है।” इस लेख में लेखक कहते हैं कि कोर्ट ने मुसलमानों को यह भूमि देने से इसलिए मना कर दिया, क्योंकि वे 1528 से 1857 तक मस्जिद के “विशेष कब्जे” में होने के दावे को सिद्ध नहीं कर पाये। फिर भी हिंदूवादी, जो अपना पक्ष सिद्ध करने में विफल रहे, उनको “संभावनाओं के संतुलन” पर भूमि मिली।

द वायर के संस्थापक एवं संपादक सिद्धार्थ वरदराजन  इस निर्णय के बाद से ही भारत के भविष्य के बारे में चिंतित प्रतीत हो रहे थे। ये वही सिद्धार्थ हैं जिन्होंने वर्षों तक एएसआई की रिपोर्ट और मंदिर के दावों के विरुद्ध अपना कुत्सित एजेंडा चलाया था।

लेख में, उन्होंने तर्क दिया कि “एक सदी के एक चौथाई से अधिक के लिए, अयोध्या ने विद्रोह की राजनीति के लिए एक रूपक के रूप में काम किया है- एक जो राम की आकृति के चारों ओर एक निर्मित पौराणिक कथाओं की तैनाती को जोड़ती है, और एक जो  भीड़ हिंसा के साथ है। अधिनायकवाद और कानून के शासन के लिए एक शानदार अवमानना है”।

“शनिवार को सुप्रीम कोर्ट के फैसले के मुख्य लाभार्थी मस्जिद को ध्वस्त करने के अपराध में मुख्य आरोपियों से जुड़े हुए हैं। भारत के लिए यह अच्छा नहीं है।

यही नहीं, द वायर ने ‘अयोध्या के षड्यंत्रकारियों’ को ‘उजागर’ करने के अपने अभियान में एक लेख छापा, जिसका शीर्षक था ‘अयोध्या क्लास ऑफ 1992 – प्रमुख षड्यंत्रकारी’, जिसमें उन्होंने एक ही कतार में लाल कृष्ण आडवाणी, राजीव गांधी, कल्याण सिंह, विनय कटियार, मुरली मनोहर जोशी, उमा भर्ती, पीवी नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी, एवं वीएचपी प्रमुख अशोक सिंघल को खड़ा कर दिया। इतना ही नहीं, उन्होंने आडवाणी को कठघरे में खड़ा करते हुए उनपर एक विशेष लेख निकाला, जिसका शीर्षक था ‘भड़काऊ प्रमुख – एलके आडवाणी’, जिसमें लेखक कबीर अग्रवाल ने उल्लेख किया कि कैसे आडवाणी की रथ यात्रा और दिसंबर 1992 में उनके भड़काऊ भाषण के कारण मस्जिद को ध्वस्त किया गया।

द वायर ने इसके अलावा बाबरी मस्जिद के विध्वंस से लेकर वर्तमान निर्णय तक एक पूरी टाइमलाइन की रचना करते हुए शीर्षक दिया, ‘एक समय यहाँ मस्जिद थी’

द वायर हालांकि यहीं पर नहीं रुकी। उन्होंने डीएन झा जैसे ‘इतिहासकारों’ का साक्षात्कार लेते हुए कहा की ‘अयोध्या का विवाद विश्वास और व्यवहारिकता के बीच का युद्ध है।’ झा के अनुसार, ‘एएसआई ने इस विषय पर अपना रुख बदल लिया, और संघ परिवार को इस विषय पर हिन्दू मुस्लिम विवाद खड़ा करने का साहस प्रदान किया”।

मई 2015 में स्थापित हुई द वायर भारत के अग्रणी लेफ्ट लिबरल मीडिया संगठनों में से एक है। कभी काँग्रेस पार्टी द्वारा राज्य सभा में नियुक्त हुए पत्रकारों और काँग्रेस के इन अघोषित प्रवक्ताओं से ये संगठन भरा पड़ा है। इनका प्रमुख ध्येय है भाजपा और सनातन धर्म का विरोध करना और उन्हें हरसंभव तरह से अपमानित करना।

यही नहीं, द वायर ने समय समय पर मोदी विरोध के नाम पर भारत और भारतीयता का विरोध करने से भी नहीं हिचकिचाई है। उदाहरण के लिए कश्मीर मुद्दे को ही देख लीजिये। जब गृह मंत्री अमित शाह ने 5 अगस्त 2019 को यह घोषणा की कि जम्मू कश्मीर से अनुच्छेद 370 के विशेषाधिकार संबंधी प्रावधान हटा लिए जाएँगे, तो द वायर ने मानो भारत के विरुद्ध मोर्चा ही खोल दिया, और उन्होंने जमकर कश्मीर मुद्दे पर वहाँ की वास्तविकता के विरुद्ध भ्रामक खबरें प्रकाशित की। जो देश को दुखी देखकर खुश हों, आज वही देश की खुशी में दुखी हैं। इन्हें देखकर तो हमारे मुंह से बरबस ही निकलता है, ‘बोलने दो, तकलीफ हुआ है बेचारे को!”

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