जिन कम्युनिस्टों को बालासाहेब ने Mumbai से खदेड़कर भगाया, उन्हीं को उद्धव ठाकरे बसाने जा रहे हैं

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महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री बन चुके हैं। सारी शक्ति अब उनके हाथ में है। इन शक्तियों का वह उपयोग नहीं बल्कि दुरुपयोग कर रहे हैं। कभी भारतीय जनता पार्टी की साथी रही शिवसेना ने सत्ता में आते ही पुराने फैसले पलटने और प्रॉजेक्ट्स की समीक्षा करने का सिलसिला शुरू कर दिया है। इसी कड़ी में महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने मुंबई-अहमदाबाद बुलेट ट्रेन समेत राज्य में चल रही सभी विकास परियोजनाओं की समीक्षा के आदेश दिए हैं। यह पूरी तरह से शिवसेना का एंटी-विकास रुख दिखाता है।

इन फैसलों से तो यही स्पष्ट होता है कि शिवसेना फिर से साम्यवादी सोच के साथ आगे बढ़ना चाहती है जो कभी भी विकास होने ही नहीं देना चाहती है। एक जमाने में मुंबई से कम्युनिस्टों को खदेड़ने वाले बाला साहब ठाकरे की शिवसेना आज फिर से उन्हीं कम्युनिस्टों की नीति पर काम कर रही है।

कुछ ही दिनों पहले शिवसेना ने अपने मुखपत्र सामना में नोबल प्राइज़ जीतने वाले वामपंथी अर्थशास्त्री अभिजीत बनर्जी की खूब बड़ाई की थी। यही नहीं शिवसेना ने JNU के छात्रों के प्रदर्शन को भी जायज ठहराते हुए सामना में संपादकीय लिखा था।

जिन कदमों से शिवसेना आगे बढ़ रही उससे तो यही प्रतीत होता है कि अब वह मार्क्ससेना बन चुकी है और महाराष्ट्र को फिर से 1960 के दशक में ले जाना चाहती है, जब ट्रेड यूनियन का वर्चस्व था और देश में कम्युनिस्ट अपनी पकड़ बना रहे थे।

इसकी शुरुआत 1950 के दशक में हुई थी जब केरल में कम्युनिस्टों की सरकार बनी और वे धीरे-धीरे बड़े शहरों जैसे मुंबई, कोलकाता और चेन्नई  की तरफ कब्जा करने के लिए बढ़ने लगे ताकि उनकी विचारधारा इन बड़े शहरों पर भी थोपा जा सके।

तभी केंद्र की कांग्रेस सरकार ने इन कम्युनिस्टों को अपने शासन के लिए एक चुनौती के रूप में देखा। इसी वजह से कांग्रेस के शीर्ष नेताओं ने उस वक्त के उभरते नेता बालासाहब को समर्थन देने का फैसला किया जो कि मराठी माणूस के नाम पर मराठियों को एक जुट कर रहे थे और कम्युनिस्टों को सीधे टक्कर दे रहे थे। शिवसेना की मदद करके कांग्रेस ने एक तीर से दो निशाने साधे।

पहला तो महाराष्ट्र से कम्युनिस्टों को भगाया और दूसरा गुजराती मूल के उद्योगपतियों को भी महाराष्ट्र से बाहर करने में मदद मिली। बता दें कि महाराष्ट्र का गठन ही गुजराती और मराठी के आधार पर हुआ था तब से मराठियों और गुजरातियों के बीच तनातनी बनी रहती है। इसी वजह से जब कांग्रेस की सरकार आई तो वह किसी ऐसे व्यक्ति को ढूंढ रहे थे जो मराठी माणूस के नाम पर कांग्रेस के इन दोनों ही सपनों को पूरा करे। बालासाहब के जरिए इन दोनों ही सपनों को पूरा करने के लिए कांग्रेस ने अच्छा मौका देखा इसलिए उन्हें खूब बढ़ावा दिया।

उसी का परिणाम था कि धीरे-धीरे सभी ट्रेड यूनियन और लेबर यूनियन पर शिवसेना का कब्जा हो गया जो आज भी है। उस दौरान कई कम्यूनिस्ट नेता मारे भी गए लेकिन फिर भी कांग्रेस सब कुछ आंख मूंद कर देखती रही। धीरे-धीरे मुंबई से कम्युनिज़्म पूरी तरह से गायब हो गया। महाराष्ट्र का यह एक अनकहा सच है। जिसे हाल ही में कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जयराम रमेश ने एक प्रोग्राम में कह दिया था। इंडिया टुडे की एक इवेंट में जयराम रमेश ने स्वीकारा था कि शिवसेना का गठन कांग्रेस की कृपा से ही हुआ था। उन्होंने कहा था, “शिवसेना भले ही वैचारिक रूप से हमारे समान न हो, परन्तु हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि वे एसके पाटिल और वीपी नाईक ही थे, जिनके कारण शिवसेना का गठन संभव हुआ था, और जिसके कारण तत्कालीन बॉम्बे में कम्युनिस्टों का वर्चस्व समाप्त हो सका था”।

अगर बाला साहब नहीं होते तो उस समय के बॉम्बे पर कम्युनिस्टों का राज होता और वह भी आज कोलकाता की तरह 30 वर्ष पीछे चला जाता। बॉम्बे को कम्युनिस्टों से बचाने का श्रेय अगर किसी को जाता है तो वह बाला साहब ठाकरे हैं।

लेकिन अभी नवनियुक्त मुख्यमंत्री और बाला साहब के पुत्र उद्धव ठाकरे विकास कार्यों को रोक कर मुंबई को उसी जमाने में ले जाना चाहते हैं। जिस विचारधारा से उनके पिता बालासाहब ठाकरे ने वैचारिक लड़ाई लड़ी थी, आज उनके पुत्र उसी विचारधारा की बड़ाई कर रहे हैं और उसी राह पर चल रहे हैं।

जिस तरीके से सामना अभिजीत बनर्जी की बड़ाई कर रहा है उससे तो यही प्रतीत हो रहा है कि शिवसेना अब मार्क्स सेना बन गई है। शिवसेना का यही रुख रहा तो यह फिर से जवाहर लाल नेहरू के साम्यवादी दौर में जाने में समय नहीं लगेगा। जिस तरह से शिवसेना ने आरे मेट्रो की कार शेड परियोजना को रोका उससे तो यही लग रहा है कि यह गठबंधन की सरकार एक्टिविस्टों के इशारे पर चल रही है और पूर्व मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के किए गए सभी विकास कार्यों को बर्बाद कर देगी।

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