जम्मू-कश्मीर से अलग हुए लद्दाख ने अब अपने ऊपर थोपे गए बोझ को धीरे-धीरे हटाना शुरू कर दिया है। इसी क्रम में गुरुवार को लद्दाख ने अपनी छुट्टियों की लिस्ट से बोझ बने 2 छुट्टियों को हटा दिया है। पहली छुट्टी 5 दिसंबर को नेशनल कॉन्फ्रेंस (एनसी) के संस्थापक शेख अब्दुल्ला की जयंती और 13 जुलाई को शहीदी दिवस है, जो कि पहले जम्मू-कश्मीर में राजकीय अवकाश हुआ करता था।
एक राज्य, या देश, किस तिथि को और किस के उपलक्ष में छुट्टियां मानता है यह उस देश के इतिहास, राजनीति और संस्कृति के लिए महत्वपूर्ण होता है। और जब तक लद्दाख जम्मू कश्मीर का हिस्सा रहा धर्म अलग होने के बावजूद उसे वही त्योहार मनाने पड़े जो कश्मीर के नेताओं द्वारा तय किए जाते थे। तब जम्मू-कश्मीर में लद्दाख होते हुए भी कोई महत्वपूर्ण स्थान नहीं रखता था और उसकी भावनाओं का भी आदर नहीं होता था। इसलिए, कश्मीर और लद्दाख क्षेत्र में बहुत कुछ विवादित रहा है। उन विवादों में छुट्टियां भी थी जो हर कैलेंडर वर्ष मनाई जाती थी।
5 अगस्त, 2019 को केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 370 हटाने के साथ साथ जम्मू कश्मीर को 2 भागों में बांटने का भी कानून पारित किया गया था। इसके बाद से जम्मू-कश्मीर में जो अभूतपूर्व परिवर्तन हुआ, वह न केवल संवैधानिक प्रावधानों या प्रशासनिक सीमाओं के बारे में था, बल्कि दशकों तक जम्मू-कश्मीर की राजनीति को परिभाषित करने के बारे में भी था।
बता दें कि जम्मू-कश्मीर में 13 जुलाई को शहीदी दिवस के तौर पर मनाया जाता है क्योंकि 1931 में इस दिन डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह की सेना द्वारा की गई गोलीबारी में 22 लोगों की मौत हो गई थी। हालांकि, यह एक प्रचारित कहानी है और हिंदुओं के लिए यह एक काला दिवस से कम नहीं है। 1931 में, जम्मू कश्मीर पर महाराजा हरि सिंह का शासन था। अंग्रेज चाहते थे कि हरि सिंह उन्हें गिलगित एजेंसी लीज पर दे दें। परंतु हरि सिंह ने इनकार किया। अंग्रेज इस बात से अवगत थे कि हरि सिंह एक हिंदू राजा थे जो मुस्लिम जनसंख्या पर शासन कर रहे थे। इसके बाद अंग्रेजों ने मुसलमानों का ब्रेनवॉश करने का फैसला किया। डेली ओ में प्रकाशित एक लेख के अनुसार, पेशावर के अब्दुल कादिर और शेख मोहम्मद अब्दुल्ला ने एक सार्वजनिक सभा में मुसलमानों को उकसाने वाला एक उग्र भाषण दिया। उन्होंने यह कहकर सांप्रदायिक हिंसा भड़काई कि पवित्र कुरान ने मुसलमानों को खुद को एक बेवफा हिंदू शासक के अधीन करने से मना किया था।
उस भाषण की वजह से 13 जुलाई, 1931 को सुनियोजित सांप्रदायिक दंगों हुए और अंततः 22 नागरिकों की दुर्भाग्यपूर्ण मौतें हुई। इसलिए इसे शहीदी दिवस के रूप में मनाया जाता था। अब लद्दाख ने अपने आप को इससे अलग कर लिया है।
कई समूहों ने हमेशा 13 जुलाई की छुट्टी को रद्द करने की मांग की है लेकिन कश्मीर में अब्दुल्ला और मुफ़्ती परिवार के शासन के कारण इसे नहीं हटाया गया क्योंकि उनका काम ही था अलगाववाद को जीवित रखना ताकि वे शासन कर सके।
इसी तरह, शेख मोहम्मद अब्दुल्ला की जयंती पर सार्वजनिक अवकाश के रूप में मनाया जाता था। बता दें कि ये वही शेख अब्दुल्ला हैं जिनका कश्मीर को अलग रखने के लिए भारत के संविधान में अनुच्छेद 370 समिलित करने में सबसे अधिक योगदान था। इसी अनुच्छेद 370 की वजह से कभी भी लद्दाख को वो पहचान नहीं मिली जिसका वो हकदार था। केंद्र हो या राज्य सरकार सभी कश्मीर पर ही फोकस रखते थे और लद्दाख को नज़रअंदाज़ करते थे। यही नहीं स्वतन्त्रता के बाद शासन पर पकड़ बनाए रखने के लिए शेख अब्दुल्ला ने कश्मीर में इस्लाम को बढ़ावा दिया और मंदिरों का विध्वंस करवाया। इस बात की जानकारी राष्ट्रीय सुरक्षा गार्ड(NSG) के पूर्व डीजी वेद मरवाह ने अपनी पुस्तक “इंडिया इन टरर्मोइल” में भी वर्णन किया है कि शेख अब्दुल्ला के मुख्यमंत्री रहते हुए इस्लाम को शह देने के लिए लगभग हजारों मंदिरों को तोड़वाया था। इस कट्टरवादिता का ही परिणाम था कि वर्ष 1989 में कश्मीरी पंडितों पर असहनीय हमले हुए और घाटी से हिंदुओं का नामों निशान मिटाने की कोशिश की गयी थी।
लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश ने अपनी संस्कृति को ध्यान में रखते हुए छुट्टियों में से इन 2 छुट्टियों को हटाकर एक अच्छा फैसला लिया है जो उनके हित में होगा।