CAA को लेकर एक हफ्ते तक चले घमासान के बाद अब अचानक देशभर में CAA के खिलाफ विरोध प्रदर्शनों में कमी देखने को मिल रही है। ना तो कहीं से CAA के खिलाफ हिंसक प्रदर्शनों की खबर आ रही है और ना ही अब सरकार को किसी जगह इन्टरनेट सेवा बंद करने की ज़रूरत महसूस हो रही है। इन हिंसक प्रदर्शनों को कुछ लोगों ने बड़ा जन-आंदोलन का रूप देने की कोशिश की थी, और इसे छात्रों का आंदोलन भी बताया था। हालांकि, जिस तरह एक हफ्ते में ही यह ‘विरोध’ शांत पड़ चुका है, ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि ये सभी प्रदर्शन राजनीतिक रूप से प्रेरित थे और इनके पीछे जनता का भाव नहीं, बल्कि देश विरोधी मानसिकता का हाथ था।
कई जगह CAA के विरोध प्रदर्शन कब हिन्दू विरोधी प्रदर्शनों में बदल गए, ये किसी को पता ही नहीं चला। CAA के खिलाफ प्रदर्शनों में धार्मिक नारे लगाए जा रहे थे और मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक यूपी के कई इलाकों में हिंसक विरोध प्रदर्शनों के पीछे आतंकवादी संगठन पीएफ़आई का हाथ था। पीएफ़आई, कुछ राजनीतिक दलों और धार्मिक एजेंडावादियों के बल पर यह तथाकथित विरोध कुछ दिन तो चल पाया, लेकिन अब एक हफ्ते में सरकार का सख्त रुख देखकर सबका जोश शांत पड़ चुका है।
बीते रविवार यानि 22 दिसंबर को पीएम मोदी ने दिल्ली के रामलीला मैदान में एक रैली का आयोजन किया था, जिसमें उन्होंने बड़े ही आसान शब्दों में CAA और NRC का मतलब समझाया था। उन्होंने बताया था कि सीएए के नाम पर उनके साथ राजनीति करने की कोशिश की जा रही है। ऐसे में देश के जिन लोगों को CAA को लेकर जो थोड़ी-बहुत आशंका थी भी, उसे भी पीएम मोदी ने दूर करने का काम किया था। यही कारण है कि रामलीला मैदान में उनके भाषण के बाद देश में कहीं भी बड़ा और हिंसक विरोध प्रदर्शन देखने को नहीं मिला है।
इतना तो स्पष्ट है कि CAA को लेकर किए जा रहे विरोध प्रदर्शन स्वाभाविक नहीं थे, यानि लोग अपने से सड़कों पर नहीं आ रहे थे, बल्कि उन्हें खास एजेंडे के तहत सड़कों पर लाया जा रहा था।
वर्ष 2016 में जब CAB सार्वजनिक किया गया था, तब कहीं इसके खिलाफ कोई विरोध प्रदर्शन देखने को नहीं मिला था, हिंसा या तोड़फोड़ की तो बात ही छोड़िए। तब वह तर्कसंगत भी था क्योंकि इस बिल में ऐसा है ही नहीं जिससे किसी को कोई परेशानी हो। ऐसे ही NRC की प्रक्रिया भी असम में कई महीनो से चल रही थी। यहां तक कि 19 लाख लोगों को NRC की सूची से बाहर भी कर दिया गया था, लेकिन क्या उस समय हमें कोई विरोध प्रदर्शन देखने को मिले? नहीं। लेकिन अचानक से अब की बार ये इतने सारे लोग सड़कों पर कहाँ से आए? क्या यहां आपको साजिश की बू नहीं आती?
अब आपको इन विरोध प्रदर्शनों से जुड़े राजनीतिक तार के बारे में समझाते हैं। दरअसल, दिल्ली पुलिस ने जामिया हिंसा मामले में जामिया पुलिस स्टेशन और न्यू फ्रेंड्रस कॉलोनी पुलिस स्टेशन में नामजद मामले में कांग्रेस के पूर्व विधायक आसिफ खान और आम आदमी पार्टी की जामिया युनिवर्सिटी छात्र विंग के नेता कासिम उस्मानी समेत 7 लोगों के खिलाफ मामला दर्ज किया था। केस दर्ज़ करने के साथ ही पुलिस ने 10 अन्य लोगों को गिरफ्तार भी किया था। जिन लोगों पर मामला दर्ज़ किया गया था, उनमें लेफ्ट की छात्र विंग आईसा के नेता चंदन कुमार का भी नाम शामिल था। इसके अलावा 17 दिसंबर को सीलमपुर में हुए दंगों में भी हम आप-कांग्रेस के कनैक्शन से इंकार नहीं कर सकते। पुलिस ने सीलमपुर दंगे के बाद दो मामले दर्ज कर 6 आरोपियों को गिरफ्तार किया था। पुलिस ने सीलमपुर-जाफराबाद हिंसा की जो जांच की, उसमें भी कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के नेताओं के नाम सामने आए थे।
इसके अलावा लखनऊ पुलिस ने पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया (पीएफआई) के तीन सदस्यों को गिरफ्तार किया था और दावा किया कि राजधानी मेंगुरुवार को हुए नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) विरोधी प्रदर्शनों के दौरान हिंसा का मास्टरमाइंड यही संगठन है। भाड़े के प्रदर्शनकारियों को हर रोज़ सड़कों पर लेकर आना और उन्हें हिंसा करने के लिए उकसाना कोई आसान काम नहीं है, बल्कि इसमें आयोजकों का बड़ी मात्रा में पैसा खर्च होता है। पीएफ़आई जैसे आतंकवादी संगठनों और देशविरोधी ताकतों के पास आजकल पैसे की बड़ी किल्लत चल रही है, क्योंकि केंद्र के बनाए सख्त क़ानूनों के बाद ना सिर्फ इनको मिलने वाली विदेशी फंडिंग रुक चुकी है, बल्कि इनके आय के स्रोतों पर भी सरकार ने धावा बोला है। यही कारण है कि अब ये विरोध प्रदर्शन पूरी तरह बेजान पड़ चुके हैं। बिना पैसे के, या बिना किसी फायदे के कोई हिंसक विरोध प्रदर्शनों में हिस्सा नहीं लेना चाहता, और यही हमें ज़मीन पर देखने को भी मिल रहा है।
जन-आंदोलन लोगों का, जनता का आंदोलन होता है, जिसे जनता ही आगे बढ़ाती है। निर्भया केस का तो आपको पता ही होगा। निर्भया रेप केस के बाद पूरे देश में गुस्से की एक लहर छा गयी थी और तब लोग स्वयं सड़कों पर उतरे थे। लोगों में गुस्सा था, कि क्या देश की बेटियाँ सुरक्षित नहीं हैं? सरकार से सवाल पूछे जा रहे थे, और देश में सुरक्षा व्यवस्था को लेकर एक बड़ी बहस को जन्म मिल गया था। ये सही मायनों में एक स्वाभाविक और लोगों के नेतृत्व वाला जन आंदोलन था, जिसने बाद में वर्ष 2014 में मोदी सरकार के लिए रास्ता साफ किया। जन आंदोलनों में सत्ता की कुर्सी जड़ें हिला देने की शक्ति होती है। सरकार विरोधी जन-आंदोलन को आप पुलिस के बल पर काबू नहीं कर सकते, और ना ही कभी ऐसा आंदोलन मरता है, क्योंकि देश की जनता ही उसे जीवित रखती है। लेकिन CAA के खिलाफ विरोध प्रदर्शन कभी जन-आंदोलन था ही नहीं। यह मुट्ठी भर लोगों को गुमराह करके रचा गया एक नकली और कमजोर विरोध प्रदर्शन था, जो अब पूरी तरह लचर पड़ चुका है।