कल अमेरिका और ईरान पूरी दुनियाभर की मीडिया की सुर्खियों में छाए रहे। कारण था कि भारतीय समयनुसार शुक्रवार अल सुबह अमेरिका ने इराक में ड्रोन अटैक करके ईरानी सेना के ताकतवर सेना कमांडर जनरल सोलेमानी को मार गिराया। जनरल सोलेमानी की मृत्यु की गंभीरता का अंदाज़ा आप इसी बात से लगा सकते हैं कि आज दुनिया तीसरे विश्व युद्ध के मुहाने पर खड़ी हो गयी है। ईरान और अमेरिका के बीच 80 के दशक के अंत तक घनिष्ठ संबंध थे और दोनों देश एक दूसरे के रणनीतिक साझेदार थे। यहां तक कि वर्ष 1957 में ईरान के न्यूक्लियर प्रोग्राम को शुरू करवाने में अमेरिका ने ही सहायता की थी। लेकिन, जैसे ही ईरान के आखिरी शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी का शासन वर्ष 1979 में ख़त्म हुआ, वैसे ही अमेरिका और ईरान के रिश्तों में दरार पड़ना शुरू हो गयी। मोहम्मद रज़ा पहलवी को वर्ष 1979 की ईरानी क्रांति के बाद अपना शासन ख़त्म करना पड़ा था, क्योंकि रज़ा पहलवी के आधुनिकीकरण ने ईरान के रूढ़िवादी लोगों को अमेरिका के खिलाफ कर दिया था।
The commander of Iran's Quds Force has been killed in a United States strike ordered by President Donald Trump and aimed at "deterring future Iranian attack plans," the Pentagon said https://t.co/eAZpFUdwph pic.twitter.com/VHR0Lm3Lqw
— CNN Breaking News (@cnnbrk) January 3, 2020
ईरान की वर्ष 1979 क्रांति का नतीजा यह निकला कि ईरान से अमेरिका के समर्थन वाले शाह का शासन ख़त्म हो गया और ईरान पर अमेरिकी विरोधी अयातुल्लाह खोमिनी का राज़ शुरू हुआ। खोमिनी के शासन में अमेरिकी विरोधी ईरानी क्रांतिकारियों ने ईरान में अमेरिकी दूतावास का घेराव कर लिया, जहां उन्होंने करीब 52 अमेरिकी राजनयिकों को 444 दिनों तक बंदी बनाकर रखा था। इसके बाद अमेरिका और ईरान के बीच ‘अल्जीरिया संधि’ हुई जिसके बाद 20 जनवरी 1981 को इन अमेरिकी राजनयिकों को छोड़ दिया गया। उसके बाद से तो मानों ईरान अमेरिका का कट्टर दुश्मन बन गया। ईरान पर अमेरिकी प्रभाव पूरी तरह ख़त्म हो चुका था। ईरान को मज़ा चखाने के लिए वर्ष 1995 में पहली बार अमेरिकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन ने ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए, जिसको बाद में राष्ट्रपति जॉर्ज बुश ने भी आगे बढ़ाया। हालांकि, वर्ष 2016 में राष्ट्रपति ट्रम्प के आने के बाद ईरान के खिलाफ अमेरिकी नीति और ज़्यादा सख्त हुई है। वर्ष 2017 में ट्रम्प प्रशासन ने बड़ा फैसला लेते हुए राष्ट्रपति ओबामा के समय वर्ष 2015 में साइन हुए ईरान न्यूक्लियर डील से बाहर आने का फैसला लिया। इसके साथ ही अमेरिका ने Countering America’s Adversaries Through Sanctions Act यानि CAATSA के माध्यम से ईरान, रूस और नॉर्थ कोरिया पर प्रतिबंध लगाने का फैसला लिया था।
20वीं सदी में बेशक चीन, भारत और अन्य आर्थिक शक्तियों का उदय हो रहा हो, लेकिन अमेरिका के साथ दुश्मनी के बाद ईरान के आर्थिक हालातों को देखकर यह कहने में किसी को कोई संकोच नहीं होना चाहिए कि आज भी अमेरिका ही विश्व की एकमात्र आर्थिक और सैन्य महाशक्ति है। वर्ष 2015 में ईरान न्यूक्लियर डील के बाद जब ईरान पर अमेरिकी प्रतिबंधों का प्रभाव कम किया गया था, तो ईरान की अर्थव्यवस्था में वर्ष 2016 में 10 प्रतिशत से ज़्यादा की दर से विकास हुआ था। हालांकि, वर्ष 2017 में ट्रम्प प्रशासन द्वारा इस डील को रद्द करने और दोबारा कड़े प्रतिबंध लगाने की वजह से ईरान की अर्थव्यवस्था लगातार सिकुड़ती जा रही है। वर्ष 2019 में IMF ने अनुमान लगाया था कि ईरान की अर्थव्यवस्था 6 प्रतिशत तक कम हो सकती है।
ईरान एक तेल समृद्ध देश है जिसकी अर्थव्यवस्था को मूलतः क्रूड ऑयल के एक्सपोर्ट से ही सहारा मिलता है। लेकिन वर्ष 2017 में ट्रम्प प्रशासन ने CAATSA लाकर उन सभी देशों को भी प्रतिबंध की धमकी दी, जो ईरान के साथ अपने आर्थिक रिश्ते बरकरार रखना चाहते थे। इसका नतीजा यह हुआ कि दुनिया के अधिकतर देशों ने ईरान से कच्चा तेल खरीदना बंद कर दिया और ईरान के ऑयल एक्सपोर्ट में भारी कमी देखने को मिली। वर्ष 2018 में ईरान जहां 2.5 मिलियन बैरल कच्चा तेल एक दिन में एक्सपोर्ट करता था, तो वहीं आज ईरान सिर्फ 0.25 मिलियन बैरल कच्चे तेल से भी कम तेल एक्सपोर्ट कर पाता है। ईरान की ऐसी हालत तब हुई है जब भारत और चीन जैसी बड़ी आर्थिक शक्तियाँ भी ईरान पर इस प्रतिबंध के पक्ष में नहीं थीं। ईरान को इन देशों के साथ होने से भी कोई खास फायदा नहीं पहुँच पाया।
और सिर्फ ईरान ही नहीं, अमेरिका के सामने अपने आप को अन्य वैश्विक ताकत बताने वाले रूस को भी अमेरिका के प्रतिबंध बड़े भारी पड़े हैं। अमेरिकी प्रतिबंधों के बाद अमेरिकी डॉलर के मुक़ाबले रूस की करन्सी रूबल की कीमत में भारी गिरावट दर्ज़ की गयी थी। वैसे भी अर्थव्यवस्था के मामले में अमेरिका के सामने रूस कहीं नहीं ठहरता। वर्ष 2017 में अमेरिकी GDP जहां 19.39 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर थी, तो वहीं रूस की GDP महज़ 1.58 लाख करोड़ अमेरिकी डॉलर थी।
अमेरिका के बाद दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आर्थिक महाशक्ति चीन के हौसले भी अमेरिका के सामने पस्त पड़ जाते हैं। चीन और अमेरिका के बीच जारी ट्रेड वॉर का नतीजा यह निकला कि वर्ष 2018 में चीन द्वारा किए जा रहे व्यापार में भारी कमी देखने को मिली थी। साल 2018 का अंत आते आते जहां चीन के एक्सपोर्ट में 4.4 प्रतिशत की गिरावट देखने को मिली थी, तो वहीं चीन के इम्पोर्ट्स में 7.7 प्रतिशत की गिरावट दर्ज़ की गयी थी।
ये तथ्य इस बात को सिद्ध करने के लिए काफी है कि जहां आज एक तरफ दुनिया में भारत और चीन जैसी शक्तियों के उदय की बात की जा रही है, तो वहीं इस बात में कोई शक नहीं है कि अमेरिका अपने प्रभाव के दम पर दुनिया के किसी भी देश के दाँत खट्टे कर सकता है। आज इस बात में कोई शक नहीं है कि अमेरिका के साथ पंगा लेने वाले किसी भी देश का हाल वैसा ही होना तय है जैसा आज वेनेजुएला, क्यूबा और ईरान का हो चुका है। कभी सम्पन्न होने वाले ये देश आज आर्थिक आपातकाल से जूझ रहे हैं और यह सब अमेरिका की ताकत का जीता-जागता प्रमाण है।