भारत दुनियाभर में अपनी विविधता के लिए जाना जाता है, और इसकी वजह भारत में रहने वाले लोगों के बीच संस्कृति, परिधान, भाषा और बोलियों का अंतर है। भारत में मुख्य तौर पर 122 भाषाएँ बोली जाती हैं, जिनमें से 23 भाषाएँ तो भारत की आधिकारिक भाषाएं हैं। कुल मिलाकर भारत में 1600 से अधिक भाषाएं बोली जाती हैं। लेकिन यहां सबसे ज़्यादा चिंता की बात यह है कि भारत में दुनिया की सबसे प्राचीनतम भाषाओं में से एक संस्कृत की लोकप्रियता लगातार कम होती जा रही है। स्कूलों से लेकर, आम बोल चाल तक, संस्कृत भाषा लगभग विलुप्त हो चुकी है। संस्कृत भाषा सिर्फ साहित्य तक ही सिमट कर रह गयी है। हालांकि, ऐसा नहीं है कि अब इस भाषा को पुनर्जीवित करने के लिए कुछ नहीं किया जा सकता। जिस तरह दुनियाभर के यहूदियों ने मिलकर अपनी हिब्रू भाषा को पुनर्जीवित किया, ठीक उसी तरह हम भारतवासी भी अपने यहाँ संस्कृत को पुनर्जीवित कर सकते हैं।
बता दें कि 135 CE यानि दूसरी शताब्दी से लेकर 19वीं शताब्दी के अंत तक Hebrew भाषा सिर्फ साहित्य तक ही सीमित थी। आज से लगभग 3 हज़ार साल पहले जब यहूदी पहली बार इज़राइल में जाकर बसे, तो हिब्रू को देश की राष्ट्रीय भाषा घोषित किया गया था। उसके बाद लगभग 1 हज़ार सालों तक Hebrew भाषा इज़राइल में प्रचलन में थी। लेकिन दूसरी शताब्दी में आकर यहूदियों ने रोमन एंपायर के खिलाफ बार-कोखबा विद्रोह छेड़ दिया, जिसके दौरान यहूदियों को भारी हानि झेलनी पड़ी थी। लगभग 6 लाख यहूदियों की इसमें मौत हो गयी थी। यहूदियों को पहुंचे इतने बड़े नुकसान की वजह से हिब्रू भाषा का चलन भी खत्म होता गया।
आज की हिब्रू भाषा के पुनर्जीवन का सारा श्रेय बेन येहुदा को दिया जाता है, जिन्होंने बचपन से ही हिब्रू भाषा को पढ़ा और इस भाषा में उनकी रूचि बढ़ती ही गयी। अंग्रेज़ी में एक कहावत है कि Charity begins at home, यानि बदलाव की शुरुआत अपने से ही करनी चाहिए। बेन येहुदा ने भी शुरुआत अपने परिवार से ही की। उन्होंने अपने बेटे को हिब्रू के अलावा किसी और भाषा का ज्ञान दिया ही नहीं। एक बार उन्होंने अपनी पत्नी को सिर्फ़ इसीलिए डांटा था क्योंकि उन्होंने अपने बेटे को रूसी भाषा में एक लोरी सुनाने की कोशिश की थी। इसके अलावा उन्होंने हिब्रू को अपनाने के लिए अपने दोस्तों को भी राज़ी कर लिया था। उनका मानना था कि अगर ऐसी कोई चीज़ है जो हिब्रू को पुनर्जीवित कर सकती है, तो वह है दुनियाभर के यहूदियों का एक साथ आकर इसे पुनर्जीवित करना।
अपनी भाषा को पुनर्जीवित करने की दृष्टि से ही बेन येहुदा वर्ष 1881 में यरूशलम में आके बसे। यहां उन्होंने देखा कि यरूशलम में बसे अलग-अलग इलाकों से आए यहूदी आपस में बोल चाल के लिए हिब्रू भाषा के ही किसी अन्य प्रकार का इस्तेमाल कर रहे हैं। यानि वे हिब्रू को छोड़कर हिब्रू जैसी ही किसी अन्य भाषा का प्रयोग कर रहे थे।
यरूशलम में Committee of the Hebrew Language की स्थापना में उनकी बहुत बड़ी भूमिका थी, जो आज भी Academy of the Hebrew Language के नाम से स्थापित है। इसके अलावा उन्होंने आधुनिक Hebrew भाषा की पहली डिक्शनरी को भी लिखा था। इसके बाद वर्ष 1881 से लेकर वर्ष 1903 और फिर वर्ष 1904 से लेकर वर्ष 1914 तक जैसे-जैसे दुनियाभर के यहूदी आज के इज़राइल में इकट्ठा होते गए, वैसे-वैसे हिब्रू भाषा का प्रचलन फिर बढ़ता गया और यह भाषा बाद में इज़राइल की राष्ट्रीय भाषा बन गयी। हिब्रू भाषा के पुनर्जीवन में बेन येहुदा के योगदान की व्याख्या करते हुए ब्रिटिश यहूदी इतिहासकर सेसिल रॉथ ने कहा था “उनके प्रयासों से पहले यहूदी हिब्रू बोल सकते थे, उनके प्रयासों के बाद उन्होंने हिब्रू बोलना शुरू कर दिया”।
ये तो बात हुई हिब्रू के पुनर्जीवन की, लेकिन इसी तरह संस्कृत का पुनर्जीवन क्यों नहीं किया जा सकता। संस्कृत को तो कई भाषाओं की जननी कहा जाता है, और विडम्बना यह है कि यही भाषा भारत में विलुप्ति की कगार पर पहुंच चुकी है। भारत में इस भाषा को शिक्षा और सम्मेलनों के माध्यम से पुनर्जीवित किया जा सकता है। अभी देशभर के स्कूलों में संस्कृत को पढ़ाए जाने का चलन लगभग समाप्त हो चुका है। बोल-चाल से और लिखने-पढ़ने से संस्कृत पूरी तरह गायब हो चुकी है। कोई भी भाषा पहले मौखिक रूप से लोकप्रिय होती है, फिर वह लेखन में प्रचलित होती है। जब तक बच्चे स्कूलों में संस्कृत भाषा को पढ़कर इसे अपनी दिनचर्या में शामिल नहीं करते हैं, तब तक इसे मौखिक रूप में लोकप्रिय नहीं किया जा सकता। इसके अलावा समाज के अन्य लोगों को सम्मेलनों के माध्यम से संस्कृत की ओर झुकाया जा सकता है। यही एक तरीका है जिसके माध्यम से भारत में संस्कृत भाषा को पुनर्जीवित किया जा सकता है।