यूपी पुलिस को लेकर झूठ फैलाने में द टेलीग्राफ ने लांघी सभी सीमाएं

द टेलीग्राफ

(PC: AP)

शिष्टाचार के अनुसार एक पत्रकार को आदर्श स्थिति में अपने काम के प्रति ईमानदार रहना चाहिए और पत्रकारिता के सभी नीतियों का अक्षरश: पालन करना चाहिए। परंतु ये बात द टेलीग्राफ जैसे मीडिया आउटलेटस ज्यादा महत्वपूर्ण नहीं है क्योंकि इनके लिए एक ही नारा सर्वोपरि है – एजेंडा परमो धर्म:, और यूपी पुलिस के खिलाफ एजेंडा इन मीडिया आउटलेट्स का एजेंडा सामने आया था।

29 दिसंबर की एक रिपोर्ट के अनुसार द टेलीग्राफ ने दावा किया था कि उत्तर प्रदेश की पुलिस ने मुजफ्फरनगर के सादात मदरसा के मौलाना असद रजा हुसैनी और उनके सौ विद्यार्थियों को हिरासत में लिया था। मौलाना को पास के ही पुलिस बैरकों में ले जाया गया, जहां उसके साथ कथित रूप से अमानवीय व्यवहार हुआ था। विद्यार्थियों से कथित रूप से जय श्री राम के नारे लगवाए गए थे, उन्हें प्रताड़ित किया गया था, और पानी की बजाए उन्हें पेशाब पीने को कहा गया था।

इतना ही नहीं, द टेलीग्राफ ने तो यहाँ तक कह दिया कि पुलिस ने छात्रों और मौलाना के साथ यौन शोषण भी किया, जिससे उन्हें कई जगहों पर गंभीर चोटें भी आई। इस दावे की पुष्टि हेतु उन्होंने एक स्थानीय कांग्रेस नेता सलमान सईद का हवाला दिया, परंतु उन्होंने अपने दावे के लिए कोई ठोस प्रमाण नहीं दिया। फिर क्या था, लिबरलों ने आसमान सिर पर उठा लिया और यूपी पुलिस के विरुद्ध सख्त से सख्त कार्रवाई की मांग करने लगे।

इसी विषय पर द प्रिंट ने भी अपनी रिपोर्ट प्रकशित की। हालांकि, प्रिंट की रिपोर्ट भी कोई ज़्यादा बेहतर नहीं थी, परंतु उन्होंने कम से कम मदरसे के विद्यार्थियों से बातचीत करने की जहमत अवश्य उठाई। विद्यार्थियों ने सिरे से टेलीग्राफकी  रिपोर्ट को नकारते हुए बताया कि उन्हें कोई ऐसी दिक्कत नहीं हुई। मौलाना हुसैनी के सगे संबंधी नावेद आलम के अनुसार , “यह सच नहीं है। न तो बच्चों को या मौलाना साहिब को यौन शोषण संबन्धित कोई चोट आई है। उन्हें खूब पीटा गया, जो अपने आप में काफी त्रासदीपूर्ण है। हमें कोई आरोप बनाने की आवश्यकता नहीं है”।

गौरतलब है कि द प्रिंट ने एक रिपोर्ट प्रकाशित की थी, जिसमें फैज वाले विवाद पर याचिकाकर्ता वाशी शर्मा के बारे में काफी झूठी बातें भी लिखी थी, जिसका मूल केस से कोई संबंध नहीं था। लेख में लिखा गया था कि याचिकाकर्ता वाशी शर्मा का इतिहास मुस्लिम विरोधी लेखों से भरा हुआ है, वे एक गौरक्षक हैं और वे लव जिहाद के विरोधी भी है। इसका वाशी शर्मा ने पुरजोर खंडन भी किया और अपने समर्थन में उन्होंने कुछ रिकॉर्डिंग भी प्रकाशित किए। इससे साफ पता चलता है कि द प्रिंट ने प्रोपगैंडा फैलाने के उद्देश्य से किस तरह तथ्यों को तोड़ मरोड़ के पेश किया था। द प्रिंट के संस्थापक शेखर गुप्ता ने बाद में माफी मांगी, परंतु अपने माफी में भी उन्होंने केवल दलित विरोधी वाले आरोप का उल्लेख किया।

अब द टेलीग्राफ की रिपोर्ट की बात करें, तो इस मीडिया पोर्टल का सफ़ेद झूठ एक दिन भी नहीं टिक पाया। टेलीग्राफ के अनुसार 100 से भी ज़्यादा विद्यार्थी गिरफ्तार हुए थे, जबकि द प्रिंट की माने तो केवल 35 विद्यार्थी हिरासत में लिए गए, जिसमें से 28 विद्यार्थी को उसी रात छोड़ दिया गया था।  मुजफ्फरनगर के एसएसपी अभिषेक यादव  के अनुसार, “उग्र लोगों की भीड़ विरोध प्रदर्शन के दौरान एक हॉस्टल में घुस आई थी। जब हमने कई लोगों को हिरासत में लिया, तो उसमें कुछ विद्यार्थी भी हिरासत में लिए गए। जैसे ही हमें पता चल कि कुछ लोग मदरसा से थे, तो हमने आवश्यक जांच पड़ताल के बाद उन विद्यार्थियों को मौलाना सहित छोड़ दिया। किसी भी विद्यार्थी को पुलिस हिरासत में नहीं पीटा गया। जो घायल हुए, वो हिंसक प्रदर्शनकारी विद्यार्थियों के पीछे छुपने के कारण हुए थे।

परंतु द टेलीग्राफ का झूठ यहीं खत्म नहीं होता। इस मीडिया पोर्टल ने अपने रिपोर्ट में दावा किया था कि मौलाना हुसैनी को एक अंधेरे कमरे में बिना किसी कपड़े के रखा गया था। इन झूठे दावों को कांग्रेस के मुखपत्र नेशनल हेराल्ड ने अपनी रिपोर्ट में शामिल करते हुए प्रकाशित किया, जिससे इस झूठी रिपोर्ट को और हवा दी गयी।

सफ़ेद झूठ इतनी बेशर्मी से प्रकाशित करना कोई द टेलीग्राफ से सीखे। ये अपने संपादकों के विचारों को तथ्यों से रिप्लेस करने से पहले ज़रा भी नहीं हिचकिचाते। ये द टेलीग्राफ ही था जिसने अफवाह फैलाई थी कि यूपी पुलिस ने एक परिवार के घर पर धावा बोलकर खूब लूटपाट और विरोध करने पर कहा कि परिवार या तो पाकिस्तान जाए या कब्रिस्तान।

वास्तव में द टेलीग्राफ की मुज़फ्फरनगर रिपोर्ट में कोई ठोस प्रमाण या तथ्य बिलकुल नहीं है। काल्पनिक परिस्थिति रचने में इनका कोई सानी नहीं, परंतु अगर इसका उपयोग सच छुपाने के लिए किया जाये, तो यह किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है। नमक मिर्च लगाकर झूठ को कितना भी बेचने की कोशिश करें, झूठ झूठ रहता है सच नहीं बन जाता। काश द टेलीग्राफ में इस बात को समझने का सामर्थ्य होता।

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