केजरीवाल के ना चाहते हुए भी चुनाव जीते सिसोदिया, अब ‘आप’ में बड़ी फूट देखने को मिल सकती है

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दिल्ली विधानसभा चुनाव के परिणाम आने से थोड़ी देर पहले ही आम आदमी पार्टी ने जीत का जश्न मनाना शुरू कर दिया था। पार्टी कार्यालय पर खुशियाँ मनाई जा रही थी। पार्टी प्रमुख अरविंद केजरीवाल, संजय सिंह और राघव चड्ढा सहित कई नेता स्टेज पर मौजूद थे। लेकिन एक शख्स उस भीड़ में कहीं भी दिखाई नहीं दे रहा था और वह थे दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया।

लेकिन केजरीवाल के दाहिने हाथ माने जाने वाले सिसोदिया का उस जश्न में शामिल न होना कुछ अलग ही कहानी बयां करता है। इससे कई सवाल भी उठते हैं। पहला सवाल तो यह है क्या सिसोदिया और केजरीवाल के बीच कुछ अनबन चल रहा है? दूसरा सवाल यह उठता है कि अगर सब कुछ ठीक चल रहा है तो सिसोदिया पार्टी की जीत में शामिल क्यों नहीं हुए? अगर इन दोनों के बीच सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है तो इसके 2 परिणाम होंगे। पहला यह कि या तो सिसोदिया को उप मुख्यमंत्री पद से हटाया जाएगा या फिर आम आदमी पार्टी की प्रथा के अनुसार उन्हें भी पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया जाएगा।

यह आम आदमी पार्टी की रीति रही है कि अगर कोई अन्य नेता बेहतर काम करता है और यदि उसे केजरीवाल से ज्यादा महत्व मिलने लगता है तो केजरीवाल उन्हें दरकिनार करना शुरू कर देते हैं। यही नहीं पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाने में भी वो नहीं चूकते। योगेन्द्र यादव, कुमार विश्वास, प्रशांत भूषण आशुतोष और कपिल मिश्रा जैसे नेताओं का उदाहरण तो आप देख ही चुके हैं। इनमें से जिसने भी केजरीवाल की नीतियों के खिलाफ बयान दिया है या आवाज उठाई है उन्हें पार्टी से बाहर का रास्ता दिखाया गया है।

मनीष सिसोदिया ने AAP पार्टी की पार्टी लाइन से या केजरीवाल से सिर्फ जीत की जश्न के दौरान ही नहीं दूर नहीं थे बल्कि यह पिछले कई महीनों से देखा जा रहा है। चाहे वो CAA प्रदर्शनों का समर्थन करना हो या जामिया नगर के प्रदर्शनों पर। सभी जगह सिसोदिया ने केजरीवाल से उलट ही बयान दिया है। शाहीन बाग के मुद्दे पर तो दोनों एक दूसरे के खिलाफ बयान देते देखे गए।

एक तरफ जहां सिसोदिया ने शाहीन बाग के साथ खड़े होने की बात कही तो वहीं कुछ दिन बाद ही केजरीवाल यह कहते सुने गए कि अगर उनके हाथ में पुलिस होती तो वे दो दिन में इस प्रदर्शन को समाप्त कर देते।

अगर आम आदमी पार्टी और सिसोदिया के उत्थान को देखें तो यह लगभग समानान्तर ही है और AAP की सफलता में सिसोदिया ने बहुत योगदान दिया है। सिसोदिया के बढ़ते कद को देखते हुए केजरीवाल ने तो इस बार उन्हें चुनाव लगभग हारा ही दिया था। बता दें कि सिसोदिया को मात्र 3700 वोट के अंतर से जीत मिली है यानि वे हार भी सकते थे।

जमीनी स्तर पर उनकी पकड़ केजरीवाल के मुकाबले कहीं ज्यादा है। योजना बनाना और उसे लागू करने के तरीके में भी सिसोदिया केजरीवाल से बेहतर हैं। फिर भी वो अक्सर इसके लिए केजरीवाल को क्रेडिट देते हुए नजर आ जाते हैं, परन्तु राजनीति में पद की महत्वाकांक्षा न हो भला ऐसा हो सकता है क्या? कहीं न कहीं अब सिसोदिया के मन में भी होगा कि वो दिल्ली के मुख्यमंत्री बने। यदि ऐसा नहीं है तो हो सकता है कि केजरीवाल का कुर्सी से लगाव उन्हें ऐसा सोचने पर मजबूर कर रहा होगा। मतलब यह है कि सिसोदिया विधानसभा चुनाव में जीतते या हारते परंतु इतना तो पक्का है कि वे अब केजरीवाल के लिए उतने महत्वपूर्ण नहीं है, जितने वो पहले हुआ करते थे। ऐसे में यदि केजरीवाल उन्हें उपमुख्यमंत्री के पद से हटा भी दें, तो किसी को हैरानी नहीं होनी चाहिए।

मनीष सिसोदिया अब केजरीवाल के लिए किसी खतरे से कम नहीं हैं। अधिकतर मोर्चों पर विफल रहने वाली आम आदमी पार्टी शिक्षा में किए गए सुधारों के आधार पर चुनाव लड़ी थी। या यूं कहें तो आम आदमी पार्टी का सारा चुनाव प्रचार मनीष सिसोदिया द्वारा किए गए शैक्षणिक सुधारों के इर्द गिर्द ही घूम रहा था, जिसका फायदा भी उन्हें विधानसभा के चुनावों में प्रत्यक्ष रूप से मिला।

परंतु जिस तरह से अब अरविंद केजरीवाल ने मनीष सिसोदिया से मुंह मोड़ना शुरू किया, उससे स्पष्ट हो गया कि अरविंद केजरीवाल ऐसे किसी भी व्यक्ति को आगे नहीं आने देंगे, जो उनके सत्ता के लिए खतरा हो।

यही पार्टी मुख्यालय पर जीत की जश्न के दौरान भी देखने को मिला। हालांकि आज पार्टी मीटिंग के दौरान सिसोदिया केजरीवाल के बगल में दिखे लेकिन जीत की खुशी तो जीत की खुशी होती है। अब यह देखना दिलचस्प होगा कि 16 फरवरी को होने वाले शपथ समारोह में क्या होता है। सिसोदिया का हश्र आशुतोष या योगेंद्र यादव जैसा होती है यह फिर वे अपनी डिप्टी CM की कुर्सी बचाए रखते हैं।

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