कांग्रेस से जिस प्रकार रजवाड़े परिवार अपनी प्रासंगिकता खोते जा रहे हैं और अपने भविष्य के लिए दूसरी पार्टियों का रुख कर रहे हैं उससे एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि कांग्रेस ने एक परिवार के लिए अन्य राजपरिवारों का इस्तेमाल कर उन्हें ही दबाने का प्रयास करती आई है। ज्योतिरादित्य सिंधिया इस कड़ी में सबसे नए उदाहरण हैं। सिंधिया परिवार का इतिहास 300 वर्षों से अधिक का है। शुरुआत में विजया राजे कांग्रेस की ही सदस्य थीं और वर्ष 1957 में महारानी विजय राजे सिंधिया ने कांग्रेस के टिकट पर चुनाव भी लड़ा था लेकिन उन्होंने फिर जनसंघ को अपना लिया।
आजादी के बाद से ही कांग्रेस ने एक परिवार यानि नेहरू-गांधी परिवार के अलावा किसी और को कभी महत्व दिया ही नहीं, चाहे वो राज-राजवाड़े के कोई प्रभावशाली व्यक्ति हो या फिर कोई नेता ही क्यों न हो।
आजादी से पहले भारत में 500 से अधिक रजवाड़े थे और सभी सक्रिय थे लेकिन आजादी के बाद सरदार पटेल के अथक प्रयासों को छोड़कर सभी ने भारत में विलय कर लिया था। लेकिन इन रजवाड़ों की आम लोगों में लोकप्रियता बनी रही। संविधान लागू होने के बाद जब चुनाव हुए तो सत्ता में बने रहने के लिए कई राज परिवारों ने भी चुनाव लड़ा। अधिकतर कांग्रेस में शामिल हो गए और कुछ निर्दलीय ही अपना भाग्य आजमाने लगे।
88 वर्षीय डॉ. कर्ण सिंह खुद उधमपुर-डोडा सीट से लोकसभा में चार बार पहुंच चुके हैं। उन्होंने 1967,1971 और 1977 में कांग्रेस के टिकट पर चुनाव जीता जबकि कांग्रेस (अर्स) बनने पर उसकी टिकट पर 1980 में यहीं से जीत हासिल की थी। वहीं 1951-52 के लोकसभा चुनाव में बीकानेर के पूर्व राजा कर्णी सिंह ने निर्दलीय चुनावी राजनीति में वापसी करने वाले नेताओं में से एक थे।
ऐसे ही न जाने कितने राजा-महाराजा थे जिन्होंने या तो कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा, या तो निर्दलीय। जैस-जैसे समय बीतता गया वैसे-वैसे रजवाड़ों को कांग्रेस अपने काबू में करने की नई-नई चालें चलती गई। इन्दिरा गांधी ने तो रजवाड़ों की नाक में दम कर दिया था। पहले तो उन्होंने Privy Purse की समाप्ती कट दी उसके बाद कई और कड़े नियम बना डाले।
1967 के आम चुनावों में कई पूर्व राजे-रजवाड़ों ने सी.राजगोपालाचारी के नेतृत्व में स्वतंत्र पार्टी का गठन किया। इनमें से कई कांग्रेस के बागी उम्मीदवार भी थे। इसके चलते इंदिरा गांधी ने प्रिवीपर्स खत्म करने का संकल्प ले लिया। 1970 में संविधान में चौबीसवां संशोधन किया गया और लोकसभा में 332-154 वोट से पारित करवा लिया।
हालांकि राज्य सभा में यह प्रस्ताव 149-75 से पराजित हो गया। राज्यसभा में हारने के बाद प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने राष्ट्रपति वीवी गिरी से सभी राजा-महाराजाओं की मान्यता समाप्त करने को कहा। इस बीच 1971 के चुनाव हो गए और इंदिरा गांधी को जबर्दस्त सफलता मिली। उन्होंने संविधान में संशोधन कराया और प्रिवीपर्स को हमेशा के लिए खत्म करवा दिया। इस तरह राजे-महाराजों के सारे अधिकार और सहूलियतें वापस ले ली गईं।
इस निर्णय के बाद सभी राजा-महाराजा इंदिरा गांधी के खिलाफ हो गए। कई पूर्व राजघरानों ने प्रिवी पर्स के उन्मूलन के खिलाफ विरोध करने की कोशिश की, मुख्य रूप से 1971 के लोकसभा चुनावों में सीटों के लिए चुनाव प्रचार के माध्यम से। लेकिन जनता ने कईयों को भारी अंतर से हरा दिया। इसमें पटौदी के अंतिम और पूर्व नवाब मंसूर अली खान पटौदी भी शामिल थे, जिन्होंने गुड़गांव से चुनाव लड़ा था। मंसूर ने विशाल हरियाणा पार्टी के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा, लेकिन दो-तरफ़ा प्रतियोगिता में बमुश्किल 5% वोट प्राप्त किया। हालांकि तब भी विजया राजे सिंधिया और उनके बेटे माधव राव सिंधिया ने 1971 के लोकसभा चुनावों में जीत हासिल की थी।
यही नहीं 1976 में, आपातकाल के दौरान इंदिरा गांधी ने भारतीय सेना को जयगढ़ किले में छिपे हुए खजाने की तलाश के लिए मार्च करने का आदेश दे दिया था, जो अभी भी जयपुर शाही परिवार की संपत्ति थी।
कांग्रेस ने इसी तरह से कई राज परिवारों का राजनीतिक फायदा उठाया लेकिन कभी भी उनका भला नहीं किया। चाहे वो सिंधिया परिवार हो या डोगरा राजपरिवार या फिर राजस्थान के राज परिवार।
सिंधिया परिवार की बात करें तो राजमाता के जनसंघ में जाने के बाद उनके पुत्र माधव राव ने 1980 में कांग्रेस का दामन थामा पर वहां भी उन्हें नजरंदाज किया गया। इससे खिन्न होकर उन्होंने 1996 में कांग्रेस छोड़ दिया। हालांकि 1998 में वे फिर से कांग्रेस में शामिल हो गए। मौजूदा समय में राजमाता की दोनों बेटियां BJP में ही हैं।
सिंधिया घराने की महारानी विजयराजे संधिया की बेटी वसुंधरा राजे का विवाह धौलपुर रियासत की महाराजा राणा हेमंत सिंह से हुआ लेकिन बाद में वह अलग हो गईं। उन्होंने अपने भाई माधव राव सिंधिया की तरह कांग्रेस नहीं जॉइन किया बल्कि वर्ष 1984 में वे बीजेपी का हिस्सा बनीं। दो बार राजस्थान की सीएम रहीं वसुंधरा इस समय बीजेपी की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं। वसंधुरा के बेट दुष्यंत सिंह झालावाड़ से सांसद हैं और 2019 में फिर बीजेपी के उम्मीदवार। वसुंधरा की बहन यशोधरा राजे सिंधिया भी बीजेपी में हैं।
छत्तीसगढ़ के जशपुर राजघराना के राजा विजय भूषण सिंह देव 1952 और 1957 में विधायक रहे और 1962 में रायगढ़ से सांसद बने। दो बार लोकसभा व एक बार राज्यसभा पहुंचे। अटल सरकार में मंत्री भी बने लेकिन रिश्वत कांड में नाम आने के चलते इस्तीफा देना पड़ा। फिलहाल, इनके बेटे रणविजय सिंह जूदेव बीजेपी से राज्यसभा सांसद हैं।
वहीं बात करें राजस्थान के जयपुर रियासत की तो यहां की महारानी गायत्री देवी ने सी. राजगोपालाचारी की स्वतंत्र पार्टी से सियासत शुरू की थी। 1962 में जयपुर से उन्होंने ऐतिहासिक मतों से चुनाव जीता। 1967 और 1971 में इंदिरा लहर होने के बावजूद कांग्रेस का ऑफर ठुकरा उनके खिलाफ चुनाव जीतीं। इमरजेंसी के दौरान उन्हें पांच महीने जेल भी रहना पड़ा। उनके सौतेले बेटे भवानी सिंह कांग्रेस से 1989 में लोसकभा चुनाव लड़े लेकिन हार गए। भवानी की बेटी राजकुमारी दिया कुमारी फिर BJP में शामिल हो गयी और 2013 विधायक बनीं।
देश-दुनिया और राज्य में अपनी प्रासंगिकता बचाए रखने के लिए डोगरा राज परिवार ने भी राजनीति का सहारा लिया, मगर यह रास्ता इस परिवार के लिए आसान नहीं रहा है। खुद डॉ. कर्ण सिंह जरूर अपवाद रहे हैं और उन्होंने अपनी साख की बदौलत अपनी राजनीतिक पारी सफलतापूर्वक खेली है। मगर, डॉ कर्ण सिंह के दोनों बेटों को आज भी राजनीति में अपने को स्थापित करने के लिए कड़ा संघर्ष करना पड़ रहा है। अजातशत्रु सिंह ने 1995 में कांग्रेस में शामिल होकर राजनीति में कदम रखा था। लेकिन कुछ ही दिनों बाद अजातशत्रु सिंह ने पार्टी छोड़ दी और नेशनल कांफ्रेस में शामिल हो गए थे। बीच में फिर कुछ दिनों के वास्ते कांग्रेस में लौटे मगर दोबारा नेशनल कांफ्रेस में चले गए। अजातशत्रु ने आखिरकार नेशनल कांफ्रेस छोड़ दिया और भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए। वहीं विक्रमादित्य सिंह फिलहाल कांग्रेस में हैं लेकिन BJP के कई फैसलों पर अपनी सहमति जता चुके हैं।
अब ज्योतिरादित्य के कांग्रेस से चले जाने के बाद यह बात और स्पष्ट हो गयी है कि कांग्रेस में गांधी परिवार के अलावा किसी और की आकांक्षाओं का कोई महत्व नहीं है।
हालांकि अभी भी कई राज परिवार कांग्रेस में ही है। सरगुजा रियासत हो या बुशहर रियासत या फिर दिग्विजय सिंह का राज परिवार ही क्यों न हो। बता दें कि कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह का राघौगढ़ राजघराना कभी ग्वालियर राजघराने का हिस्सा था। लेकिन वे भी खुश नहीं है और अपने लिए नए-नए अवसर ढूंढ रहे हैं।