आज विश्व के सामने कोरोनावायरस की एक बड़ी समस्या आ खड़ी हुई है जिससे पूरा विश्व परेशान है। इस लेख के लिखे जाने तक 8000 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है और 202,241 केस दर्ज किए जा चुके हैं। जैसे-जैसे यह महामारी बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे विश्व भारतीय सभ्यता को अपनाता जा रहा है। नमस्ते हो या खाने में हल्दी का उपयोग हो, सभी देश अब भारतीय वेदों में व्याप्त जीवन पद्धति को अपना रहे हैं।
कोरोना वायरस के बारे में डाक्टरों का यह कहना है कि यह वायरस मनुष्य के रोग प्रतिरोधक क्षमता पर हमला करता है और जिस व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता कम होती है उसे यह अपने पशोपेश में ले लेता है। लेकिन भारत की सभ्यता देखें तो यहा के खान-पान से लेकर रहन-सहन तक सभी में रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने वाले तत्व मौजूद है और इस महामारी के फैलने के बाद अब विश्व उन्हीं प्रक्रियाओं और खान-पान को अपनाने लगा है। चाहे वो नमस्ते करने का प्रचलन हो या फिर खाने में हल्दी जैसे गुणकारी वनस्पति का प्रयोग हो या फिर दाह संस्कार ही क्यों न हो। पश्चिम के देश तो अब ताम्रपत्र या तांबा के बर्तनों को इस्तेमाल करने पर ज़ोर दे रहे हैं जिसे कॉपर भी कहा जाता है। भारतवर्ष की जीवन पद्धति ही संस्कृति है और संस्कृति ही है सनातन सभ्यता।
COVID-19 या कोरोनावायरस जब किसी व्यक्ति को संक्रमित करता है तो उसे निमोनिया हो जाता है। जो भी व्यक्ति इस वायरस के कांटेक्ट में आया है उन्हें गंभीर खांसी, बुखार और सांस लेने में कठिनाई हो रही है। एंटीबायोटिक्स इस वायरस पर बेअसर साबित हो रही हैं। वहीं एंटीवायरल दवाएं ज्यादातर लोगों पर बेअसर है। यह कमजोर रोग प्रतिरोधक क्षमता वाले व्यक्ति पर अधिक प्रभावित कर रहा है। यही कारण है कि इटली में हुई मौतों में अधिकतर वृद्ध थे और उनकी औसत उम्र 80 वर्ष थी। इसका अर्थ यह है कि अगर व्यक्ति की रोग प्रतिरोधक क्षमता उत्तम हो तो वह इस वायरस से लड़ने में सक्षम है।
भारत की खान-पान में वर्षों से ऐसे वनस्पती का उपयोग होता आया है जिसमें रोग प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाने में जबरदस्त फायदा पहुंचता है। इन्हीं वनस्पतियों में से एक है हल्दी जिसकी मांग कोरोना के बढ़ने से यूरोप में भयंकर रूप से बढ़ी है। इकोनॉमिक्स टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार अपने औषधीय गुणों के लिए मशहूर हल्दी की यूरोप और वेस्ट एशिया में 300 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। इंग्लैंड और जर्मनी में यह बढ़ोतरी सबसे अधिक देखि गयी है। इस रिपोर्ट के अनुसार पहले जहां एक दिन में 300 किलो कच्चा हल्दी निर्यात किया जाता था तो वहीं अब यह आंकड़ा 3 टन प्रतिदिन हो चुका है।
भारतीय सभ्यता के मूल सिद्धांत विज्ञान और चिकित्सा पर आधारित हैं। आयुर्वेद की भूमि आज दुनिया के लिए इस महामारी से बचे रहने की एकमात्र उम्मीद है, और इस बात के पर्याप्त प्रमाण हैं कि दुनिया भर के लोग भारत की जीवन पद्धति को अपना रहे हैं। इसे एक उन्नत प्रतिरक्षा प्रणाली के लिए हल्दी जैसे घरेलू उपचार से यूके और जर्मनी जैसे देशों में बढ़ रही मांग से समझा जा सकता है।
शल्य चिकित्सा की शुरुआत हमारे देश में ही लगभग 2600 साल पहले महर्षि सुश्रुत ने की थी। आचार्य सुश्रुत को शल्य चिकित्सा का जनक कहा जाता है। आयुर्वेद में उपचार के लिए सर्जरी की मदद ली जाती है। उन्होंने भी हल्दी के अनेक गुणों की व्याख्या की थी। घाव भरने से लेकर प्रतिरक्षा क्षमता बढ़ाने के लिए के प्रयोग के बारे बताया गया है। हल्दी व्यंजनों के स्वाद में तो इजाफा करती ही है साथ ही इसमें अनेक औषधीय गुण भी होते हैं। त्वचा, पेट और शरीर की कई बीमारियों में हल्दी का प्रयोग किया जाता है। शारीरिक क्षति जैसे, चोट, मोच, अंदरूनी घाव को ठीक करने, सर्दी जुकाम व खांसी आदि बीमारियों को ठीक करने आदि के अतिरिक्तर सौंदर्य प्रसाधन, धार्मिक व सामाजिक मांगलिक कार्यक्रमों में हल्दी का प्रयोग किया जाता है।
हल्दी के अलावा एक बात और सामने आ रही है कि वैज्ञानिक तांबे और पीतल पर रिसर्च कर रहे हैं कि इन दोनों ही धातु पर वायरस अधिक देर तक नहीं टिकते हैं। तांबा और पीतल भारतीय सभ्यता का एक अनिवार्य हिस्सा रहा है।
‘द फास्ट कंपनी’ के एक लेख में यह पूछा गया है कि दुनिया में सबसे आम सतह सामग्री के रूप में तांबे का व्यापक रूप से उपयोग क्यों नहीं किया जाता है।
वर्ष 2015 में mbio में प्रकाशित एक रिसर्च में यह बात सामने आई थी कि फेफड़े की बीमारी फैलाने वाले वायरस तांबे पर अधिक देर तक जिंदा नहीं रह पाते। वहीं अभी एक रिसर्च में यह भी सामने आती है कि कोरोना वायरस भी तांबे पर 4 घंटे ही रह पाते हैं। यह परीक्षण हैमिल्टन, मोंटाना में स्वास्थ्य के रॉकी माउंटेन लैब के राष्ट्रीय संस्थानों में किए गए थे। इसमें एनआईएच, प्रिंसटन विश्वविद्यालय और कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय, लॉस एंजिल्स के विशेषज्ञों शामिल थे। हालांकि, अभी इसे peer review के लिए दिया गया है। कोरोनोवायरस सामान्य सतहों पर लंबे समय तक जीवित रह सकते हैं, यह तांबे पर ऐसा नहीं कर सकता है।
भारत में बर्तनों के रूप में इस्तेमाल होने वाली एकमात्र सामग्री पीतल और तांबे के बर्तन थे। पीतल के बर्तनों से पानी पीने की प्रथा, निश्चित रूप से सभी भारतीयों के लिए अंतर्निहित है।
‘ताम्बा’ और पीतल से बने बर्तन भारतीय सभ्यता में सहस्राब्दियों से उपयोग किए जाते रहे हैं। तांबा एक शक्तिशाली रोगाणुरोधी सामग्री है। मनुष्य के स्वास्थ्य को महत्वपूर्ण समझते हुए आयुर्वेद ने तांबे के बर्तन में ही पानी पीने की सलाह दी है। आयुर्वेद का मानना है कि पानी में विभिन्न प्रकार के कीटाणु होते हैं जो तांबे से बने हुए बर्तन में पानी को डालने से मर जाते हैं। युगों से तांबे से बने बर्तनों का प्रयोग बेहद पवित्र रूप से किया जाता रहा है। यदि आपने कभी ध्यान दिया हो तो किसी भी पूजा अथवा हवन या फिर किसी भी भगवान की आराधना में जिन बर्तनों का हम प्रयोग करते हैं वह तांबे के ही बने होते हैं।
चीन में जब ये वायरस महामारी के रूप में परिवर्तित हुआ तब चीनी राष्ट्रीय स्वास्थ्य आयोग ने तुरंत इस बीमारी से मरने वालों का cremation या दाह संस्कार (शव को खुले स्थान में अग्नि की उपस्थिती में अन्त्येष्टि) करने का निर्देश दे दिया और burial या शव को दफनाने की प्रक्रिया पर रोक लगा दी थी जिससे यह वायरस और न फैले। जिस प्रक्रिया को चीन आज इस विपदा के आने पर अपना रहा है, उसे सनातन धर्म शताब्दियों से नहीं बल्कि हजारों वर्षों से करता आया है। विश्व के सबसे पुराने ग्रंथ ऋगवेद में भी दाह संस्कार के बारे में वर्णन है। ऋगवेद की कई ऋचाएँ हैं, जो बताते हैं कि भगवान अग्नि (भगवान की अग्नि) शव को शुद्ध करेंगे। यही नहीं महाभारत में अन्त्येष्टि कर्म का कई बार वर्णन आता है। गरुण पुराण में अंतिम संस्कार के बारे में विस्तार से बताया गया है।
अंत में, नमस्ते को दुनिया भर में लगभग सभी देशों द्वारा अपनाया जा रहा है। यह भारत में जन्मी एक प्रथा है।
भारतीय सभ्यता का हमेशा से मज़ाक उड़ाया जाता रहा है, दुनिया के लिए अब इस सभ्यता को सबसे वैज्ञानिक और लाभकारी जीवन पद्धति के रूप में स्वीकार किया जा रहा है, जो वास्तव में इस धार्मिक भूमि पर निहित वर्षों-पुरानी प्रथाओं का एक सत्यापन ही है। हम केवल यह आशा कर सकते हैं कि भारतीय तकनीकों का उपयोग करके, दुनिया कोरोनोवायरस के विनाशकारी प्रभावों को रोक सके।