मतदाता आधार तो पहले ही जेडीएस खो चुकी थी, अब नेता भी इसका साथ छोड़ दूसरी पार्टी का हाथ थाम रहे हैं

JDS

भारत की राजनीति में नित नए आयाम लिखे जाते हैं। कर्नाटक की राजनीति में तो रोज़ ही हलचल देखने को मिल रही है। अब कर्नाटक के वर्त्तमान राजनीतिक परिदृश्य को देखें तो ऐसा लग रहा है कि JDS जल्द ही बचा-खुचा राजनीतिक अस्तित्व भी खो देगी। इस पार्टी के दिग्गज नेता या तो BJP में मौके ढूंढ रहे हैं या फिर कांग्रेस में। ये पार्टी लोकसभा चुनावों में करारी हार के बाद से गायब ही हो गयी थी लेकिन अब ऐसा लगता है कि नेताओं के BJP या कांग्रेस में शामिल होने से सिर्फ HD कुमारस्वामी ही इस पार्टी में बचेंगे।

दरअसल, इकोनॉमिक्स टाइम्स की रिपोर्ट के अनुसार  हाल ही में JDS के दिग्गज नेता GT Deve Gowda ने BJP जॉइन करने का प्लान कर लिया है। वहीं JDS के कई MLA भी यही विचार रहे रहे हैं और विधान सभा चुनावों से पहले किसी न किसी पार्टी में शामिल होना चाहते हैं।

कर्नाटक में हुए लोकसभा चुनाव और फिर विधानसभा उप चुनाव में JDS के के खराब प्रदर्शन ने इस पार्टी के अस्तित्व पर सवाल खड़ा कर दिया था। इन चुनावों में इस पार्टी के मतदाता आधार वोक्कालिगा समुदाय ने ही JDS को पूरी तरह से नकार दिया। इस तरह से देखें तो JDS का वोट बैंक और इस पार्टी के नेता दोनों का ही इस पार्टी से मोह भंग हो गया है।

गौरतलब है कि कर्नाटक की राजनीति में दो जातियों का सबसे अधिक योगदान रहता है और वो हैं लिंगायत और वोक्कालिगा समुदाय का। राज्य की आबादी के 21 प्रतिशत लिंगायत मुख्यमंत्री येदियुरप्पा के साथ ही रहते हैं। वहीं वोक्कालिगा समुदाय की आबादी 18 प्रतिशत के आसपास है  और पहले यह जनता दल (सेक्युलर) का वोट बैंक था। दक्षिण कर्नाटक में इनकी आबादी ज्यादा है। JDS मुख्यतः वोक्कालिगा समुदाए के वोट पर अपनी राजनीति चलाती है लेकिन कर्नाटक के विधानसभा उपचुनाव में बीजेपी ने विपक्ष को तहस नहस करते हुए 15 में से 12 सीटों पर भारी जीत दर्ज की थी। आज जेडीएस के अस्तित्व पर जो संकट आया है उसके लिए खुद जेडीएस के हाईकमान ही जिम्मेदार हैं। वर्ष 2018 के कर्नाटका के विधानसभा चुनाव के बाद जेडीएस ने मुख्यमंत्री पद के लिए कांग्रेस से हाथ मिला लिया था जब कि स्पष्ट तौर पर सबसे बड़ी पार्टी बीजेपी थी और जनाधार बीजेपी के पक्ष में था। कर्नाटका के लोगों ने स्पष्ट तौर से सिद्धारमैया की सरकार के खिलाफ वोट किया था लेकिन फिर भी कांग्रेस और जेडीएस ने वैचारिक रूप से धूर-विरोधी होने के बावजूद मिलकर बेमेल गठबंधन की सरकार बनाई थी। हालांकि, ये सरकार कुछ महीनों बाद ही गिर गयी।

उस समय विधानसभा चुनाव से पहले यह कयास लगाए जा रहे थे कि JDS बीजेपी के साथ गठबंधन करेगी जैसे उसने वर्ष 2006 में किया था, क्योंकि चुनाव से पहले कांग्रेस और जेडीएस के बीच तनाव अपने चरम पर था। राहुल गांधी ने तो जेडीएस को BJP की B-team तक कह दिया था। कांग्रेस के खिलाफ राज्य में सत्ता विरोधी लहर का फायदा भाजपा के साथ-साथ वहां कि क्षेत्रीय पार्टी जेडीएस को भी मिला। राज्य की 224 विधानसभा सीटों में से भाजपा ने104, कांग्रेस ने 78, जेडीएस ने 37 जीतीं थीं। अगर जेडीएस बीजेपी के साथ आ जाती तो कुमारस्वामी को सम्मान के साथ उप मुख्यमंत्री का पद अवश्य मिल जाता और साथ ही कुमारस्वामी का रुदन भी किसी हैडलाइन में पढ़ने को शायद नहीं मिलता। इसके साथ ही इस गठबंधन से जेडीएस को भी बिहार के JDU और महाराष्ट्र के शिवसेना जैसी लोकप्रियता भी मिल ही जाती। इसका फायदा इस पार्टी को 2019 के लोकसभा चुनावों में भी मिलता। परन्तु जेडीएस ने मुख्यमंत्री पद के लालच में आकर कांग्रेस के साथ हाथ मिला लिया और अपने लिए कब्र खोदना आरंभ कर दिया।

दरअसल, वोक्कालिगा समुदाय सिद्धारमैया के शासन से परेशान हो चुके थे। सिद्धारमैया की विनाशकारी आर्थिक नीतियां राज्य भर में खासकर पुराने मैसूर क्षेत्र में कृषि संकट का कारण बन गयीं थीं। यही वजह थी कि 2018 के विधानसभा चुनाव में इस समुदाय ने JDS पर भरोसा जताया था लेकिन इस पार्टी ने इस भरोसे को तार-तार करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।  इसी वजह से इस बार के विधानसभा उप चुनाव में वोक्कालिगा समुदाय ने BJP को वोट दिया था। इन उपचुनाव के नतीजों से यह स्पष्ट पता चल गया था कि जेडीएस ने अपने ही हाथों अपने राजनीतिक भविष्य का गला घोंट दिया है। किसी भी क्षेत्रीय पार्टी के लिए अपने मतदाता आधार को खोना सबसे बड़ी गलती होती है जिसके बाद उसके अस्तित्व पर खतरा मंडराने लगता है। यही हाल जेडीएस का हुआ। अब इस पार्टी के आनी दिग्गज नेताओं पार्टी छोड़ जाने से सिर्फ कुमारस्वामी ही बचेंगे।

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