बीते शनिवार को दोहा में कई वर्षों की बातचीत के बाद तालिबान और अमेरिका में आखिर शांति समझौते पर हस्ताक्षर हो ही गए। हालांकि, यह समझौता अफ़ग़ानिस्तान में शांति बहाल कर पाएगा कि नहीं, इसपर अभी भी संशय है। अमेरिका ने इस समझौते को आखिरी रूप देने के लिए जल्दबाज़ी की है क्योंकि इस वर्ष अमेरिका में राष्ट्रपति के चुनाव होने हैं और राष्ट्रपति ट्रम्प अपनी इस ‘कामयाबी’ का अपने चुनाव प्रचार में इस्तेमाल करना चाहते हैं, लेकिन अपनी इस जद्दोजहद में वे इस क्षेत्र की शांति को दांव पर लगा रहे हैं। इस बात का खतरा काफी बढ़ गया है कि यह शांति समझौता क्षेत्र में अधिक तनाव पैदा कर सकता है, और अभी से इसके संकेत दिखना शुरू भी हो चुके हैं।
उदाहरण के तौर पर शांति समझौते के मुताबिक अफ़ग़ानिस्तान सरकार को यह शांति समझौता होते ही लगभग 5 हज़ार तालिबानी कैदियों को रिहा करना था, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान के राष्ट्रपति अशरफ घानी ने ऐसा करने से साफ इंकार कर दिया। गनी ने रविवार को मीडिया से बातचीत में कहा, “पांच हजार बंदियों को रिहा करने के बारे में (हमारी) कोई प्रतिबद्धता नहीं है। यह अफगानिस्तान के लोगों का अधिकार और उनकी खुद की इच्छा पर निर्भर है। यह मुद्दा अफगानिस्तानियों के बीच होने वाली बातचीत के एजेंडे का हिस्सा हो सकता है लेकिन इस बातचीत की पूर्व शर्त नहीं।” आगे उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि कैदियों की रिहाई का फैसला करना अफ़ग़ानिस्तान का अधिकार है, अमेरिका का नहीं”।
बता दें कि शांति समझौते के मुताबिक मार्च 10 से पहले-पहले अफ़ग़ानिस्तान सरकार को कम से कम 1 हज़ार तालिबानी कैदियों को रिहा करना था, उसके बाद 10 मार्च को अफ़ग़ानिस्तान सरकार और तालिबान के बीच बातचीत होनी थी। लेकिन अब अशरफ घानी द्वारा इन एक हज़ार कैदियों की रिहा ना करने का ऐलान करने से इस द्विपक्षीय वार्ता पर भी खतरे के बादल मंडराना शुरू हो चुके हैं। इसी के साथ कल यानि सोमवार को तालिबान और अफ़गान सुरक्षा बलों के बीच मुठभेड़ का दौर फिर से शुरू हो गया, जो शांति वार्ता की वजह से रोक दिया गया था। इससे इस बात की आशंका और ज़्यादा बढ़ गयी है कि यह शांति समझौता शायद ही अपने अंजाम तक पहुँच पाये।
इससे एक बात और स्पष्ट होती है कि इस समझौते पर हस्ताक्षर करते समय अमेरिका ने सभी पक्षों को विश्वास में नहीं लिया। अफ़ग़ानिस्तान सरकार की इस समझौते की वार्ता में अहम भूमिका होनी चाहिए थी, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान की सरकार को इस पूरी प्रक्रिया से दूर रखा गया। अमेरिका में कुछ सांसदों ने भी इस समझौते की विश्वसनीयता पर सवाल उठाए हैं। अमेरिकी सांसद टॉम मेलिनोस्की ने दावा किया कि एक बैठक में अमेरिकी विदेश सचिव माइक पोम्पियो ने कहा था कि इस समझौते में तालिबानी बंदियों को छोड़ने का कोई प्रस्ताव नहीं है। आगे मेलिनोस्की ने अपनी सरकार से यह भी सवाल पूछा है कि “आखिर उनकी सरकार ने एक निश्चित संख्या में तालिबानी कैदियों को छोड़ने का प्रस्ताव शांति समझौते में शामिल क्यों किया है?”
इसके अलावा अफ़ग़ानिस्तान में महिला अधिकारों के लिए काम करने वाली कार्यकर्ता मार्जिया रुस्तमिया ने भी इस बात पर संशय जताया है कि इस शांति समझौते से शायद ही अफ़ग़ानिस्तान का कुछ भला हो पाये। उन्होंने सवाल उठाया “यह बहुत हैरानी की बात है कि वह तालिबान जो 18 सालों तक अपनी विचारधारा के लिए लड़ा हो, एकदम वह अपने लोकतन्त्र विरोधी और महिला विरोधी विचारों को छोड़ दे”।
इसके अलावा जानकारों का मानना है कि यह शांति समझौता भारत के लिए भी अच्छा नहीं है। असल में भारत अफ़ग़ानिस्तान में लोकतान्त्रिक रूप से चुनी हुई सरकार को ही प्राथमिकता देता आया है लेकीन इस शांति समझौते में तालिबान को प्राथमिकता दी हुई है। अभी इस शांति समझौते से पाकिस्तानी सेना में बैठे जनरल और तालिबान का नेतृत्व ही खुश दिखाई दे रहा है और अफ़ग़ानिस्तान की सरकार और लोगों को इस समझौते से बेहद कम ही उम्मीदें हैं। अब देखना यह होगा कि अफ़ग़ानिस्तान सरकार अमेरिका के दबाव में आकर तालिबानी कैदियों को छोड़ती है या फिर शांति समझौता अपना महत्व पूरी तरह खो देता है।