‘भारत का HCQ घटिया, अमेरिकी दवाई अचूक’, BBC से लेकर वॉशिंग्टन पोस्ट तक की छाती पर लोटे सांप

ट्रम्प ने प्रचार क्या किया, लिबरल मीडिया धुंआ देने लगी

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मीडिया जिसे चाहे स्टार बना देती है और जिसे चाहे विलेन। जब से कोरोना को लेकर HCQ दवाई के सकारात्मक परिणाम सामने आए हैं तब से ही ग्लोबल मीडिया इस दवाई के पीछे हाथ धो कर पड़ी है और और लगातार इसके विषय में नकारात्मक रिपोर्ट प्रकाशित कर रही है।

वहीं दूसरी तरफ इसी मीडिया के लोग अमेरिकी दवा कंपनी की दवाइयों के पक्ष में गाजे बाजे के साथ प्रचार कर रहे हैं। आखिर यह कैसा भेदभाव है? दोनों दवाओं के परिणाम अभी शुरुआती चरण में हैं और एक के प्रति नकारात्मक रिपोर्टिंग की जा रही है तो वहीं एक को सर-आँखों पर बिठाया जा रहा है। यहाँ कई सवाल उठते हैं? क्या मीडिया और अमेरिका की बड़ी फार्मा कंपनियों के बीच साँठ गांठ हैं? क्या भारत की HCQ से अमेरिकी फार्मा कंपनियां परेशान हैं?

ऐसा हो भी सकता है क्योंकि भारत का HCQ इन अमेरिकी दवाओं की तुलना में अधिक सस्ता है। इस कारण अब इन बड़ी फार्मा कंपनियों को ऐसा लग रहा है की HCQ की सफलता से उनका मार्केट ठप पड़ जाने वाला है। इसके लिए उन्होंने अपनी प्रचार और भारतीय दवाओं पर दुष्प्रचार करवाना शुरू कर दिया है।

बता दें कि पिछले दो दिनों से अमेरिकी फार्मा कंपनी जीलीड साइंस की एक दवा Remdesivir के पक्ष में कई रिपोर्ट प्रकाशित किए गए थे। मीडिया में यह ट्रेंड चला दिया गया कि एक शोध में यह पाया गया है कि जीलीड की दवा दो तिहाई मरीजों को ठीक कर देती है। हालांकि, शोध में शोधकर्ताओं ने यह भी स्पष्ट लिखा था कि वे इस डेटा से एक निष्कर्ष नहीं निकाल सकते हैं। कई प्रोफेसरों ने भी इस शोध पर आशंका जताई और कहा कि हम यह नहीं कह सकते कि अगर उन मरीजों को दवा न देते तो क्या होता।

लेकिन फिर ग्लोबल मीडिया जैसे ब्लूमबर्ग न्यू यॉर्क टाइम्स जैसे मीडिया हाउस ने इस तरह से हेडलाइन दिया जैसे यही चमत्कार है।

वहीं दूसरी तरफ हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वाइन के पक्ष में शोध के साथ साथ आंकड़े भी पक्ष में हैं फिर भी इस दवा के खिलाफ नकारात्मक रिपोर्टिंग की जा रही है।  इस दवाई का इस्तेमाल मलेरिया से लड़ने के लिए किया जाता है। इसके अलावा अर्थराइटिस, ल्यूपस, रुमेटोइड जैसी बीमारियों में भी ये कारगर है।  इस दवा को फ्रांस में जो शोध हुआ उसमें सामने आया था कि ये वायरस को इंसानी कोशिकाओं को खत्म करने से रोकती है.

फ्रांस में 40 कोरोनो वायरस रोगियों को हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन दिया गया था। उनमें से आधे से अधिक तीन से छह दिनों में बेहतर फील करने लगे। एक अध्ययन में सुझाव दिया गया कि मलेरिया रोधी दवा Sars-CoV-2 से संक्रमण को धीमा कर सकती है। यह वायरस को शरीर में प्रवेश करने से रोकता है।

डॉक्टरों समेत वैज्ञानिकों ने अभी इस बारे में कोई भी पुख्ता जानकारी नहीं होने की बात कही है। इतना जरूर है कि जहां कोरोना का संक्रमण ज्यादा है, वहां इस दवा को लेने की इजाजत जरूर दी गई है। पिछले दिनों भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद ने SARS-CoV-2 वायरस से होने वाली बीमारियों के उपचार के लिए हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वाइन के उपयोग का सुझाव दिया था।

लेकिन फिर भी इसके खिलाफ कई लेख प्रकाशित किए गए। विश्व भर की मीडिया, BBC से लेकर वाशिंगटन पोस्ट तक सभी ने अब इस दवा के खिलाफ अभियान आरंभ कर दिया। कई तरह के इंटरव्यू छापे जा रहे हैं जिससे इस दवाई की क्रेडिबिलिटी पर ही सवाल खड़े किये जाने लगे।

वॉशिंग्टन पोस्ट ने एक लेख प्रकाशित करते हुए लिखा- क्यों ट्रम्प एक 86 वर्ष पुरानी दवाई को कोरोना वायरस के खिलाफ गेम चेंजर कह रहे हैं। इस मीडिया हाउस ने National Institute for Allergy and Infectious Diseases के प्रमुख एंथनी एस. फौसी के हवाले से लिखा है कि उन्होंने ने भी इस दवा के गेम चेंजर होने का खंडन किया है।

वहीं BBC ने भी इसी तरह की एक रिपोर्ट प्रकाशित की। उसमें Lancet medical journal का हवाला देते हुए इस दवा के बारे में चेतावनी लिखी गयी कि अगर खुराक को सावधानी से नियंत्रित नहीं किया गया तो हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वाइन के खतरनाक दुष्प्रभाव हो सकते हैं।

मीडिया के इसी दोहरे मानदंड को एक्सपोज करते नसीम निकोलस तालेब ने ट्वीट करते हुए लिखा कि क्या अमेरिका की बड़ी फार्मा कंपनियां कई मीडिया हाउस को खरीद चुकी हैं? उन्होंने आगे लिखा कि जब Chloroquine की बात आती है तो यह कहा जा रहा है कि शोध अधिक प्रभावी नहीं है जबकि इस दवा के पक्ष में आंकड़े हैं। वहीं दूसरी ओर Gilead की एक दवा है जिसके ऊपर किए गए शोध कम प्रभावी है फिर भी इसे प्रचारित किया जा रहा है।

https://twitter.com/nntaleb/status/1249099768007024644?s=20

वास्तव में देखा जाए तो हाइड्रोक्सी क्लोरोक्वाइन एक सस्ती दवा है और Gilead की दवा एक महंगी दवा है। इस अमेरिकी कंपनी पर अमेरिका में भी अधिक मुनाफा कमाने के आरोप लगते रहे हैं। और जिस बात पर तालेब आशंका जता रहे हैं वह सच भी हो सकता है। भारत HCQ का सबसे बड़ा उत्पादक है। वित्तीय वर्ष 2019 में 51 मिलियन डॉलर मूल्य की दवा का निर्यात किया था। यह देश से 19 बिलियन डॉलर फार्मा के क्षेत्र में होने वाले निर्यात का एक छोटा हिस्सा है।

भारत ने हाईड्रोक्सी क्लोरोक्वाइन (HCQ) को काफी सस्ते दामों पर 30 से अधिक देशों को देने का फैसला किया है जिसमें अमेरिका भी है। अमेरिका के राष्ट्रपति स्वयं इस दवा का प्रचार कर रहे हैं। इसी वजह से अमेरिकी कंपनियों को यह लगने लगा है कि उनका मार्केट कहीं खराब न हो जाए।

लोग सस्ती दवाओं को ही अधिक खरीदेंगे जिससे इन अमेरिकी कंपनियों को भारी मात्रा में नुकसान होगा। यही नहीं भारत से HCQ मिलने के बाद अमेरिका ने कई भारतीय फार्मा कंपनियों पर से लगे प्रतिबंध भी हटा लिए थे। इसी वजह से ऐसा संभव है कि वे इन लिबिरल मीडिया से अपना प्रचार करवा रही है तो वहीं HCQ के लिए दुष्प्रचार करवा रही है जिससे HCQ से लोगों का भरोसा उठ जाए। ऐसे में यह भी कहना गलत नहीं होगा कि अमेरिकी फार्मा कंपनियाँ भारत की HCQ की सफलता से व्याकुल हो चुकी हैं।

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