पिछले कुछ दिनों से वर्तमान नेपाल का प्रशासन भारत के विरुद्ध विष उगलने में कोई कसर नहीं छोड़ रहा है। KP शर्मा ओली तो इसे अपना निजी उद्देश्य मानकर आए दिन भारत के विरुद्ध अनर्गल प्रलाप करते रहते हैं।
इसमें कोई दो राय नहीं है कि नेपाल का वर्तमान प्रशासन कैसे और किस प्रकार से चीन के प्रति अपनी वफादारी ज़ाहिर करना चाहता है। पर क्या आपको पता है कि भारत और नेपाल के बीच के संबंधों में ये खटास कांग्रेस की कृपा से पड़ी थी?
ये कांग्रेस के सरकारों का ही कमाल है कि नेपाल में ना सिर्फ माओवादियों का शासन है, अपितु उसके कंधे पर बंदूक रख चीन अपने नापाक इरादों को अंजाम देना चाहता है।
पर चीन ऐसा क्यों करना चाहता है? दरअसल नेपाल भारत के अलावा एकमात्र ऐसा देश है, जहां हिन्दू अभी भी बहुत अधिक संख्या में रहते हैं। नेपाल और भारत के बीच सांस्कृतिक रूप से इतनी समानताएं हैं, कि यहां के व्यापार और आवाजाही में कोई विशेष रोक टोक नहीं होती।
एक रिपोर्ट के अनुसार, चीन इसलिए नेपाल में माओवादियों के प्रभाव को बढ़ाना चाहती है, ताकि इस देश में हिन्दू धर्म का जो प्रभाव है, वह खत्म हो जाए, और रणनीतिक रूप से भारत को घेरने में आसानी रहे। यानी चीन एक तीर से दो लक्ष्य भेदना चाहता है –
तो आखिर कांग्रेस का इस लक्ष्य से क्या संबंध? दरअसल इसका संबंध बहुत पुराना है, जिसके तार नेपाल के पूर्व महाराज बीरेंद्र बीर बिक्रम शाह देव से भी जाकर मिलते हैं।
80 के दशक में नेपाल में राजतंत्र व्याप्त था, और राजा बीरेंद्र बीर बिक्रम शाह देव का शासन था। राजा बीरेंद्र ना केवल भारत के हितैषी थे, अपितु एक धर्मनिष्ठ सनातनी भी। परन्तु जिस तरह से राजीव गांधी के नेतृत्व में तत्कालीन कांग्रेस सरकार नेपाल विरोधी तत्वों को बढ़ावा दे रही थी, वह उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाता था।
वर्ष 1988-89 में भारत और नेपाल के बीच सबकुछ अच्छा नहीं चल रहा था। इसे सुधारने के लिए साल 1989 में जब राजीव के काठमांडू दौरे पर सोनिया के साथ पहुंचे तो माना जा रहा था कि इस दौरे से भारत-नेपाल के संबंधों में एक नई जान आएगी, दोनों देशों की कड़वाहटें खत्म हो जाएंगी, पर ऐसा नहीं हुआ।
नेपाल दौरे के दौरान पशुपतिनाथ मंदिर में जब सोनिया गांधी को प्रवेश नहीं मिला, तो राजीव गांधी ने इसे अपनी तौहीन समझते हुए नेपाल के विरुद्ध भारत लौटते ही बदले की भावना से कार्रवाई करने लगे। इससे विक्षुब्ध होकर नेपाल चीन से अपने संबंध मजबूत करने लगे, और आज उसके दुष्परिणाम सभी के सामने है। इस कूटनीतिक पाप के बारे में रॉ के पूर्व प्रमुख अमर भूषण ने अपनी पुस्तक इनसाइड नेपाल में विस्तार से बताया भी है।
इसके अलावा जब तक नेपाल में हिन्दू राजशाही का अंत नहीं हो गया था, तब तक कांग्रेस नेपाल के माओवादी गुट को अपना पुरजोर समर्थन दे रही थी। अमर भूषण के इस पुस्तक में ये भी लिखा गया है कि कैसे कांग्रेस ने रॉ का दुरुपयोग करते हुए पुष्प कमल दहल उर्फ प्रचंड जैसे माओवादियों को नेपाली राजशाही के विरुद्ध काम करने के लिए उकसाया। इस परिप्रेक्ष्य में 2007 से 2008 के बीच में तत्कालीन गोरखपुर सांसद योगी आदित्यनाथ ने माओवादी आतंकवाद और चीन के बढ़ते प्रभाव के बारे में चेतावनी भी दी थी। आज योगी आदित्यनाथ जी की एक एक बात इस विषय पर सत्य सिद्ध हो रही है।
इसी कारण से चीन को नेपाल को अपना गुलाम बनाने में भी काफी आसानी हुई, क्योंकि कांग्रेस सरकार ने अपनी कुटिल नीतियों से चीन के प्रभाव को कम करने वाले लोगों को या तो दबा दिया, या फिर रास्ते से ही हटवा दिया। 2010 में राजा बीरेंद्र के खास माने जाने वाले जनरल विवेक शाह ने अपनी पुस्तक में बताया कि कैसे नई दिल्ली राजशाही का विरोध करने वाले माओवादी गुट को आर्म्स ट्रेनिंग दिया करती थी।
पर कांग्रेस की यह कुटिल नीति केवल नेपाल के परिप्रेक्ष्य तक सीमित नहीं है। 2017 में जब भूटान के डोकलाम पठार में चीन अपनी दादागिरी दिखा रहा था, और भारतीय सैनिक मुंहतोड़ जवाब दे रहे थे, तो राहुल गांधी ने ऐसे विषम परिस्थिति में भी चीनी राजदूत के साथ गुप्त बैठक की।
कांग्रेस किसी भी हालत में चीन के साथ अपने संबंध नहीं खराब करना चाहती है। आज दुनिया का लगभग हर देश चीन के खिलाफ दिखाई दे रहा है लेकिन, कांग्रेस को इससे फर्क नहीं पड़ता है, उसे तो बस अपने हितों को देखना है। जो गलती जवाहरलाल नेहरू ने हिन्दी चीनी भाई भाई कर की थी और 1962 में लद्दाख के अकसाई चीन को गंवा दिया था वही कांग्रेस आज भी मानती आ रही है। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि कांग्रेस को आज भी केवल अपने हितों की पूर्ति से मतलब है, राष्ट्रीय सुरक्षा और अखंडता जाए तेल लेने।