ताइवान- यह सिर्फ एक छोटा लोकतान्त्रिक देश ही नहीं है, बल्कि यह चीन की वह कमजोर नब्ज़ है जिसे अगर कोई देश छूता है, तो चीन तुरंत उछलना शुरू कर देता है। कोरोना के समय इस छोटे से देश ने जो कर दिखाया है, उसे करने में बड़े-बड़े देशों के पसीने छूट गए हैं। इस देश ने सिर्फ अपने यहाँ कोरोना को काबू किया, बल्कि भारत समेत दुनिया के कई देशों को मेडिकल सप्लाई भी भेजी।
हालांकि, चीन द्वारा शुरू से ही इस देश को दबाया जाता रहा है। WHO में भी चीन इस देश को सदस्य के तौर पर शामिल करने का विरोध करता रहा है। इस मामले पर अब ताइवान ने भारत की सहायता मांगी है। द हिन्दू के साथ एक interview में ताइवान के विदेश मंत्री ने भारत सरकार ने कोरोना के समय द्विपक्षीय बातचीत को आसान करने के लिए एक communication channel स्थापित करने की मांग की है।
ताइवान के विदेश मंत्री जोसेफ़ वू के मुताबिक WHO द्वारा ताइवान को लेकर रुख बेहद निराशाजनक रहा है, और WHO की वजह से ही ताइवान कोरोना से जुड़ी जानकारी को शुरू में दुनिया तक नहीं पहुंचा पाया। ताइवान के विदेश मंत्री ने भारत से ऐसे समय में अनुरोध किया है जब इस महीने के आखिर में भारत को WHO में एक निर्णायक भूमिका मिलने वाली है। ऐसे में भारत WHO में ताइवान की सदस्यता का समर्थन कर सकता है, और कम से कम ताइवान के समर्थन में संकेत देने चाहिए।
कोरोना के समय में चीन ने जहां दुनिया को अंधकार में रखा, ताइवान ने सबसे पहले WHO के साथ जानकारी साझा की। चीन ने दुनियाभर में नकली मेडिकल सामान बेचा, तो वहीं ताइवान ने दुनियाभर में मेडिकल सप्लाई दान की। चीन अब आधी दुनिया को धमकाता फिर रहा है, तो ऐसे समय में ताइवान सब देशों का कूटनीतिक समर्थन हासिल करने की कोशिश कर रहा है। अब समय आ गया है कि भारत को पंचशील समझौते को कूड़े की ढेर में फेंककर ताइवान को एक देश के तौर पर मान्यता दे देनी चाहिए और वहाँ पर diplomatic mission की स्थापना भी कर देनी चाहिए।
चीन ताइवान को लेकर शुरू से ही बेहद संवेदनशील रहा है। इसी को लेकर वर्ष 1954 में भारत और चीन के बीच जो पंचशील समझौता हुआ था, तो उसमें इस बात पर दोनों देशों ने सहमति जताई थी कि वे एक दूसरे के आंतरिक मामलों में दखलंदाज़ी नहीं करेंगे। तभी से भारत आधिकारिक तौर पर ‘एक-चीन’ की नीति का पालन करता आया है। हालांकि, जब भी भारत ताइवान के साथ अपने रिश्ते बढ़ाने की पहल करता है, तो चीन को इससे भारी तकलीफ पहुंचती है। भारत ने 1950 में Taiwan से द्विपक्षीय संबंधों को ख़त्म करते हुए पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना को स्वीकार किया था, यानि आज़ादी के बाद से ही भारत ताइवान को लेकर चीन पर नर्म रहा है। लेकिन क्या चीन अब भी भारत के इस नर्म रुख का हकदार है।
अब जब चीन कश्मीर के मुद्दे पर खुलकर भारत को आँख दिखाता है, अब जब चीन खुलकर UNSC में पाकिस्तान की भाषा बोलता है, अब जब चीन लद्दाख और सिक्किम में खुलकर भारतीय सैनिकों को धमकाता है, अब जब चीन खुलकर भारत की समुंद्री सीमा में घुसपैठ करता है, अब जब चीन भारत को नकली मेडिकल सप्लाई बेचकर सीना जोरी करता है, अब भी भारत को तथाकथित “एकपक्षीय” पंचशील समझौते का ढिंढोरा पीटने की ज़रूरत है, कतई नहीं!
वर्ष 2014 में जब भारत में मोदी सरकार बनी, तो ताइवान को यह आशा हुई थी कि अब भारत के साथ उसके द्विपक्षीय संबंध मजबूत हो सकेंगे। ताइवान ने भारत में मोदी सरकार बनने का स्वागत किया था। उसके बाद मोदी सरकार ने भी वर्ष 2017 में दिसंबर महीने में ताइवान की सरकार के साथ एक memorandum पर हस्ताक्षर किए थे, जिससे चीन पूरी तरह बौखला गया था। चीन के सरकारी अख़बारों ने इस समझौते को लेकर भारत को चेताया था।
ग्लोबल टाइम्स ने लिखा था कि भारत ताइवान के मामले में आग से खेल रहा है। ग्लोबल टाइम्स ने लिखा था-
”हालांकि ताइवान का सवाल कोई सरकारी स्तर का मुद्दा नहीं है. कुछ भारतीय लगातार मोदी सरकार को सलाह दे रहे हैं कि वो Taiwan कार्ड का इस्तेमाल करे और वन चाइना पॉलिसी के मामले में चीन से फ़ायदा उठाए। यह समझ आर्थिक मसलों से आगे की है और भारत-चीन संबंधों के लिए ख़तरनाक साबित हो सकता है। दरअसल ताइवान कार्ड को खेलते हुए भारतीय भूल जाते हैं कि वो ख़ुद कई संवेदनशील मुद्दों से जूझ रहे हैं। भारत को यह ख़्याल रखना चाहिए कि वन चाइना पॉलिसी की लकीर को वो पार कर इसका वहन नहीं कर सकता है।”
अब समय आ गया है कि भारत और भी ज़्यादा “इस आग” के साथ खेले। भारत को ना सिर्फ ताइवान को एक अलग देश के तौर पर मान्यता दे देनी चाहिए, बल्कि ताइवान के साथ खुलकर ट्रेड डील और डिफेंस डील भी करनी चाहिए। हाल ही में फ्रांस ने भी ताइवान के साथ frigates को लेकर करार किया है, जिससे चीन पूरा चिढ़ा हुआ है। अब भारत को भी ठीक ऐसा ही करने की ज़रूरत है। यही समय की मांग भी है।
भारत ने इसकी शुरुआत भी कर दी है। दरअसल, भारत सरकार चीनी कंपनीयों द्वारा FPI निवेश को लेकर बनाए जा रहे नए कानूनों के दायरे से ताइवान को बाहर रखने जा रही है। यानि भारत मेनलैंड चाइना के लोगों को भारत में निवेश करने से रोकेगी, लेकिन ताइवान के लोगों पर निवेश से संबन्धित कड़े कानून लागू नहीं होंगे। यह पहली बार होगा जब केंद्र सरकार वन चाइना पॉलिसी को कूड़े के ढेर में फेंककर ताइवान के समर्थन में यह बड़ा सांकेतिक कदम उठाएगी। भविष्य में भी सरकार द्वारा ऐसे ही कदम उठाए जाने की ज़रूरत है, तभी चीन की अक्ल ठिकाने आएगी।