इतिहास की कई ऐसी घटनाएँ होती हैं जिस पर विश्व उस वक्त तो आँख बंद कर लेता है परंतु कुछ दशक बीतने के बाद वही घटना एक ऐसी गलती बन कर सामने आती है जिसे सुधारना कठिन हो जाता। ऐसी ही घटनाओं में से एक घटना पर आज सभी की नजर जा रही है और सभी ताकतवर देश उसे सुधारना चाहते हैं। यह घटना है 70 वर्ष पूर्व चीन द्वारा तिब्बत के हड़पने की, जब चीन ने विस्तारवादी नीति के तहत तिब्बत पर चढ़ाई की थी तब किसी देश ने विरोध तक नहीं किया था। परंतु आज चीन ने जिस तरह से दुनिया में कोरोना का आतंक मचाया है उससे अब सभी देश चीन पर दबाव बनाने के लिए अपनी इस गलती को सुधारना चाहते हैं।
इसी गलती को सुधारने के लिए अमेरिका सबसे आगे आया है और सांसद Scott Perry ने तिब्बत को एक अलग देश घोषित करने के लिए अमेरिकी संसद में बिल पेश किया है। अगर यह अमेरिकी संसद में पारित हो जाता है तो एक ऐतिहासिक भूल को सुधारने की दिशा में एक बड़ा कदम समझा जाएगा। इसमें कोई संदेह नहीं है कि अमेरिका के इस कदम से चीन आगबबूला हो जाएगा लेकिन इससे पश्चिम के ताकतवर देशों की 70 वर्ष पहले की गयी भूल सुधरेगी।
यह तिब्बत के लिए एक अच्छी खबर है क्योंकि आज जिस तरह से ताइवान चीन के चंगुल से अलग होने के मुहाने पर खड़ा है और हाँग-काँग में प्रदर्शन को अंतर्राष्ट्रीय कवरेज मिल रही है, वैसी तिब्बत को कभी नहीं मिली। इन दोनों क्षेत्रों की तुलना में तिब्बत की ओर कोई ध्यान नहीं देता, न ही अंतर्राष्ट्रीय मीडिया और न ही ताकतवर देश।
बता दें कि सदियों से विश्व से कटे रहने के बाद जब 1949 में चीन का गृह युद्ध समाप्त हो चुका था, माओ चीन के नेता बन चुके थे तब विश्व चीन की मदद करने की सोच रहा था, लेकिन इस देश की नजर आस-पास के सभी इलाकों को हथियाने की थी। इसी मंशा से माओ ने उसी वर्ष तिब्बत पर चढ़ाई कर दी। 10 वर्ष बाद 1959 में इस क्षेत्र को माओ जेडोंग ने अपने नेतृत्व में तिब्बत को चीन में मिला लिया।
वर्ष 1959 के मार्च में, तिब्बती लोगों के आध्यात्मिक और राजनीतिक प्रमुख दलाई लामा ने चीन के डर से भारत के हिमाचल प्रदेश में शहर धर्मशाला में शरण की मांग की और निर्वासित तिब्बती सरकार की स्थापना की। दलाई लामा के इस कदम से चीन की भारत के प्रति नाराजगी कई गुना बढ़ गयी। चीन ने इसके बाद तिब्बत में जो अत्याचार किया वह किसी दर्दनाक कहानी से कम नहीं है। वर्ष 1958 से 1962 तक चीन ने सांस्कृतिक क्रांति के नाम पर 10 लाख से अधिक तिब्बत के लोगों का कत्लेआम किया और 6 हजार से अधिक बौद्ध मोनेस्ट्रिज या मठों को तहस नहस किया। चीनी कब्जे के बाद से, तिब्बत ने 1958 से 1962 तक के रूप में अकल्पनीय अत्याचारों का सामना किया है।
वर्ष 1960 से चीन की सरकार ने तिब्बत की डेमोग्राफी बदलने के लिए लाखों Han Chinese को उस क्षेत्र में भेजा जिससे वे वहाँ के तिब्बती लोगों के साथ विवाह कर परिवार बसा लें। यह जनसांख्यिकीय अधिग्रहण भी तिब्बत का चीन में एकीकरण के नाम पर किया गया था।
चीन के इस दमनकरी नीति का विरोध करने के लिए कई तिब्बती भिक्षु सामने आए और आत्मदाह करने की कोशिश की लेकिन चीन की कम्युनिस्ट सत्ता पर उसका कोई असर नहीं हुआ। इसके उलट कई विरोध करने वाले भिक्षुयों को कुचल दिया गया या गायब करवा दिया गया जिसके बाद वे फिर कभी भी लौट कर नहीं आए। उस क्षेत्र में चीन ने जबरन गर्भपात, नसबंदी और शिशु हत्या जैसे कुकृत्यों को अंजाम दिया।
अमेरिकी थिंक-टैंक फ्रीडम हाउस ने तो तिब्बत को स्वतंत्रता के लिए दुनिया का सबसे खराब स्थान बताया था। यही नहीं चीन ने जब 1995 में तिब्बती बौद्ध धर्म के दूसरे सबसे अहम व्यक्ति एन पंचेन लामा को छह साल की उम्र में अपने क़ब्ज़े में लिया तब उन्हें दुनिया का सबसे युवा राजनीतिक बंदी कहा गया था। चौबीस साल बाद भी उन्हें देखा नहीं गया है।
आज चीन के तिब्बत पर आक्रमण के 70 वर्ष हो चुके हैं लेकिन किसी भी देश ने चीन के खिलाफ बोलने की हिम्मत नहीं दिखाई। आज जब चीन कोरोना के साथ साथ अन्य मामलों को भी विश्व से झूठ बोल रहा है। अब चीन पर दबाव बनाना है तो पश्चिमी देशों को अपनी भूल का ऐहसास हुआ हो रहा और वे अब तिब्बत की मदद करना चाहते हैं।
तिब्बत को उसके बुरे वक्त में भारत ने मदद तो की पर वह काफी नहीं था। भारत ने हिमाचल प्रदेश में निर्वासित तिब्बती सरकार की स्थापना करके बहुत हद तक मदद की है। लेकिन चीन ने वर्ष 1962 के युद्ध के बाद भारत के कमजोर स्थिति में होने का फायदा उठाया। और तिब्बत पर अपने अत्याचार को बढ़ा दिया था।
आज विश्व को अपनी गलती का एहसास हो चुका है और और वह चीन को सबक सिखाने के लिए कर्रवाई करना शुरू कर चुके हैं।