भारतीय जनमानस की धारणा बड़ी विचित्र है। कई धारणाएं पल भर में बदलती हैं और कई धारणाएं युगों युगों तक यथावत रहती है। जब भी पिछड़े राज्यों की बात आती है, तो अनायास ही अधिकांश भारतीयों के मुख से उत्तर प्रदेश और बिहार का नाम निकल ही आता है। अराजकता, बेरोजगारी और अपराध दर के मामले में इन दोनों राज्यों का नाम अक्सर ही सामने आया है।
दोनों राज्य दशकों तक दो घरानों के बीच जकड़ा रहा
परन्तु अब यह स्थिति अब बहुत जल्द बदलने वाली है। अब उत्तर प्रदेश बिहार के साथ नहीं गिना जाएगा, अपितु बिहार को प्रगति के पथ पर मीलों पीछे छोड़ देगा। हालांकि यह राह इतनी भी आसान नहीं थी। उत्तर प्रदेश और बिहार की दुर्गति के पीछे प्रमुख कारण था सत्ता में काबिज बेहद सुस्त नेतृत्व, जो वर्षों तक वोट बैंक पॉलिटिक्स और समाजवाद के जीर्ण शीर्ण हो चुके विचारधारा की बैसाखी पकड़ अपना शासन चला रहे थे। 2017 तक उत्तर प्रदेश में कभी मायावती के बहुजन समाज पार्टी, तो कभी यादव परिवार के समाजवादी पार्टी का शासन था, तो वहीं बिहार में सत्ता की बागडोर लालू यादव के राजद पार्टी और नीतीश कुमार के जेडीयू पार्टी के हाथों में रहती है।
योगी ने बीमार यूपी को उबारा-
दोनों राज्यों में कानून व्यवस्था, शिक्षा, व्यापार इत्यादि ठेंगे पर रखा जाता था। परन्तु 2017 में योगी आदित्यनाथ जी ने उत्तर प्रदेश की कमान क्या संभाली, मानो उत्तर प्रदेश का कायाकल्प प्रारंभ हो गया। उत्तर प्रदेश ने योगी सरकार के कुशल नेतृत्व में काफी कुछ प्राप्त किया है। 2017 में ही उन्होंने प्रदेश को ढाई लाख करोड़ रुपए की निवेश योजनाएं प्रदान की।
इसके अलावा बुनियादी सुविधाओं और इंफ्रास्ट्रक्चर को सुधारने हेतु योगी सरकार ने कई व्यापक कदम उठाए। चाहे एक्सप्रेसवे का निर्माण हो, या फिर कानून व्यवस्था को दुरुस्त करना, ऐसा कोई क्षेत्र नहीं जहां योगी सरकार ने झंडे ना गाड़े हों। कभी बीमारू राज्यों की श्रेणी में भी निम्नतम स्थान पर रहे यूपी आज देश के सबसे प्रगतिशील राज्यों में शामिल होने के लिए एड़ी चोटी का जोर लगा रहा है।
लालू के जंगल राज के बाद नीतीश का साइलेंट जंगल राज
पर बिहार की कथा तो कुछ और ही है। नीतीश कुमार ने भले ही लालू यादव के जंगल राज को कुछ हद तक नियंत्रित किया हो, परन्तु बिहार के आर्थिक प्रगति से उनका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। 2000 में जब से बिहार राज्य बिहार और झारखंड में विघटित हुई, तब से बिहार की आर्थिक प्रगति रसातल में ही रही है।
बिहार में निवेश का मॉडल आकर्षक तो बिल्कुल भी नहीं रहा है। बिहार में औद्योगिक निवेश प्रोमोशन पॉलिसी 2016 में जाकर लॉन्च हुई थी, और अब तक केवल 14,855 करोड़ का ही निवेश प्रस्ताव राज्य को प्राप्त हुआ है.
राज्य में निवेश तभी होगा जब केंद्र से बिहार को स्पेशल स्टेटस मिलेगा- नीतीश
नीतीश कुमार तो बिहार के औद्योगिकरण के लिए कुछ नहीं करते और उल्टा वे कहते हैं कि जब तक बिहार को स्पेशल स्टेटस केंद्र सरकार की ओर से नहीं मिलता, तब तक बिहार में निजी निवेश संभव ही नहीं है। ये तो वही बात हो गई भैय्या, ना नौ मन तेल होगा ना राधा नाचेगी.
योगी सरकार विदेशी निवेशकों को आकर्षित करने में सबसे अव्वल
उधर उत्तर प्रदेश के वर्तमान प्रशासन ने जिस तरह से राज्य का कायाकल्प किया है, वह अपने आप में काबिले तारीफ है। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ना सिर्फ वैश्विक निवेशक समिट का आयोजन करते हैं, अपितु वुहान वायरस के कारण चीन छोड़ने को विवश हो रही विदेशी कम्पनियों को यूपी की ओर आकर्षित करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर भी लगा रहे हैं।
कोरोना से लड़ने में भी यूपी सरकार के इर्द-गिर्द भी नहीं है बिहार सरकार
अब बात वुहान वायरस की छिड़ ही गई है, तो लगे हाथों दोनों राज्यों की स्वास्थ्य व्यवस्था पर भी बात कर लेते हैं। इस महामारी ने बिहार और उत्तर प्रदेश के बीच के अंतर को और स्पष्ट किया है। जहां एक ओर योगी आदित्यनाथ की सरकार विषम परिस्थितियों के बावजूद अपने अनोखी शैली में इस बीमारी से लड़ रही है, तो वहीं बिहार में स्वास्थ्य व्यवस्था लगभग रामभरोसे है। हो भी क्यों ना, उत्तर प्रदेश ने उस जापानी बुखार को काफी हद तक नियंत्रण में कर लिया है, जिससे बिहार आज भी कोरोना काल में तंग है।
वैसे भी, जो राज्य सभी प्रकार के संसाधनों से सम्पन्न होने के बावजूद अपने कुल बजट का मात्र कुछ 3 प्रतिशत ही स्वास्थ्य पर खर्च करे, उससे और क्या आशा की जा सकती है।
उत्तर प्रदेश की योगी सरकार जहां एक ओर पिछड़ेपन की हर एक निशानी को मिटाने के लिए दिन रात एक की हुई है, तो वहीं बिहार एक अकुशल नेतृत्व के कारण जस का तस पड़ा हुआ है। कभी बिहार और उत्तर प्रदेश को एक ही श्रेणी में गिना जाता था, परन्तु अब उत्तर प्रदेश बिहार को मीलों पीछे छोड़ने के लिए तैयार है।