चीन के BRI और वुहान वायरस की छीछालेदर के कारण जो दुनिया में उसके विरुद्ध आक्रोश फैला हुआ है. दुनिया चीन को नकार रही है और इससे जो जगह खाली हो रही है उसका फायदा लेने में भारत और रूस कोई मौका नहीं गंवाना चाहते.
हाल ही में भारत और रूस की कम्पनियों ने ट्रांस कॉन्टिनेंटल इंफ्रास्ट्रक्चर को मजबूत बनाने के उद्देश्य से एक MOU पर हस्ताक्षर किया है। भारत के रेलवे मंत्रालय के अंतर्गत आने वाली मिनीरत्ना कम्पनी Ircon International Limited ने MoU पर रूसी रेलवे कम्पनी के अन्तर्गत आने वाली ZD International LLC के साथ हस्ताक्षर किया है। इससे एशिया, अफ्रीका और लैटिन अमेरिका में रेलवे और अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर डेवलपमेंट के द्वार भी खुल जाएंगे।
इस MOU के अन्तर्गत दोनों देशों ने साझा तौर पर एक मजबूत साझेदारी के अन्तर्गत ना केवल, बल्कि अन्य देशों में भी रेल प्रोजेक्ट्स का क्रियान्वयन करने और अन्य इंफ्रास्ट्रक्चर का सुचारू निर्माण करने को हामी भरी है।
इसके ऊपर अपने विचार व्यक्त करते हुए IRCON के अध्यक्ष एवं मैनेजिंग डायरेक्टर एसके चौधरी बताते हैं-
“IRCON सदैव उन कम्पनियों के साथ साझेदारी करने के बारे में सोचती है, जो हमारे एक्सपर्टीज से लाभान्वित हो सकें। ये MOU इसी दिशा में एक लम्बी साझेदारी की नींव रखेगा और हमें अनेकों देश में अपनी सेवाएं प्रदान करने का अवसर भी देगा।“
इस एक निर्णय से भारत एक तीर से दो निशाने वाला काम कर रहा है। एक ओर जहां भारत अपना वैश्विक प्रभाव और सुदृढ़ करेगा, तो वहीं दुनिया के सामने यह भी सिद्ध करेगा की चीन के BRI के अलावा भी विकल्प हैं।
वुहान वायरस के कारण संसार वैसे ही चीन और उसके BRI से चिढ़ा हुआ है। जिस तरह से इटली और ईरान ने चीन के इस एजेंडे का दुष्प्रभाव झेला है, उससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि इस महामारी के पश्चात चीन दुनिया के अधिकतम देशों के लिए अछूत बन जाएगा।
चीन ने बाकी देशों में अपनी छवि कितनी खराब की है, इसका अंदाजा आप इसके कर्ज़ के मायाजाल से ही लगा सकते हैं। कहते हैं कि दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है, वही अब श्रीलंका, मालदीव के साथ हो रहा है।
श्रीलंका चीन के महत्वकांक्षी प्रोजेक्ट BRI का हिस्सा बनकर यह भलि-भांति देख चुका है कि चीन के साथ साझेदारी करना किसी देश को कितना भारी पड़ सकता है। यही कारण है कि अब श्रीलंका ना सिर्फ खुशी-खुशी भारत की ओर से दी जाने वाली मदद को स्वीकार कर रहा है, बल्कि सहायता मांगने के लिए भारत के पास ही आया है।
अप्रैल की शुरुआत में भारत ने कोलंबो में 10 टन की राहत सामाग्री भेजी थी, जिसमें ज़रूरी दवा और अन्य मेडिकल सप्लाई शामिल थी। रोचक बात यह है कि China भी इससे पहले श्रीलंका को राहत सामग्री भेज चुका है। चीन ने मार्च महीने में श्रीलंका को 50 हज़ार मास्क और 1000 टेस्टिंग किट्स भेजी थी, परंतु यह श्रीलंका को लुभाने के लिए किसी काम नहीं आया।
ऐसा इसलिए क्योंकि श्रीलंका पहले भी चीन के साथ अपनी दोस्ती को भुगत चुका है। उदाहरण के तौर पर चीन ने श्रीलंका को हंबनटोटा पोर्ट को विकसित करने के लिए पहले तो भारी-भरकम लोन दिया, और बाद में जब श्रीलंका उस लोन को चुका पाने में असफल हुआ तो चीन ने उसी पोर्ट को 99 वर्षों के लिए लीज़ पर ले लिया। जब तक श्रीलंका चीन के इस जाल को समझ पाता, तब तक काफी देर हो चुकी थी। एक वक्त में श्रीलंका की अर्थव्यवस्था को चीन ने हाइजैक कर लिया था। श्रीलंका अब नहीं चाहता कि ऐसा दोबारा हो।
इतना ही नहीं, चीन की हेकड़ी अब अफ्रीका ने स्वीकारना बंद कर दिया है। अफ्रीका में पहले BRI और फिर कोरोना के कारण पहले ही चीन विरोधी मानसिकता पनप रही थी, वहीं चीन में लगातार हो रहे अफ्रीकी लोगों पर हमलों ने इस मानसिकता को और ज़्यादा बढ़ा दिया, जिसके परिणामस्वरूप अफ्रीका ने अब चीन को आड़े हाथों लेने की ठान ली है, वहीं यूरोप और अमेरिका अभी भी सिर्फ मौखिक रूप से बयान देने के अलावा कुछ करने की स्थिति में नहीं दिखाई दे रहे हैं।
कोरोना काल में सिर्फ तंजानिया ही नहीं है जिसने चीन को बड़ा झटका दिया हो, बल्कि एक पश्चिमी अफ्रीकी देश गिनी भी अपने यहाँ चीन के नागरिकों को बंदी बनाकर चीन को शॉक दे चुका है।
पिछले महीने मीडिया रिपोर्ट्स के अनुसार गिनी की सरकार चीन में अफ्रीका के नागरिकों के साथ हो रहे बुरे व्यवहार से परेशान आ चुकी थी, और इसीलिए उसने अपने नागरिकों की सकुशल घर वापसी तक इन चीनी नागरिकों को बंदी बनाने का फैसला लिया।
इससे पहले हमें केन्या में भी यह देखने को मिल चुका है। चीन के अत्याचारों के जवाब में केन्या के एक सांसद ने केन्या में मौजूद सभी चीनी नागरिकों को तुरंत देश छोड़ने के लिए कह दिया था। चीन में अफ्रीका के लोगों की पिटाई की videos पर प्रतिक्रिया देते हुए केन्या के सांसद मोसेस कुरिया ने कहा था-
“सभी चीनी नागरिकों को हमारे देश से चले जाना चाहिए, वो भी तुरंत! जो वायरस तुमने वुहान की लैब में बनाया, उसके लिए तुम अफ्रीका के लोगों को दोष कैसे दे सकते हो? जाओ अभी निकलो”।
तब और भी कई सांसदों ने केन्या के इस सांसद का समर्थन किया था। केन्याई सांसद चार्ल्स जगुआ ने मोसेस का समर्थन करते हुए फेसबुक पर लिखा था–
“अफ्रीकन लोगों के साथ चीन में जो हो रहा है, मैं उसकी निंदा करता हूं। मैं केन्या के लोगों से यह कहने से पीछे नहीं हटूंगा कि बाइबल का अनुसरण करते हुए उन्हें आंख दिखाने वालों को पलटकर आंख दिखाने से पीछे नहीं हटना चाहिए”।
ऐसे में भारत ने बेहद सही समय पर ये निर्णय लिया है, क्योंकि नई दिल्ली अच्छी तरह से जानती है कि चीन की नीयत सही नहीं है। जिस तरह से चीन नेपाल और पाकिस्तान के रास्ते भारत को घेरना चाहता है, उससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि वह अपनी बादशाहत कायम रखने के लिए किसी भी हद तक जा सकता है। ऐसे में मोदी सरकार ने ये MOU पर हस्ताक्षर कर ना सिर्फ चीन को खुली चुनौती दी है, अपितु विश्व के समक्ष एक बेहतर विकल्प भी पेश किया है।