जानें कैसे कम्युनिस्ट जिनपिंग ने अपने शासनकाल में पूरे चीन की बर्बादी लिख दी!

माओ के बाद चीन की बर्बादी लिखने वाला नेता!

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एक वायरस, सिर्फ एक वायरस संसार की रीति और नीति दोनों बदल सकता है। वुहान वायरस ने इस बात को सच साबित किया है। बड़े से बड़ा देश भी इसके सामने नहीं टिक पाया है। लेकिन इस महामारी ने यदि किसी को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है, तो वह है चीन, जहां से यह महामारी उत्पन्न हुई थी।

इसमें कोई दो राय नहीं है कि बतौर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का कार्यकाल बेहद उतार-चढ़ाव भरा रहा है। चाहे हॉन्ग कॉन्ग में लोकतंत्र समर्थक प्रदर्शन में भयंकर आक्रोश बढ़ने की बात हो, या फिर ताइवान के स्वतंत्रता आंदोलन और उसके लिए बढ़ता वैश्विक समर्थन हो, या फिर वुहान वायरस से निपटने में चीनी प्रशासन की अक्षमता ही क्यों ना हो, इतिहास शी जिनपिंग को इस बात के लिए हमेशा याद रखेगा कि उसने कम्युनिस्ट चीन के विध्वंस की नींव रखी।

जब से शी जिनपिंग ने 2013 में सत्ता संभाली है, तभी से पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना को अनेक मुसीबतों का सामना करना पड़ा है। कुछ समय पहले तक चीन वैश्विक विकास में सबसे आगे चल रहा था, पर अब वह दिन मानों बहुत दूर चले गए हों।

यूं तो कम्युनिस्ट चीन की स्थापना 1949 में हुई थी, पर वैश्विक फैक्ट्री के स्टेटस की नींव पड़ी 1977 में, जब डेंग शाओपिंग ने चीन की अर्थव्यवस्था का उदारीकरण किया। उस समय पश्चिमी देशों के पास लेबर की बहुत भारी कमी थी, और चीन ने मौके पर चौका लगाते हुए विश्व को चीन में निवेश करने का सुनहरा अवसर प्रदान किया। सब कुछ बढ़िया चल रहा था, और एक समय पर चीन विश्व की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बन चुका था, पर तभी आगमन हुआ शी जिनपिंग का।

उइगर अत्याचार, हॉन्ग कॉन्ग में दमन

चीन में मीडिया की स्वतंत्रता और मानवाधिकार तो वैसे भी कोई मायने नहीं रखता, परन्तु शी जिनपिंग के नेतृत्व में स्थिति बद से बदतर हो गई। Uighur समुदाय पर अत्याचार हो, होंग कोंग में लोकतंत्र की मांग कर रहे प्रदर्शनकारियों पर पुलिस द्वारा की गई बर्बरता हो, या फिर ताइवान में स्वतंत्रता आंदोलन को कुचलने का प्रयास हो, आप बस बोलते जाइए और जिनपिंग महोदय ने वो सब कुछ किया है, जिससे चीन की छवि में जबरदस्त गिरावट हो।

इसके अलावा बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव जैसे कार्यक्रमों से जिंगपिंग प्रशासन ने जिस तरह से कर्ज़ का मायाजाल बिछाया, उसमें फंसकर ना सिर्फ कई देश तबाह हुए, बल्कि वुहान वायरस से भी उनको काफी नुकसान झेलना पड़ा था।

जिनपिंग ने तानाशाही चलाने के लिए संविधान में बदलाव कर डाला

जब शी जिनपिंग ने मेड इन चाइना से narrative को बदलकर कल्ट बिल्डिंग पर ध्यान केंद्रित किया, तभी लोगों को समझ जाना चाहिए था कि यह व्यक्ति वास्तव में क्या चाहता है। 2017 में जब CCP के केंद्रीय कमेटी ने शी जिनपिंग के विचारों को चीनी संविधान का हिस्सा बनाया, तब उसी समय स्पष्ट हो गया था कि जनाब को माओ त्से तुंग की भांति चीन का तानाशाह बनना है.

इसके साथ-साथ वुहान वायरस पर शी जिनपिंग के प्रशासन की चुप्पी और उसके लचर व्यवस्था ने आग में घी का काम किया। वुहान वायरस के कारण उत्पन्न आर्थिक संकट की स्थिति ने कई बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देशों के साथ तनाव पैदा कर दिया और इसी तनाव के कारण सभी देश चीन को ग्लोबल सप्लाइ चेन से बाहर करने का प्लान भी बना चुके हैं।

अभी 30 अप्रैल को अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोम्पियो ने भी यह कहा था कि अमेरिका, भारत, ऑस्ट्रेलिया, जापान और वियतनाम जैसे देशों के साथ मिलकर काम कर रहा है, ताकि सप्लाई चेन को दुरुस्त किया जा सके।

प्रेस कॉन्फ्रेंस करते हुए पोम्पियो ने कहा था–

हम चाहते हैं कि जल्द से जल्द वैश्विक सप्लाई चेन दुरुस्त हो और हम सभी देश अपनी पूरी क्षमता पर काम कर सकें, ताकि किसी भी देश के सामने दोबारा कभी ऐसी स्थिति पेश न हो। इसका एक उदाहरण हमें भारत में देखने को मिला जब भारत ने कोविड के मरीजों के उपचार के संबंध में ज़रूरी दवाइयों के एक्सपोर्ट पर से बैन हटाकर उन्हें दुनियाभर में एक्सपोर्ट किया।

जापान की कंपनियां भी चीन छोड़कर भाग रही हैं

इसी कड़ी में जापान का अपनी कंपनियों को चीन से बाहर आने के लिए कहना और अमेरिकी कंपनियों का चीन छोड़कर भारत में अपना प्रोडक्शन शिफ्ट करना यह दर्शाता है कि अब दुनिया चीन को ग्लोबल सप्लाई चेन से दूर कर रही है। जापान कोरोना से पहले तक चीन से 148 बिलियन डॉलर का इम्पोर्ट करता था, लेकिन अब जापान अपनी कंपनियों को चीन से बाहर जापान या फिर किसी अन्य देश में जाने को कह रहा है, जिसके बाद यहाँ से भी चीन वैश्विक सप्लाई चेन से कट जाएगा।

यही नहीं, शी जिनपिंग के नेतृत्व में भारत चीन संबंध एक बार फिर से रसातल में गए हैं। 2017 में चीनी गुंडई का जवाब देने के लिए भारत को डोकलाम में आक्रामक रुख अपनाना पड़ा था। इसके अलावा जिस तरह से भारत की क्षेत्रीय अखंडता में आए दिन चीन दखल देता आया है, उसने भारत के सामने कोई और विकल्प तो मानो छोड़ा ही नहीं है।

ताइवान के पक्ष में खुलकर आ रहा है भारत

इसीलिए पिछले काफी समय से केंद्र सरकार यह संकेत दे रही है कि भारत सरकार ताइवान को लेकर अपने आधिकारिक रुख में बड़ा बदलाव कर सकती है। हाल ही में भारत ने अवसरवादी चीनी निवेश से देश की कंपनियों को बचाने के लिए FDI संबन्धित नियमों में जो बदलाव किए थे, और चीन पर जो प्रतिबंध लगाए गए थे, उनसे Taiwan को बाहर रखा गया था। ऐसा करके भारत ने पहली बार वन चाइना पॉलिसी को कूड़े के ढेर में फेंका था। इसके साथ ही अभी खबर आई थी कि ताइवान की राष्ट्रपति के दूसरे शपथ ग्रहण समारोह में भाजपा की दिग्गज नेता व सांसद मिनाक्षी लेखी शामिल हुई थीं, जिस पर चीन को भयंकर मिर्ची लगी थी.

इस बार ताइवान को मान्यता देकर भारत चीन के गाल पर एक करारा कूटनीतिक तमाचा जड़ सकता है। चीन पहले ही भारत की सीमा पर तनाव बढ़ाकर भारत को आंखें दिखा रहा है। कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक चीन ना सिर्फ भारत के राज्य सिक्किम में घुसपैठ कर रहा है, बल्कि चीन के हजारों सैनिक लद्दाख क्षेत्र में भारतीय ज़मीन पर अपने तम्बू गाड़ने में लगे हैं।

चीनी गुंडई के जवाब में सेना तैनात, सड़कें बन रही हैं

भारतीय सेना भी चीनी गुंडई का जवाब अपने तरीके से दे रही है. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक भारतीय सेना ने भी अपनी तैनाती बढ़ा दी है. इसके साथ ही सड़क निर्माण कार्य भी तेजी से चल रहा है. कुल मिलाकर चीन को उसकी गुंडई का माकूल जवाब भारत की ओर से मिल रहा है.

ताइवान को लेकर चीन बेहद संवेदनशील है. ऐसा माना जाता है कि ताइवान चीन के गर्दन के समान है और इसे छूने भर से ही चीन बौखला जाता है. ऐसे में भारत को अब पंचशील सिद्धांत और वन चाइना पॉलिसी कूड़े में फेंककर सीधे उसकी दुखती रग पर हाथ रखने की जरूरत है जिससे चीन को उसकी औकात पता चले.

सच कहें तो शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन का वास्तविक रूप सबके सामने आ चुका है। ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं होगी यदि आने वाले वर्षों में कम्यूनिज्म का नामोनिशान मिट जाए, जिसके लिए केवल एक व्यक्ति उत्तरदाई होगा – शी जिनपिंग।

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