जॉर्ज ऑरवेल ने एक परिप्रेक्ष्य में सही कहा था, “छल कपट और बर्बरता के इस युग में जो सत्य कहे, उससे बड़ा क्रांतिकारी कोई नहीं”। ये बात सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय पर बिलकुल सटीक बैठती है, जहां सुप्रीम कोर्ट ने कुछ राजनीतिक पार्टियों की दलीलों को ठुकराते हुए स्पष्ट बताया की आरक्षण कोई मूलभूत अधिकार नहीं है।
एक वर्चुअल सुनवाई के दौरान तमिलनाडु के मेडिकल कॉलेज में ओबीसी के लिए 50 प्रतिशत आरक्षण के लिए प्रावधान करने की मांग की गई थी, जिसे सुप्रीम कोर्ट ने सिरे से नकार दिया। जस्टिस एल नागेश्वर राव ने स्पष्ट कहा, “आरक्षण का अधिकार कोई मूलभूत अधिकार नहीं है। आप ये पेटीशन खुद वापिस लेंगे, या फिर हम ये काम करें आपके लिए?”
दरअसल याचिका इस बात पर डाली गई थी कि तमिलनाडु के राज्य कानून के हिसाब से NEET परीक्षा में ओबीसी जाति को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया जाये। इस निर्णय पर जस्टिस एल नागेश्वर राव के अलावा जस्टिस कृष्ण मुरारी और जस्टिस एस रवीन्द्र भट ने विचार किया था। इस याचिका को डीएमके, सत्ताधारी एआईएडीएमके, सीपीआईएम, सीपीआई और काँग्रेस पार्टी ने मिलकर दायर किया था। इसपर अपनी हैरानी जताते हुए जस्टिस राव ने बोला, “कमाल है। तमिलनाडु में नीट के आरक्षण प्रावधानों को लेकर लगभग सभी राजनीतिक पार्टी एक साथ है” –
The Supreme Court on Thursday refused to entertain a batch of pleas seeking to restrain the Centre from proceeding with all India counselling for UG and PG medical courses, without implementing 50% OBC reservation in Tamil Nadu.
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बचाव में जब पार्टियों का प्रतिनिधित्व कर रहे एक अधिवक्ता ने कहा कि इससे पहले भी ऐसा हो चुका है, तो उसपर जस्टिस राव ने तुरंत उत्तर दिया, “तमिलनाडु में तो आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ है।”परंतु बात वहीं पर नहीं रुकी। जब सुनवाई के दौरान एक अधिवक्ता ने इस बात का हवाला दिया कि ये मुद्दा मूलभूत अधिकार के अंतर्गत आता है, तो सुप्रीम कोर्ट में उपस्थित न्यायपीठ ने उसके दलीलों की धज्जियां उड़ाते हुए पूछा कि आखिर किस आधार पर उन्होने यह दलील मूलभूत अधिकार के अंतर्गत डाली है। कोर्ट ने बोला, “यहाँ किसके मूलभूत अधिकारों के साथ छेड़छाड़ हुई है? हमें लगा कि आपको सभी नागरिकों के मूलभूत अधिकारों की चिंता है।”
इसके अलावा कोर्ट ने याचिककर्ताओं को हाई कोर्ट जाने का सुझाव भी दिया, क्योंकि इस मामले पर सुप्रीम कोर्ट को अभी टिप्पणी देने की कोई आवश्यकता नहीं। फिलहाल डीएमके ने हाई कोर्ट में अपील दायर की है।
जिस उद्देश्य से आरक्षण लागू किया गया था, वो शायद ही कभी पूरा हुआ है। उल्टे आरक्षण के नाम पर सामाजिक भेदभाव की एक ऐसी व्यवस्था को बढ़ावा दिया गया है, जो कभी भी किसी भी जाति का शोषण कर सकती है, और उसके विरुद्ध आवाज़ उठाने वालों को हर प्रकार की पीड़ा सहनी पड़ती है। परंतु यह पहला ऐसा मामला नहीं है जहां पर किसी प्रशासनिक व्यवस्था ने यह कड़वा सच बोलने का साहस किया हो। इससे पहले जब सरकार ने आईआईएम में शिक्षकों की भर्ती में आरक्षण को लागू करने का सुझाव दिया था, तो आईआईएम ने इसे सिरे से नकार दिया।
देश के 20 इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट (आईआईएम) संस्थानों ने मानव संसाधन विकास (एचआरडी) मंत्रालय से अपने संस्थानों में शिक्षकों की नियुक्ति को आरक्षण के दायरे से बाहर रखने का अनुरोध किया था। देश के सर्वश्रेष्ठ प्रबंधन संस्थानों में शामिल आईआईएम में शिक्षकों की नियुक्ति में आरक्षण नहीं दिया जाता है। पिछले वर्ष नवंबर माह में एचआरडी मंत्रालय ने इन संस्थानों में आरक्षण लागू करने को कहा था।
ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने एक बेहद साहसिक निर्णय लेते हुए आरक्षण के दुष्परिणामों को रेखांकित किया है, और इससे एक बार फिर जनता का न्यायपालिका में विश्वास मजबूत होने की आशा है। इसके साथ ही इस मामले से यह भी सामने आता है कि कैसे देश की राजनीतिक पार्टियां आरक्षण को अपनी राजनीतिक रोटी सेकने के लिए इस्तेमाल करती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे लोगों की धज्जियां उड़ाकर देश को एक सकारात्मक संदेश भेजा है।