एक तरफ जहां चीन दुनिया से नकारा जा रहा है तो दूसरी तरफ, वह पहले से नकारे जा चुके देशों के साथ अपने संबंधो को और घनिष्ठ कर बड़े स्तर पर निवेश की योजना बना रहा है। एक नए खुलासे में चीन ने अमेरिका के प्रतिबंधों की मार झेल रहे ईरान के साथ अपनी दोस्ती बढ़ा कर एक ऐसे समझौते पर साइन किया है जिससे जियोपॉलिटिक्स में एक भूचाल आने वाला है। इस डील से न सिर्फ खाड़ी देशों में शक्ति परिवर्तन हो सकता है, बल्कि भारत द्वारा विकसित किया जा रहे चाहबार बन्दरगाह को भी नुकसान होगा। यानि एक तरह से देखा जाए तो ईरान अमेरिका के प्रतिबंधों का बदला चीन के साथ दोस्ती कर ले रहा है।
दरअसल, पिछले वर्ष अगस्त में, ईरान के विदेश मंत्री मोहम्मद ज़रीफ़ ने अपने चीन के समकक्ष, वांग ली से मुलाक़ात की थी। इसमें वर्ष 2016 में हस्ताक्षरित एक समझौते पर आधारित 25-वर्ष की चीन-ईरान रणनीतिक साझेदारी को लेकर एक रोडमैप प्रस्तुत किया गया था। इस समझौते को दुनिया से गुप्त रखा गया था, लेकिन अब oilprice.com ने अपनी एक रिपोर्ट में इस समझौते का खुलासा किया है। इस पोर्टल के अनुसार चीन अब इस समझौते के साथ न सिर्फ आगे बढ़ रहा है, बल्कि इसमें सैन्य साझेदारी को भी जोड़ रहा है जिसका वैश्विक सुरक्षा पर भयंकर असर होगा। इस समझौते में रूस भी शामिल है।
पिछले साल हस्ताक्षरित इस सौदे के अनुसार चीन ईरान के तेल, गैस और पेट्रोकेमिकल क्षेत्रों को विकसित करने में 280 बिलियन अमेरिकी डॉलर का निवेश करेगा। यही नहीं चीन ईरान में 120 बिलियन अमेरिकी डॉलर का एक और निवेश करेगा, जिसे फिर से ईरान के परिवहन और मैन्युफैक्चरिंग इंफ्रास्ट्रक्चर को अपग्रेड करने में इस्तेमाल किया जाएगा।
इसके बदले में चीनी कंपनियों को ईरान में किसी भी नए या अधूरे – तेल, गैस और पेट्रोकेमिकल परियोजनाओं पर बोली लगाने का पहला विकल्प दिया जाएगा। यही नहीं चीन ईरान के किसी भी तेल, गैस उत्पादों को 12 प्रतिशत के न्यूनतम गारंटी की छूट पर खरीद सकता है। सिर्फ़ इतना ही नहीं, बल्कि चीन को किसी भी पेमेंट में दो वर्ष की देरी करने का भी अधिकार मिल जाएगा।
यानि निवेश को देख कर यह कहा जा सकता है कि ईरान अमेरिका के प्रतिबंधों से परेशान हो कर चीन को अपनी आत्मा तक बेचने के लिए तैयार है। इस समझौते से चीन ईरान के मुख्य बुनियादी ढांचे के निर्माण में भी शामिल हो जाएगा, जो चीन के OBOR का ही एक हिस्सा होगा। ईरान अन्य देशों को कर्ज जाल में डूबते हुए देख रहा है फिर भी वह अपने आप को चीन के उसी जाल के हवाले कर रहा है।
Oilprice.com के अनुसार खाड़ी देशों में भू-राजनीतिक शक्ति के पूरे संतुलन को बदलने वाले एक अन्य तत्व यानि सैन्य साझेदारी को इस सौदे में जोड़ा गया है।
इसके अनुसार ईरान और चीन के बीच पूर्णरूप से हवाई और नौसैनिक सैन्य सहयोग शामिल होगा। इसके साथ ही इस मिलिटरी साझेदारी में रूस भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। OilPrice.com के अनुसार ईरान और उनके चीनी तथा रूसी समकक्षों के बीच अगस्त के दूसरे सप्ताह में एक बैठक निर्धारित है, जिसमें अन्य मामलों पर सहमति बनाई जाएगी। अगर सहमति बन गयी तो 9 नवंबर से ही चीन और रूस के बमवर्षक विमान, सेना और परिवहन विमानों को ईरानी हवाई अड्डों पर अप्रतिबंधित पहुंच मिल जाएगी।
यह प्रक्रिया Hamedan, Bandar Abbas, Chabhar, और Abadan, में मौजूदा हवाई अड्डों के उपयोग के साथ शुरू होगी। OilPrice.com के अनुसार चीन, रूसी बमवर्षक विमान Tupolev Tu-22M3s का चीनी संस्कारण तैनात करेगा जिसकी रेंज 6 हजार किलोमीटर है। इसके साथ ही इन हवाई अड्डो पर Sukhoi Su-34 और Sukhoi-57 भी तैनात किए जाएंगे।
हवाई अड्डो के साथ-साथ चीनी और रूसी सैन्य युद्ध पोत चीनी कंपनियों द्वारा निर्मित चाबहार, बंदर-ए-बुशहर, और बंदर अब्बास में ईरान के प्रमुख बंदरगाहों की सुविधाओं का उपयोग करने में सक्षम होंगे।
चीन और रूसी fighter jets तथा युद्धपोतों की तैनाती से न सिर्फ शक्ति संतुलन बिगड़ेगा, बल्कि भारत को भी भारी नुकसान हो सकता है। भारत ने ईरान के चाबहार बंदरगाह में बड़े स्तर में निवेश किया है और यह बन्दरगाह चीन पर नजर बनाए रखने की दृष्टि से बेहद अहम है। चीन पहले से ही पाकिस्तान के ग्वादर पोर्ट पर अपने पाँव जमा चुका है और अब ईरान के इस डील से चाहबार पोर्ट पर भी उसकी मौजूदगी बढ़ जाएगी। ऐसी स्थिति में चीन किसी भी समय एशिया में रणनीतिक संतुलन के लिए बड़ी चुनौती बन सकता है।
यहाँ यह समझना मुश्किल नहीं है कि आखिर क्यों ईरान, चीन और रूस के सामने अपने आप को नतमस्तक कर रहा है। दोनों देश UNSC के स्थायी सदस्य है और इन दोनों के पास UNSC के कुल स्थायी सदस्य वोटों के 2/5 हिस्सा है। ईरान इन दोनों को ही अपने पाले में करना चाहता है जिससे वो अमेरिका और उसके साथी देशों को टक्कर दे सके और अपने ऊपर प्रतिबद्धों को और न बढ़ने दे। इस समर्थन और चीन द्वारा दिए गए 400 बिलियन अमेरिकी डॉलर के निवेश के अलावा, ईरान का अपने देश में इस तरह के चीनी (और रूसी) प्रभाव के लिए सहमत होने का दूसरा कारण यह है कि चीन ने गारंटी दी है कि वह तेल लेना जारी रखेगा। गैस, और पेट्रोलियम उत्पाद की बिक्री ईरान की आवश्यकता है। इसी पर ईरान की अर्थव्यवस्था टिकी है और वह किसी भी स्थिति में अमेरिका के प्रतिबंधों को नाकाम करना चाहता है चाहे उसके लिए उसे अपनी आत्मा ही क्यों न बेचनी पड़े। यह समझौता विश्व के लिए कितना घातक होगा यह तो समय ही बताएगा, क्योंकि यह 3 ऐसे देशों के बीच हुआ है जो Rogue Nation कहे जाते हैं।