गहलोत की सत्ता की भूख काफी पुरानी रही है, 1990 के बाद से वे कई बड़े नेताओं को हज़म कर चुके हैं

सचिन पायलट भी उन्हीं में से एक हैं

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राजस्थान के सियासी ड्रामे के बीच सचिन पायलट अभी भी कांग्रेस में ही हैं। 13 जुलाई यानि कल रात 9 बजे कांग्रेस के नेता रणदीप सुरजेवाला ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में दावा किया कि पार्टी को 109 विधायकों का समर्थन हासिल है। साथ ही उन्होंने यह भी बताया कि 14 जुलाई की सुबह 10 बजे फिर से कांग्रेस विधायक दल की बैठक होगी।

बता दें कि अशोक गहलोत सरकार को बहुमत साबित करने के लिए 101 विधायकों की ही जरूरत है और सभी नेताओं ने अशोक गहलोत को फिर से अपना नेता चुना। ऐसे में मौजूदा परिस्थिति को देखते हुए राज्य की कांग्रेस सरकार को कोई खतरा नहीं दिख रहा है।

यानि देखा जाए तो सचिन पायलट का अशोक गहलोत पर दबाव बनाने और अपनी बात मनवाने के लिए लिए बगावती रुख उन्हीं पर भारी पड़ गया है। सचिन पायलट ने दावा किया था कि उनके पास 25 विधायक हैं, लेकिन गहलोत ने विधायक दल की बैठक में 100 से अधिक विधायकों को अपने पाले में कर यह बता दिया है सचिन पायलट को अभी राजनीति में बहुत कुछ सीखना है। गहलोत को सत्ता से बेदखल करने में सचिन पायलट तो सफल नहीं हो सके परंतु इसके उलट पायलट के सियासी भविष्य पर प्रश्न चिन्ह लग चुका है। अब सचिन पायलट न तो कांग्रेस में उस नजर से देखे जाएंगे जैसे पहले देखे जाते थे और न ही उनकी अब वह हैसियत रहने वाली है।

जादूगर अशोक गहलोत ने एक बार फिर से साबित कर दिया है कि जब बात राजनीतिक दांवपेंच की तो उनसे बड़ा कोई खिलाड़ी नहीं है। सचिन पायलट पहले ऐसे नेता नहीं हैं जिन्हें गहलोत से टक्कर के कारण नुकसान उठाना पड़ा है।

इससे पहले राजस्थान की राजनीति में गहलोत ने हरिदेव जोशी, परसराम मदेरणा, नटवर सिंह, शिवचरण माथुर और सीपी जोशी तमाम कांग्रेसी नेताओं को सियासी दांव पेंच में चारो खाने चित कर उनके राजनीतिक करियर पर पर ही ग्रहण लगा दिया है। 

राजस्थान में गुर्जर आरक्षण आंदोलन के नेता किरोड़ी सिंह बैंसला ने एक बार उनके बारे में कहा था, ‘गहलोत काफी सजग नेता हैं. इतने सजग कि उन्‍हें कोई दूध पिलाने की कोशिश करे तो वह उसका पहला घूंट किसी बिल्ली को पिलाए बिना खुद नहीं पिएंगे।’

जिस तरह से अशोक गहलोत ने राजनीति की सीढ़ियाँ चढ़ी हैं उससे देख कर यह बात बिल्कुल सत्य लगेगी।

90 के दशक से ही अशोक गहलोत राजनीति में ऐसी कलाबाजियां करते आ रहे हैं। तब राजस्थान कांग्रेस में हरिदेव जोशी, परसराम मदेरणा, शिवचरण माथुर जैसे दिग्गज नेता कांग्रेस की कमान संभाल रहे थे। परसराम मदेरणा राजस्थान कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में कार्य कर रहे थे परंतु 1993 के चुनावों में कांग्रेस की करारी हार हुई। अशोक गहलोत ने सबसे पहले राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री हरिदेव जोशी के साथ मिलकर परसराम मदेरणा को राजस्थान कांग्रेस के पद से हटाया और स्वयं कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष बन गए। कहा जाता है कि कभी परसराम मदेरणा ने हरिदेव जोशी का कांग्रेस के अंदर ही तख़्ता पलट किया था शायद इसी रंजिश का अशोक गहलोत ने फ़ायदा उठाया।

परसराम मदेरणा तथा नटवर सिंह

अब बारी थी कांग्रेस को विधानसभा चुनावों में जीत दिला कर मुख्यमंत्री पद की दावेदारी कर बाकी नेताओं को शिकस्त देने की। अगले विधानसभा चुनाव यानि वर्ष 1998 में राजस्थान के अंदर जाट आंदोलन शुरू हो चुके थे। उस दौरान अशोक गहलोत ने खूब रैलियाँ की और कांग्रेस को 200 में से 153 सीटों पर जीत दिला दी। इससे अशोक गहलोत की रणनीति और कुशल चुनाव प्रबंधन की तारीफ़ें दिल्ली तक शोर करने लगी। परंतु मुख्यमंत्री पद अभी भी उनकी पहुंच से दूर था क्योंकि इस पद के कई और दावेदार थे। परसराम मदेरणा को जाटो का समर्थन प्राप्त था तो नटवर सिंह भी जाट थे इसके अलावा गांधी परिवार के करीबी भी थे। तब तक कांग्रेस के केंद्रीय हाई कमान में भी परिवर्तन आ चुका था और सोनिया गांधी कांग्रेस की सर्वोसर्वा बन गयी थीं।

तभी गहलोत ने अपनी सियासी चालबाजी का परिचय देते हुए हाई कमान में अपनी गोटियां सेट की और खुद को सीएम का सबसे उपयुक्त दावेदार के रूप में पेश किया।

तब विधायक दल के नेता का चुनाव करने के लिए माधव राव सिंधिया के अलावा गुलाब नबी आजाद, मोहसिना किदवई और बलराम जाखड़ को भेजा गया था। औपचारिक बैठक से पहले, सभी MLA के विचारों को एक-एक कर सुना गया और उन्हें मैडम का फरमान सुनाया गया। ऐसे में गहलोत की बाजी और मैडम की इक्छा परसराम मदेरणा पर भारी पड़ी और औपचारिक बैठक में अशोक गहलोत को विधायक दल का नेता चुना गया।

पत्रकार रशीद किदवई का कहना था कि

‘गहलोत को कुर्सी सौंपना सोचा-समझा राजनीतिक फैसला था। सोनिया कांग्रेस में अपनी पकड़ मजबूत कर रही थीं। ऐसे में राजस्थान में प्रभावशाली जाति के प्रभावशाली नेता का सीएम की कुर्सी पर होना, आगे चलकर खतरा साबित हो सकता था। ऐसे में मदेरणा का पत्ता कटना ही था।’

सीपी जोशी तथा महिपाल मदेरणा

इसके बाद वर्ष 2008 में भी कुछ इसी तरह माहौल बना था। तब प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सीपी जोशी थे और उन्होंने मेहनत कर तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा के खिलाफ माहौल बना दिया था, जिससे कांग्रेस को 2008 के विधानसभा चुनावों में जीत हासिल हुई थी। परंतु हैरानी की बात तो यह है कि वह स्वयं चुनाव एक वोट से हार गए थे। कहा जाता है कि उनकी इस हार में अशोक गहलोत का ही हाथ था। उस दौरान महिपाल मदेरणा ने भी मुख्यमंत्री पद की दावेदारी पेश की, लेकिन फिर से अशोक गहलोत को मुख्यमंत्री बनाया गया। हालांकि, सीपी जोशी और महिपाल मदेरणा ने गहलोत के खिलाफ मोर्चा खोल दिया परंतु उन्हें नहीं पता था कि गहलोत किस मिट्टी के बने हुए है। नतीजा यह हुआ कि सीपी जोशी राजस्थान क्रिकेट एसोसिएशन में भ्रष्टाचार के एक मामले फंस गए और महिपाल मदेरणा भंवरी देवी कांड में फंसे और जेल चले गए। इन दोनों का राजस्थान की सियासी गलियारों में वजूद  ही मिट गया।

सचिन पायलट

इसके बाद वर्ष 2013 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की हार हुई और एक बार फिर से गहलोत केंद्र की राजनीति में चले गए। तब सचिन पायलट को कांग्रेस की कमान दी गयी। सचिन ने भी सीपी जोशी की तरह ही खूब मेहनत की और कांग्रेस को दोबारा मुक़ाबले के लिए तैयार कर दिया। हालांकि, गहलोत फिर से राज्य की राजनीति में वापसी के लिए बेताब थे और टिकट बँटवारे में दखलंदाजी करने लगे। सचिन पायलट और उनके बीच की सियासी तनातनी उसी समय की है। उस दौरान भी जब राहुल गांधी ने सचिन पायलट को टिकट बँटवारे में खुली छुट दी तब गहलोत ने चाल चलते हुए अपने 11 नेताओं को निर्दलीय चुनाव लड़वा दिया। यही नहीं अपने करीबी राष्ट्रीय लोक दल के सुभाष गर्ग को भी टिकट दिलाकर जीत दीलवाई। जब परिणाम आए तो कांग्रेस बहुमत से 1 सीट दूर थी ऐसे में अशोक गहलोत ने निर्दलीय और राष्ट्रीय लोक दल की एक सीट से अपने दावे को और मजबूत किया जिससे कांग्रेस की आलाकमान को उन्हें मुख्यमंत्री पद सौपना ही पड़ा। सचिन पायलट को उप मुख्यमंत्री बनया गया। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि अशोक गहलोत यही नहीं रुके बल्कि ऐसा जाल बिछाया कि सचिन पायलट बगावत पर उतर आए और अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली।

अशोक गहलोत एक बार फिर से राजनीति के जादूगर साबित हुए और अपने विरोधी नेता को ऐसी पटखनी दी कि उसे फिर से अपनी जमीन पाने में वर्षों लग जाएंगे।

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