“साम, दंड और भेद नीति” फेल होने के बाद चीन “दाम” के तहत भारत को अक्साई चिन सौंप सकता है

भारत के साथ रिश्ते सुधारने का चीन के पास एक ही रास्ता है

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(PC: CNN)

चीन अपनी औपनिवेशिक मानसिकता के लिए विश्व भर में बदनाम है। वह अपने शत्रु पर विजयी होने के लिए कुछ भी करने को तैयार है, और अगर पिछले कुछ वर्षों में उसके कारनामों का लेखा जोखा देखें, तो चीन अपने विरोधियों को कुचलने के लिए साम, दाम, दण्ड, भेद वाली नीति अपनाने के लिए उद्यत रहता है।

उदाहरण के लिए भारत को ही देख लीजिये। जब से वुहान वायरस ने दुनिया में उत्पात मचाया है, चीन दुनियाभर में अपने कम होते प्रभाव को लेकर चिंतित हो गया है। और वह ये भी जानता है कि भारत जल्द ही चीन द्वारा रिक्त की हुई जगह ले सकता है। इसलिए चीन भारत को दबाने के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार था, परंतु उसके द्वारा उठाए गए कदम उसी पर भारी पड़े हैं।

साम, दाम, दंड, भेद की नीति के तहत भारत के खिलाफ सर्वप्रथम चीन ने भेद नीति अपनाई, यानि भारत को अपने ही क्षेत्र अर्थात भारतीय उपमहाद्वीप में अलग थलग कर देने का पूरा प्रयास किया। इसके लिए चीन ने अपनी कुख्यात स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स नीति के अंतर्गत पहले मालदीव में, और फिर श्रीलंका में अपने कर्ज़ के मायाजाल से भारत विरोधी तत्वों को बढ़ावा दिया। परंतु जल्द ही दोनों देशों को आभास हो गया कि चीन उनके कंधे पर बंदूक रख कर भारत पर निशाना साधना चाहता है, और अंत में उन्ही का नुकसान होगा। इसीलिए उन्होने चीन को ठेंगा दिखाकर पुनः भारत को समर्थन देना प्रारम्भ किया।

इसमें काफी हद तक सत्ता परिवर्तन की बहुत बड़ी भूमिका थी, क्योंकि मालदीव और श्रीलंका के वर्तमान राष्ट्राध्यक्ष से पहले सत्ता संभालने वाले लोग मूल रूप से चीन की जी हुज़ूरी में विश्वास रखते थे। ऐसे में अभी भले ही नेपाल भारत के हाथों से फिसलता हुआ दिखाई दे, परंतु यदि केपी शर्मा ओली की सरकार गिरी, तो पासा पलटने में देर नहीं लगेगी।

भेद नीति में असफल होने की आशंका को देखते हुए चीन ने दण्ड नीति अपनाई। इसकी नींव तो 2017 में ही पड़ चुकी थी, जब भूटान के डोकलाम पठार के रास्ते चीन ने भारत के खिलाफ आक्रामकता दिखाने की नींव स्थापित करने का प्रयास किया। परंतु भारत अब पहले जैसा बिलकुल भी नहीं था, और भारतीय सेना ने चीन की हेकड़ी का मुंहतोड़ जवाब दिया।

जब लद्दाख के गलवान घाटी पर चीन ने दावा ठोंका, और वहाँ पर सेनाओं के साथ शस्त्रों और हवाई जहाज़ को भी तैनात करना शुरू किया, तो भारत ने भी चीन को उसी की भाषा में जवाब दिया। चीन ने गलवान घाटी में अवैध कब्जा हटाने गए भारतीय टुकड़ी पर जब हमला करने का प्रयास किया, तो वो दांव भी उल्टा पड़ा, और अब स्थिति यह है कि चीन अपने ही हताहतों की वास्तविक संख्या साझा करने  से मना कर रहा है। अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारना तो कोई ड्रैगन से ही सीखे।

जब भेद और दण्ड की नीति, दोनों ही फ्लॉप हो गयी, तो चीन ने साम नीति का सहारा लेना चाहा। गलवान घाटी मामले के बाद से वह दुनिया को ऐसे जताने लगा, मानो अमन और शांति का उससे बड़ा मसीहा कोई है ही नहीं। गलवान घाटी में हुई हिंसक झड़प के पश्चात चीन हर तरह से दुनिया को यह समझाने का प्रयास कर रहा है कि भारत अधिक आक्रामक है, और उसने पहले हमला किया था। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि दुनिया के कानों पर जूँ नहीं रेंग रही है, क्योंकि अधिकतर देशों ने चीन के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया है। रही सही कसर तो भारतवासियों ने चीनी उत्पादों के बहिष्कार का आह्वान करके पूरी कर दी है।

ऐसे में अब चीन के पास एक ही नीति बचती है, दाम की। अब आप पूछेंगे कि भला ऐसी क्या कीमत है, जो चीन को चुकानी पड़ सकती है? यदि चीन वास्तव में भारत के साथ मधुर सम्बन्धों का हितैषी है, और वह चाहता है कि भारत और चीन के बीच बॉर्डर पर तनातनी फिर कभी न हो, तो उसे केवल अपने कब्जे में आने वाले अक्साई चिन पर अपना दावा छोड़कर उसे भारत को सौंपना चाहिए। यदि वो ऐसा करता है तो न केवल भारत के साथ उसके संबंध सुधरेंगे, अपितु विश्व में भी उसकी छवि सुधरेंगी। अक्साई चिन पर वैसे भी भारत का ही अधिकार है। ऐसे में चीन के पास भारत के साथ रिश्ते बेहतर करने का एक बढ़िया मौका है-वह है अक्साई  चिन को वापस भारत को सौंपने का!

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