श्रीराम मन्दिर केवल एक मंदिर नहीं बल्कि हिन्दू पुनर्जागरण का प्रथम पद है

हिन्दू जाग रहा है, हिन्दू लड़ रहा है- राममंदिर निर्माण इसका सबसे बड़ा सबूत है

अयोध्या कहाँ स्थित है, कैसे पहुंचे, रात्रि विश्राम एवं भोजन की व्यवस्था?

(PC: New Indian Express)

5 अगस्त एक बार फिर से एक ऐतिहासिक निर्णय का साक्षी बनने जा रहा है। पिछले वर्ष इसी दिन, नाग पंचमी के शुभ अवसर पर केंद्र सरकार ने जम्मू कश्मीर से न केवल अनुच्छेद 370 के विशेषाधिकार निरस्त किए, अपितु लद्दाख को एक स्वायत्त, केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा भी दिलाया। अब इसी दिन, इस वर्ष, पीएम नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में अयोध्या में श्री राम जन्मभूमि मन्दिर के पुनर्निर्माण को प्रारम्भ किया जाएगा, जब अयोध्या में भूमि पूजन समारोह का आयोजन होगा।

इस कार्यक्रम में पीएम नरेंद्र मोदी स्वयं भाग लेंगे, और वे 21 किलो वजन के शुद्ध चांदी की ईंट भी प्रतीकात्मक तौर पर भूमि पूजन समारोह के लिए भेंट करेंगे। पीएम मोदी के अलावा लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, आरएसएस सरसंघचालक मोहन भागवत, एवं मुकेश अंबानी जैसे लोग इस कार्यक्रम में शामिल होंगे। 1950 के दशक में सोमनाथ मन्दिर के जीर्णोद्धार के पश्चात ये दूसरा ऐसा अवसर है जब भारत की एक सांस्कृतिक धरोहर को मान सम्मान के साथ पुनर्स्थापित किया जाएगा।

सत्य कहें तो श्रीराम जन्मभूमि राम मन्दिर का पुनर्निर्माण भारत के लिए एक अभूतपूर्व सांस्कृतिक विजय है। जिस प्रकार से सोमनाथ मन्दिर का पुनर्निर्माण भारत के मान सम्मान के लिए बहुत आवश्यक था, उसी प्रकार से श्रीराम जन्मभूमि मंदिर का पुनर्निर्माण भारत की आन बान और शान के लिए अति आवश्यक है। इस शुभ दिन के लिए हमारे पूर्वजों और असंख्य भारतीयों ने जो बलिदान दिये हैं, उसके बारे में जितना बोलें, उतना कम पड़ेगा।

भारत पर निस्संदेह अनेकों आक्रमण हुए, चाहे वह हूणों द्वारा किया गया हो, यूनान के यवन हो, अरबी आक्रांता हो, तुर्की, या फिर मुगल ही क्यों न हो, लेकिन श्री राम जन्मभूमि परिसर को जिस तरह से ध्वस्त किया गया, उसकी कोई तुलना नहीं की जा सकती। बाबरी मस्जिद बनने के चार सौ वर्ष तक किसी को भी उक्त स्थल पर पूजा करने का अधिकार तक नहीं था, पर इस परंपरा को 1949 के आसपास तोड़ा गया, जब परिसर में रामलला की मूर्ति स्थापित की गई। अब बाबरी मस्जिद का विध्वंस उचित था या नहीं, इसपे अलग से वाद विवाद किया जा सकता है, परंतु इस बात को कतई नहीं झुठलाया जा सकता कि श्रीराम जन्मभूमि राम मन्दिर का पुनर्निर्माण न केवल सनातन संस्कृति के लिए एक अभूतपूर्व विजय है, बल्कि विदेशी आक्रांताओं के भारतीय चाटुकारों के मुख पर एक करारे तमाचे के समान भी है।

लेकिन ये राह इतनी सरल भी नहीं थी। 1980 के दशक में जब सनातन संस्कृति के पुनरुत्थान के लिए विभिन्न हिन्दू राष्ट्रवादी संगठनों ने राष्ट्रव्यापी अभियान चलाया, तो उन संगठनों को सत्ता में आसीन वामपंथी बुद्धिजीवी न जाने कैसे कैसे अपमानित करते रहते थे। जब रामानन्द सागर की विश्व प्रसिद्ध टीवी सीरियल रामायण को दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया था, तो उसके विरुद्ध मोर्चा खोलने में वामपंथियों ने ज़रा भी हिचक नहीं दिखाई। लेकिन उनके प्रयासों से सनातन संस्कृति के पुनरुत्थान का अभियान दबने के बजाए अधिक मुखर और प्रबल हो गया। फिर आया वर्ष सन 1989, जब लालकृष्ण आडवाणी के नेतृत्व में रथ यात्रा प्रारम्भ हुई।

इस रथ यात्रा से ही श्री रामजन्मभूमि मन्दिर को पुनः प्राप्त करने की नींव पड़ी, जिसके लिए 1990 में कोठारी बंधुओं के नेतृत्व में विश्व हिन्दू परिषद और बजरंग दल अयोध्या में कारसेवा के लिए निकल पड़ा। धर्मनिरपेक्षता की आड़ में उत्तर प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव ने वो निर्णय लिया, जिसके लिए आज भी उन्हे हेय की दृष्टि से देखा जाता है। कारसेवकों पर अंधाधुंध गोलियां बरसाई गई, और कश्मीरी पंडितों पर हुए अत्याचार की तरह इन कारसेवकों के नरसंहार की कथा भी कुछ समय के लिए गुमनामी में कहीं खो सी गई थी। कोठारी बंधु भी इसी नरसंहार में हुतात्मा हुए थे, परंतु उनका बलिदान व्यर्थ नहीं गया। 6 दिसंबर 1992 को कारसेवकों के जत्थे ने बाबरी मस्जिद का विध्वंस किया, और फिर प्रारम्भ हुआ श्री राम जन्मभूमि परिसर को पुनः प्राप्त करने का लोकतान्त्रिक और सबसे कठिन अभियान।

भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था कुछ ऐसी रही है कि इसमें सनातन धर्म के अनुयाइयों को अपने अधिकार प्राप्त करने के लिए अक्सर एड़ी चोटी का ज़ोर लगाना पड़ा है, और श्रीरामजन्मभूमि को पुनः प्राप्त करने का अभियान भी कोई आसान बात नहीं थी। विरोधियों के पक्ष में बड़े से बड़े वकील सामने आए, चाहे वह राजीव धवन हो, या फिर कपिल सिब्बल, जिन्होंने मन्दिर के राह में अनेकों रोड़े अटकाए। हद तो तब हो गई, जब वर्ष 2007 में श्री रामसेतु को तोड़ने के लिए काँग्रेस सरकार ने यह दलील दी कि श्री राम तो महज़ कल्पना है, ऐसे में सेतु तोड़कर कोई नुकसान नहीं होगा। रोचक बात तो यह है कि ऐसी दलील पेश करने वाले अधिवक्ताओं में स्वयं कपिल सिब्बल भी शामिल थे, लेकिन सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसे अधिवक्ताओं के समक्ष इनकी एक न चली।

जब वर्ष 2010 में इलाहाबाद हाईकोर्ट ने तीनों पक्ष – श्रीराम जन्मभूमि न्यास, निर्मोही अखाड़ा और मुस्लिम पक्ष के बीच विवादित भूमि को बराबर हिस्सों में बांटा, तो विरोध स्वरूप भक्तों को सुप्रीम कोर्ट का द्वार खटखटाना पड़ा। यहाँ भी चुनौतियाँ कम नहीं थी, और राजीव धवन और कपिल सिब्बल जैसे अधिवक्ता बाधाएँ डालने में कोई कसर नहीं छोड़ रहे थे। लेकिन उनके सामने मानो दीवार की तरह डटके खड़े थे श्रीराम जन्मभूमि न्यास के अधिवक्ता के परासरन, जिन्होंने तब तक साथ नहीं छोड़ा, जब तक उन्होंने मामले को उसके निष्कर्ष तक नहीं पहुंचा दिया। अंत में 9 नवंबर 2019 के शुभ दिन, सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश श्री रंजन गोगोई के नेतृत्व में सर्वसम्मति से न्यायालय की पीठ ने श्रीराम जन्मभूमि न्यास के पक्ष में निर्णय सौंपा, और श्रीराम जन्मभूमि परिसर के पुनर्निर्माण की नींव रखी।

आज जब श्रीराम जन्मभूमि परिसर का पुनर्निर्माण प्रारम्भ होने वाले हैं, तो इसके पीछे कई लोग हैं, जिनके उपकार हम नहीं भूल सकते। लेकिन हम सबसे अधिक आभारी रहेंगे उस सनातन संस्कृति के, जिसने विपरीत परिस्थितियों में भी शत्रु के समक्ष झुकना नहीं सिखाया।

जय श्री राम!

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