अमेरिका और जापान द्वारा चीन के विरुद्ध बनाए गए माहौल का सबसे अधिक फायदा जिन देशों को हुआ है वो हैं, आसियान (दक्षिण पूर्वी एशिया) के देश। इसमें ब्रूनेई, सिंगापुर, मलेशिया, वियतनाम, फिलीपिंस आदि दक्षिण पूर्वी एशियाई देश आते हैं। जब से कोरोना का फैलाव हुआ है, अमेरिका ने अपने देश की कंपनियों को चीन से अपनी मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स को हटाने को कहा है। यही नहीं, जापान पहला ऐसा देश था जिसने अपने देश की उन सभी कंपनियों के लिए, जो अपनी विनिर्माण इकाई को चीन से बाहर ले जाने को तैयार हैं, आर्थिक पैकेज की घोषणा भी की थी।
चीन में बढ़ती आर्थिक असुरक्षा को देखते हुए विश्व की कई बड़ी कंपनियों ने चीन छोड़ने का फैसला कर लिया है। गौतलब है कि, चीन छोड़ने वाली ये कंपनियां अब आसियान देशों का रुख कर रही हैं। जापान से निकलने वाली कंपनियों ने वियतनाम को अपने निवेश के लिए चुना है। हालाँकि यह अकेला उदहारण नहीं है। जब चीन और अमेरिका के बीच ट्रेड वॉर रफ़्तार पकड़ रहा था तब भी आसियान देशों को ही सबसे अधिक फायदा हुआ था।
इसका कारण यह है कि ये देश वैश्विक राजनीति में हो रहे उलटफेर से दूर रहकर सिर्फ आर्थिक लाभ कमाने के लक्ष्य हैं। यही कारण है कि जब से कोरोना का फैलाव हुआ है, लगभग हर बड़े वैश्विक संगठन ने चीन की आलोचना की है सिवाय आसियान के। आसियान का उद्देश्य है कि अमेरिका ग्लोबल सप्लाई चेन से चीन को बाहर करने के जिस अभियान पर लगा है, उससे अधिकाधिक लाभ उठाया जाए। साथ ही चीन के साथ दोस्ताना रुख अपनाने का कारण है चीन का बड़ा मार्केट। आसियान देश आज चीन के मुख्य ट्रेडिंग पार्टनर की सूची में सबसे ऊपर हैं और आसियान ने इस मामले में यूरोपियन यूनियन को भी पीछे छोड़ दिया है
यही नहीं, इन देशों की मिलिट्री ताकत बहुत कम है और ऐसे में चीन की शक्ति का मुकाबला करना इनके लिए संभव नहीं है। चीन जो पहले ही दक्षिणी चीन सागर में इन देशों के लिए मुसीबत बना हुआ है, उसके विरुद्ध कोई भी बयान देना इन देशों के लिए ना तो संभव है और ना ही इनके हित में है।
दरअसल, दक्षिणी चीन सागर में कोई ऐसा देश है ही नहीं जो खुलकर चीन के खिलाफ आवाज़ उठाए। भारत की बात करें तो उसने भी आज तक दक्षिणी चीन सागर में कोई खास दिलचस्पी नहीं दिखाई है। गलवान की घटना के पूर्व भारत और चीन के बीच तमाम सीमा विवादों के बाद भी कोई बड़ी हिंसक झड़प नहीं हुई थी। लेकिन भारत ने आर्थिक मोर्चे पर चीन की घेराबंदी शुरू कर दी थी और देश को मैन्युफैक्चरिंग हब बनाने के लिए कमर कस ली थी। बहार हाल चीन छोड़ने वाली कंपनियां शुरुआत में भारत की जगह आसियान को अपना नया ठिकाना बना रही थीं।
यही कारण था कि, इन देशों ने चुप होकर अपने व्यापारिक हित साधने की नीति अपनाई। लेकिन आज जब दुनिया दो भागों में बंटती दिख रही है, तो आसियान देशों को भी किसी एक निर्णय पर पहुंचना ही होगा। लेकिन आसियान के देश कोई निर्णय तब तक नहीं करेंगे जब तक अमेरिका और भारत जैसे प्रभावशाली खुलकर इस क्षेत्र की राजनीति में हिस्सा नहीं लेते। भारत का भी इन देशों के साथ ऐतिहासिक रिश्ता रहा है। ऐसे में भारत के लिए यह और भी जरुरी है कि वह इन देशों को समर्थन दे। जब तक ऐसा नहीं होता ये देश इसी प्रकार से शांत होकर दोनों और से लाभ कमाते रहेंगे।