कुछ भी कहिए, पर चीन का लॉजिक उसके प्रशासन की तरह जटिल नहीं है। जो उसका शत्रु है, उसे तो अवश्य सताता है, लेकिन जो उस शत्रु का मित्र है, उसे भी चीन को सताना है। हाल ही में इस लॉजिक का प्रत्यक्ष उदाहरण देखने को मिला EU पे, जिसे अब चीन के विरुद्ध आक्रामक रुख अपनाने को विवश होना पड़ा है।
वर्तमान रिपोर्ट्स के अनुसार EU ने पहली बार दो चीनी नागरिकों और एक चीनी कंपनी पर आर्थिक प्रतिबंध लगाए हैं। चीनी नागरिकों के नाम गाओ कियांग एवं शिलोंग जियांग है, जबकि उन्हें आर्थिक सहायता देने वाली कंपनी का नाम है तियांजिन हुआयिंग हाईटाई साइन्स एण्ड टेक्नोलॉजी डेव्लपमेंट। आर्थिक प्रतिबंध में EU के सदस्य देशों में मौजूद सभी सम्पत्तियों को ज़ब्त करना और इन देशों में ट्रैवल प्रतिबंधित करना शामिल है। इसके अलावा EU के सदस्य देशों के साथ किसी भी प्रकार के वित्तीय संबंध स्थापित करना उक्त कंपनी और चीनी नागरिकों के लिए प्रतिबंधित किया गया है।
परंतु EU जैसे संगठन को चीन के विरुद्ध ऐसा निर्णय क्यों लेना पड़ा? इसके पीछे ईयू ने प्रमुख कारण बताया है कि ये निर्णय EU अथवा उसके सदस्य देशों के विरुद्ध किसी भी प्रकार के साइबर हमले के विरुद्ध उठाया गया एक अहम कदम है। इसका अर्थ है कि आरोपियों पर EU के सदस्य देशों का डेटा हैक करने का आरोप लगा था, जिसके कारण अब EU जैसे चाइना समर्थक संगठन को भी चीनी प्रशासन के विरुद्ध आक्रामक रुख अपनाना पड़ा है। EU के अनुसार दोनों आरोपी गाओ और जियांग APT10 हैकिंग ग्रुप के सदस्य थे, जो प्रमुख रूप से EU के बाहर बसे कंपनियों को निशाना बनाते थे।
इन खुलासों से EU और चीन के सम्बन्धों में कभी न पाटी जाने वाली दरार पड़नी तय है। हालांकि, यह पहली बार नहीं है जब जियांग पर ऐसे आरोप लगे हों। 2018 में अमेरिका ने भी इसी व्यक्ति पर मुखबिरी करने का आरोप लगाया था। वहीं दूसरी ओर चीन ने इस निर्णय पर हो हल्ला मचाते हुए कहा कि ऐसे प्रतिबंध अंतर्राष्ट्रीय सहयोग के लिए खतरा हैं।
EU इस समय गुटों में बंटा हुआ है। एक ओर एंजेला मर्केल के नेतृत्व वाला गुट चाहता है कि चीन के साथ EU के संबंध बने रहें, तो दूसरी ओर विरोधी गुट इस प्रस्ताव से कतई सहमत नहीं दिखाई देता। हाल ही में EU के उच्चाधिकारियों में शामिल जोसेप बोर्रेल्ल ने एक ब्लॉग में लिखा, “चीन अपने कद को बढ़ाना चाहता है। ये हम पहले भी देखते थे, लेकिन वुहान वायरस के पश्चात चीन कुछ ज़्यादा ही आक्रामक हो गया है, चाहे वह दक्षिण चीन सागर के परिप्रेक्ष्य में हो या फिर भारत के साथ बॉर्डर विवाद ही क्यों न हो।
परंतु वे वहीं पे नहीं रुके। जोसेप ने आगे बताया, “वर्तमान परिस्थितियों को देखते हुए ये हमारा [EU] कर्तव्य बनता है कि हम लोकतान्त्रिक देशों के साथ अपने संबंध सुदृढ़ बनाएँ, चाहे वह जापान हो, भारत हो, दक्षिण कोरिया हो, ऑस्ट्रेलिया हो, न्यूज़ीलैंड हो, कनाडा हो या फिर कोई और।“
सच कहें तो अब EU भी अपना सब्र धीरे-धीरे खो रहा है। इसकी शुरुआत जून में ही हो चुकी थी, जब यूरोपीय कमिशन की अध्यक्ष उर्सला वॉन डेर लेएन ने चीन को साइबर अटैक के लिए आड़े हाथों लेते हुए कहा, “देखिये, हमने कई प्रकार के साइबर हमले झेले हैं और हम जानते हैं कि इन सबके पीछे किसका हाथ है।“ लेएन ने ये भी दावा किया था कि हमारे पास सभी साक्ष्य उपलब्ध हैं, हमने स्पष्ट रूप से कहा कि ये सब [चीन के साइबर हमले] बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। अप्रत्यक्ष रूप से कहें तो EU की इस आला अफसर ने चीन को पहले ही EU के संभावित कार्रवाई के संकेत दे दिये थे परंतु चीन मानने वालों में से कहाँ?
एंजेला मर्केल द्वारा ट्रम्प को चुनौती देने के ख्वाबों के कारण EU के हाथ कुछ समय के लिए बंधे हुए थे। लेकिन चीन द्वारा निरंतर साइबर हमलों से इतना तो स्पष्ट हो गया है कि अब EU भी बहुत समय तक चीन का साझेदार नहीं बना रह सकता। चीनी हैकरों पर कड़े प्रतिबंधों का अर्थ है कि अब चीन धीरे-धीरे अपने ही फैलाये जाल में फँसता चला जा रहा है और उसे बचाने के लिए कोई भी देश आगे नहीं आएगा।