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“हमें World War से पहले वाली reputation चाहिए”, US को नकारने के पीछे जर्मनी का एक ही मकसद है

जर्मनी वर्ज़न 2.0 की ओर

Animesh Pandey
द्वारा Animesh Pandey
2 अगस्त 2020
in रणनीति
0
एंजेला मर्केल
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अमेरिकी नेतृत्व को नकार कर जर्मनी एक बार फिर वैश्विक समुदाय में अपनी पैठ जमाना चाहता है। जहां समस्त संसार अमेरिका के नेतृत्व में चीन के विरुद्ध मोर्चा संभाल चुका है, तो वहीं एंजेला मर्केल के नेतृत्व में जर्मनी ने अलग ही राह पकड़ी है। जर्मनी ने चीन के विरुद्ध अब तक किसी भी प्रकार का एक्शन लेने से खुद को रोके रखा है, और ऐसा लगता है कि एंजेला मर्केल डोनाल्ड ट्रम्प के प्रभाव से जर्मनी को कोसों दूर रखना चाहती है। परंतु क्या इसका अर्थ यह है कि जर्मनी चीन का ग़ुलाम बन चुका है? शायद नहीं।

 ऐसा इसलिए बोल रहे हैं क्योंकि वर्तमान गतिविधियां इसी ओर इशारा कर रही हैं। जर्मनी ने हाल ही में हाँग काँग के साथ अपने प्रत्यर्पण समझौते को रद्द करते हुए एक स्पष्ट संदेश भेजा है। इस निर्णय से साफ पता चलता है कि जर्मनी का वास्तविक इरादा दोबारा प्रथम विश्व युद्ध से पहले वाला जर्मनी बनने का है, जिसके लिए वह किसी भी हद तक जाने को तैयार है।

जर्मनी के विदेश मंत्री हीको मास के अनुसार, “हाँग काँग सरकार का चुनाव को स्थगित कराना और कई उम्मीदवारों को अयोग्य घोषित करना साफ दर्शाता है कि किस प्रकार से हाँग काँग की जनता के पास अब कोई अधिकार नहीं बचे हैं। इसी घटनाक्रम को ध्यान रखते में रखते हुए हमने हाँग काँग के साथ अपनी प्रत्यर्पण संधि निरस्त की है”।

इससे पहले ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, न्यूज़ीलैंड, यूके और यूएसए ने भी हाँग काँग में चीन द्वारा राष्ट्रीय सुरक्षा कानून थोपे जाने के बाद अपनी प्रत्यर्पण संधि से मुंह मोड़ लिया है। लेकिन जर्मनी ने काफी अलग कारण से हाँग काँग के साथ अपना प्रत्यर्पण संधि रद्द किया है, जिसका चीन द्वारा हाँग काँग के नागरिकों के अधिकार का दमन तो बिलकुल नहीं है।  जहां एक ओर इस निर्णय से जर्मनी ये जताना चाहता है कि वह चीन की गुलाम नहीं है, तो वहीं वह ये भी सिद्ध करना चाहता है कि वे अमेरिकी नेतृत्व में चीन के विरुद्ध मोर्चा नहीं खोलेगा।

इस निर्णय से जर्मनी अपना खोया हुआ वर्चस्व पाना चाहता है, जो कभी 19वीं और 20वीं शताब्दी में उसके पास हुआ करता था। ओट्टो बिस्मार्क के अंतर्गत जर्मनी एक शक्तिशाली देश के रूप में उभरा और 20वीं के शुरुआती दशक तक जर्मनी विश्व के सबसे प्रभावशाली देशों में से एक बन चुका था, जिसकी दिन दूनी-रात चौगुनी प्रगति होती  थी।

लेकिन प्रथम विश्व युद्ध ने उसके वैश्विक महाशक्ति बनने के स्वप्न को बुरी तरह नष्ट कर दिया। हिटलर ने जर्मनी के शासन पर कब्ज़ा कर उस अधूरे सपने को पूरा करने का प्रयास किया, परंतु द्वितीय विश्व युद्ध में हार का सामना करने के बाद जर्मनी 1990 तक दो हिस्सों में विभाजित रहा। अब जर्मनी एक बार फिर से विश्व की महाशक्तियों में शामिल होना चाहता है।

 शायद इसीलिए एंजेला मर्केल डोनाल्ड ट्रम्प के नेतृत्व में चीन के विरुद्ध मोर्चा नहीं खोलना चाहती है, लेकिन सिर्फ यही एक कारण नहीं है। ऐसे कई कारण है जो एंजेला को डोनाल्ड ट्रम्प के अभियान से जुडने से रोक रही है। एक तो जर्मनी के चीन के साथ काफी गहरे व्यापारिक रिश्ते हैं। चीन जर्मनी का सबसे बड़ा ट्रेड पार्टनर है। दोनों के बीच का व्यापार  2019  तक 233 बिलियन अमेरिकी डॉलर का आंकड़ा तक पार कर गया था। मर्केल ने हमेशा इस बात पर ध्यान दिया है कि वह आर्थिक मोर्चे पर चीन को चुनौती न दे, ताकि वह अमेरिका को इस क्षेत्र में नीचा दिखा सके।

इसके अलावा जर्मनी को इस बात का डर है कि चीन के विरुद्ध चल रहे अभियान से यूरोप का महत्व खतरे में आ जाएगा। जर्मनी का डर अनुचित भी नहीं है, क्योंकि NATO के सैनिकों को हाल ही में अमेरिकी प्रशासन ने जर्मनी से बाहर निकलवाया है और इंडो पैसिफिक क्षेत्र में सैन्य बलों की संख्या को दिन-प्रतिदिन बढ़ाया भी जा रहा है। इसीलिए एंजेला मर्केल चाहती है कि चीन के विरुद्ध कोई विशेष कार्रवाई न हो और इसीलिए वह रूस को चीन से बड़ा खतरा सिद्ध करने पर तुली हुई हैं। इससे न सिर्फ EU का महत्व बना रहेगा, अपितु जर्मनी का कद भी बढ़ेगा।

जर्मनी को ऐसा लगता है कि वो ईयू का अध्यक्ष होने के नाते वह उसे बेहतर तरह से संभाल सकता है और इसीलिए उसे हमेशा अपने वर्चस्व के छिनने का भय सताता रहता है। चाहे इसके लिए अमेरिका के विरुद्ध जाना पड़े पर एंजेला मर्केल के अनुसार जर्मनी को अपना भाग्य खुद तय करेगा।

जर्मनी के इस तरह के इरादे कोई हैरानी की बात नहीं है। चूंकि वह EU की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक है।  इसलिए वह अपना कद बढ़ाना चाहता है। बर्लिन का मानना है कि अंतर्राष्ट्रीय समीकरण में आवश्यक नहीं है कि हर दिन एक समान हो और इसीलिए वह अमेरिका के प्रभाव से दूर रहना चाहता है।  परंतु ये आगे चलकर जर्मनी के लिए घातक भी सिद्ध हो सकता है, विशेषकर यदि वह चीन के प्रति अपनी हमदर्दी जल्द खत्म नहीं करता है।

 

Tags: अमेरिकाचीनजर्मनी
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Commerce Student from DAV College, Kanpur. Devoted Student of Shivaji, Chandra Shekhar Azad, Subhas Chandra Bose and now Narendra Modi. Patriot by birth, nationalist and straightforward by choice, and singer/writer by passion. Writing for the Inquilab of intellect, because koi bhi Desh perfect nahin hota, use banana padta hai.

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