जैसे-जैसे बिहार विधानसभा चुनाव पास आ रहे हैं वैसे-वैसे सभी पार्टियां अपने-अपने सहयोगियों के साथ बिहार की जातीय राजनीति के हिसाब से अपनी गोटियाँ सेट करने में जुटी हैं। राष्ट्रीय जनता दल, कांग्रेस, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, अन्य वामपंथी दलों ने मिलकर सभी 243 सीटों पर एकजुट होकर चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है। लेकिन क्या बिहार की जनता के लिए चुनावों के परिणाम अनुकूल होंगे? अगर NDA पूर्ण बहुमत से जीत जाती है तो नितीश कुमार मुख्यमंत्री बनेंगे और अगर RJD का गठबंधन चुनाव जीत जाता है तो संभवतः तेजस्वी महागठबंधन के नेता होंगे। क्या बिहार की जनता फिर से नितीश को या लालू के बेटे तेजस्वी को बिहार की सत्ता सौंपना चाहती है?
एक बिहारी मतदाता होने के नाते मैं ऐसा नहीं मानता हूँ। वर्तमान में बिहार के जो हालात हैं और जो हालात पिछले 30 सालों से ये हालात बनाये गए उसे देख कर इन दोनों में से किसी को भी मुख्यमंत्री पद पर बैठाना बिहार को किसी लैंडमाइन पर बैठाने से कम नहीं होगा।
देखा जाए तो चुनाव में JDU-BJP के गठबंधन और RJD के बीच सीधी टक्कर होने वाली है। इतना तो तय है कि, JDU के खिलाफ anti-incumbency का नुकसान BJP को भी होगा जिसका भरपूर फायदा RJD उठाना चाहेगी। अगर लोग RJD को वोट करते हैं तो बिहार में एक बार फिर जंगलराज आना तय है और अगर नितीश कुमार को वोट देते हैं तो मौजूदा हालातों को देखते हुए भी जंगलराज ही आने की आशंका है।
इसलिए बिहार को विकास की पटरी पर लाने के लिए इन दोनों के अलावा तीसरा विकल्प ही सही होगा। और यह तीसरा विकल्प है Hung Assembly यानी त्रिशंकु विधानसभा। उस स्थिति में निर्दलियों और छोटी पार्टियों की भूमिका काफी बढ़ जाएगी। हालाँकि इससे एक सम्भावना ज़रूर बनेगी कि, पहले से तय मुख्यमंत्री पद के लिए नामित नेता के अलावा भी कोई और मुख्यमंत्री बन सकता है। बिहार की वर्तमान स्थिति को देखते हुए तो यही लग रहा है कि ये तीसरा विकल्प ही सबसे सही होगा। यानि अगर बिहार को बचाना है तो त्रिशंकु विधानसभा लाना है।
बिहार की राजनीति हमेशा से जातिगत आधार पर अधिक निर्भर रही है। लोग बहुधा अपनी जाति के नेता को ही जिताने में विश्वास रखते हैं। जिसे बिहार की राजनीति थोड़ा भी ज्ञान होगा वो यह आसानी से बता सकता है कि, यदि बिहार के दो प्रमुख दल एक साथ आते हैं, तो तीसरे का हारना निश्चित हो जाता है।
बिहार की राजनीति को समझने के लिए वहाँ की जातिगत समीकरणों को समझना बहुत ज़रूरी है। यहाँ, पारंपरिक रूप से मुस्लिम और यादव आरजेडी के लिए वोट करते हैं, कुर्मी जेडी (यू) के लिए, तो वहीं बीजेपी के लिए उच्च जातियां वोट देती हैं। वहीं, पासवान की LJP का मुख्य वोटबैंक हैं महादलित।
इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि, किसका गठबंधन किसके साथ हुआ है। विशेष जाति के लोग अपनी जाति की पक्षधर पार्टी और नेता को ही वोट देंगे। इसलिए, जब भी दो बड़ी पार्टियां एक साथ आ जाती हैं तो वो चुनावों को पूर्ण बहुमत से जीत जाती हैं। लेकिन, इस बार नीतीश कुमार के खिलाफ भारी सत्ता विरोधी लहर के कारण स्थिति बदल सकती है।
आज भले ही BJP बिहार की सत्ता में भागीदार है लेकिन, नितीश कुमार के इशारे के बिना राज्य में एक पत्ता नहीं हिलता। उनके इसी तानाशाही रवैये के कारण राज्य की व्यवस्था उनके हाथ से फिसल चुकी है और बिहार की जो दशा है वो किसी से छुपी नहीं है। बाढ़ और बीमारी ने राज्य में नितीश कुमार के सुशासन की पोल खोल दी है। अगर चुनावों के दौरान BJP के दम पर नितीश वोट पाने में सफल हुए और बहुमत हासिल कर ली तो बिहार की स्थिति जस की तस रह जाएगी। विकास का नामो-निशान मिट जाएगा जिससे बिहार कितना पिछड़ेगा, उसे वर्षों में गिनना कठिन हो जाएगा।
हालांकि, ऐसी स्थिति में भी, बीजेपी एक प्रमुख ताकत बनी रहेगी, क्योंकि 2014 के आम चुनावों में उसे 40 में से 31 सीटों पर जीत हासिल हुई थी। ज्ञात हो कि उस साल जेडी(यू) ने बीजेपी के खिलाफ अपनी पूरी ताकत झोंक दी थी। वहीं वर्ष 2015 के विधानसभा चुनाव में भी जब जदयू ने राजद के साथ महागठबंधन किया था तब भी भाजपा और उसके सहयोगियों ने 35 प्रतिशत वोट के साथ 58 विधानसभा सीटें जीतीं थी। वहीं अगर anti-incumbency का फायदा RJD होता है और उसे बहुमत मिलती है तो फिर उसके बाद बिहार के भविष्य को कोई नहीं बचा सकता है।
देखा जाए तो राम मंदिर के निर्माण आरंभ होने के बाद से बीजेपी का बिहार के वोट बैंक में भी भारी इजाफा हुआ है। चुनाव में बीजेपी के वफादार वोटर उसे को वोट देंगे लेकिन नीतीश कुमार को नहीं। बिहार की राजनीति पर ध्यान देने वालों को यह पता होगा कि, नीतीश कुमार का वोट बैंक स्थायी नहीं रहा है जबकि भाजपा के मतदाता हमेशा से स्थायी रहे हैं।
इसलिए, मान लीजिए कि बीजेपी और उसके अन्य सहयोगी और जेडी(यू) यदि बराबर सीटों पर लड़ते हैं और जेडी(यू) को बीजेपी से कम सीटें मिलती हैं तो त्रिशंकु विधानसभा तो बनेगी, लेकिन तब भी NDA गठबंधन सरकार बनाने में सक्षम हो सकेगा। इसके लिए एनडीए को छोटे खिलाड़ियों और निर्दलीय उम्मीदवारों का साथ चाहिए होगा। हाँ लेकिन यहाँ स्थित ये होगी कि, सीएम की कुर्सी पर दावा करने के लिए नीतीश कुमार के पास कोई नैतिक या गणितीय अधिकार नहीं होगा। ऐसे में नीतीश कुमार ऐसी सरकार नहीं चलाना चाहेंगे जहां पर उनकी पकड़ न हो।
ऐसी स्थिति में संतुलन तभी बनेगा जब, NDA गठबंधन सत्ता में हो और मुख्यमंत्री भाजपा से हो। तब संभवतः बिहार को एक ऐसा सीएम मिलेगा जो शायद नीतीश कुमार के खोखले समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता झूठे दिखावे को त्याग दे और राज्य को विकास की राह पर ले जाए। इसलिए, इस बार के चुनाव में एक ऐसी स्थिति हो जहां बीजेपी और उसके गैर-जद(यू) सहयोगियों को जेडीयू से अधिक सीटें मिलें और सीएम बीजेपी से बने। ऐसी त्रिशंकु विधानसभा बिहार के लिए सर्वश्रेष्ठ स्थिति होगी।