रूस ख़ामोशी से कई मोर्चों पर चीन के खिलाफ युद्ध लड़ रहा है, और जीत भी रहा है

रूस की ये रणनीति बेमिसाल है

रूस

अमेरिका और चीन के बीच बढ़ते तनाव को देख कर जब सभी ने यह सोचा कि वर्तमान विश्व व्यवस्था अब इन दोनों देशों के बीच चल रहे पावरप्ले पर केन्द्रित हो गया है तभी पुतिन के नेतृत्व में रूस भी अब अपनी मौजूदगी दर्ज करने लगा है। एक तरफ डोनाल्ड ट्रम्प चीन और CCP के खिलाफ धमाकेदार युद्ध छेड़ा चुके हैं तो वहीं, रूस भी चीन को धीरे-धीरे ही सही लेकिन बड़ी चोट दे रहा है। यानि क्रेमलिन भी पेंटागन की तरह ही प्रभावी रूप से कई मोर्चों पर चीन के खिलाफ शीत युद्ध छेड़े हुए है और वह जीत भी रहा है।

रूस का शुरू से ध्यान उन देशों को निशाना बनाना रहा है जहां किसी अन्य महाशक्ति का प्रभाव होता है। रूस ऐसे देशों को अस्त-व्यस्त करने के लिए वहां की सरकार को गिरा कर, सैन्य जुंटाओं को ध्वस्त कर या तानाशाहों को अस्थिर कर या फिर उन देशों की सरकारों को उग्रवाद या जिहादी आतंकवाद से लड़ने में मदद कर अपना प्रभाव जमाने की कोशिश करता है। बेलारूस, सोमालिया, सोमालिलैंड, Eritrea, सूडान, मध्य अफ्रीकी गणराज्य, मोजाम्बिक माली और मेडागास्कर जैसे देशों में रूस इसी तरह से अपना प्रभाव जमा चुका है। सबसे खास बात है कि कुछ वर्ष पूर्व तक इन देशों में चीन का प्रभुत्व था। यानि चीन इन देशों में रूस के हाथों मात खा चुका है।

उदाहरण के लिए, बेलारूस को ले लीजिए, जहां कई बार से निर्वाचित राष्ट्रपति Alexander Lukashenkoने एक बार फिर से खुद को इस पूर्वी यूरोपीय देश का निर्वाचित राष्ट्रपति घोषित किया है। हालांकि, बेलारूस में बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन हो रहा है जिससे Lukashenko की सरकार के पतन का खतरा है। चुनावों से पहले Lukashenko ने रूस पर बेलारूसी मतदान प्रक्रिया में हस्तक्षेप करने का भी आरोप लगाया।

बेलारूसी राष्ट्रपति चुनाव से पहले 29 जुलाई को Minsk  में 33 कथित रूसी भाड़े के सैनिकों को हिरासत में लिया गया था, जिन पर बेलारूस के अधिकारियों ने क्रेमलिन द्वारा नियंत्रित एक निजी सैन्य कंपनी वैगनर के साथ जुड़े होने का आरोप लगाया था। बता दें कि Lukashenko आर्थिक सहयोग के लिए चीन के काफी करीब आ चुका है जिसके कारण अब रूस वहां की सरकार के पीछे पड़ चुका है।

बेलारूस में रूसी भागीदारी के कारण ही यूरोपीय संघ या पश्चिमी देश बेलारूसी विरोध प्रदर्शन के समर्थन से परहेज कर रहे हैं।

लेकिन रूस चीन से केवल पूर्वी यूरोप में ही नहीं लड़ रहा है, बल्कि रूस ने चीन को संसाधन संपन्न अफ्रीकी महाद्वीप में कई झटके दे चुका है। अफ्रीका में चीन को नया झटका माली से आया, जहां माली सेना के दो कर्नल- Malick Diaw और Sadio Camara ने देश के राष्ट्रपति Ibrahim Boubacar Keita के खिलाफ तख्तापलट कर शासन अपने हाथ में ले लिया। अब यह खबर आ रही है कि इन दोनों के रूस से संबंध थे। दोनों ने रूसी प्रशिक्षण कार्यक्रम में भाग लिया था सेना से ट्रेनिंग ले कर तख्तापलट से कुछ ही हफ्ते पहले आए थे।

माली के भीतर हुए सैन्य तख्तापलट में रूस के सीधे शामिल होने का आरोप लगाया जा रहा है। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि सरकार के बदलने से यहाँ सबसे अधिक नुकसान चीन का होना है क्योंकि माली भी BRI पर हस्ताक्षर कर चुका है। चीन की योजना थी कि वह माली के जरीये अफ्रीका के पूरे सहेल क्षेत्र को अपने कब्जे में ले लेगा लेकिन अब माली में तख़्तापलट से उसके सपने को एक जोरदार झटका लगा है।

दरअसल, रूस के पास अफ्रीका के लिए कुछ प्रमुख योजनाएं हैं। उदाहरण के लिए अगर हॉर्न ऑफ अफ्रीका को देखा जाए तो वह खाड़ी देशों की ओर शक्ति दिखाने और अदन की खाड़ी के माध्यम से स्वेज नहर तक पहुंचने का एक प्रमुख रणनीतिक क्षेत्र है। इस क्षेत्र पर सभी महाशक्तियां अपने दबदबे को बनाए रखना चाहती हैं।

चीन का जिबूती में पहले से एक रणनीतिक सैन्य अड्डा है, लेकिन अब मॉस्को भी सोमालीलैंड और इरिट्रिया में अपनी उपस्थिति बढ़ाकर इस ओर कदम बढ़ा रहा है। रूस सोमालिलैंड के Port of Berbera में एक नौसेना बेस खोलने की योजना बना रहा है और इरिट्रिया में एक नौसैनिक logistics centre के लिए भी बातचीत कर रहा है।

इसके सफल हो जाने के बाद रूस चीन और अमेरिका के साथ उन देशों में शामिल हो जाएगा जिनके पास स्वेज नहर के साथ जिबूती में सैन्य अड्डे हैं। दिलचस्प बात यह है कि रूस के साथ निकटता के कारण स्व-घोषित देश सोमालीलैंड ने चीन को नकार दिया है। हाल ही में, सोमालीलैंड ने चीन को नकारते हुए उसके आपत्तियों के बावजूद ताइवान के साथ द्विपक्षीय संबंध स्थापित किए।

वहीं 1,500 मील दक्षिण में रूस अफ्रीकी महाद्वीप के पूर्वी तट के पास वनीला द्वीप देशों में अपनी उपस्थिति बढ़ा रहा है। NYT के अनुसार, रूसी सैन्य परिवहन विमान पिछले साल उत्तरी मोज़ाम्बिक में उतरे थे, और अमेरिकी अधिकारियों का भी मानना है कि वर्तमान में 160 वैगनर समूह की टुकड़ियाँ वहाँ तैनात हैं। मोजाम्बिक में इस्लामिक स्टेट के आतंकियों का प्रभाव बढ़ गया था जिससे लड़ने के लिए उसे इन सैनिकों की आवश्यकता है।

हाल के दिनों में रूस ने अफ्रीका में अपनी उपस्थिति भयंकर स्तर से बढ़ाई है। केवल तीन हफ्ते पहले, एक जर्मन दैनिक Bild ने एक जर्मन विदेश मंत्रालय की रिपोर्ट का हवाला देते हुए बताया था कि रूस छह अन्य देशों में बेस का निर्माण करना चाहता था।

कहा जा रहा है कि इन छह देशों में रूस सैन्य ठिकानों के निर्माण की अनुमति दी जा चुकी है। इन देशों में मध्य अफ्रीकी गणराज्य, मिस्र, इरिट्रिया, मेडागास्कर, मोज़ाम्बिक और सूडान हैं। लीक हुए दस्तावेज़ में यह भी खुलासा हुआ , “2015 के बाद से रूस ने अफ्रीका के 21 देशों के साथ सैन्य सहयोग समझौता किया है।

अगर देखा जाए तो रूस ने अफ्रीका में चीन की कीमत पर अपने प्रभाव को बढ़ाया है। चीन भू-रणनीतिक कारणों से अफ्रीका के हॉर्न पर तथा और वेनिला द्वीप देशों के समृद्ध संसाधन के लिए अपना प्रभाव जमाना चाहता था लेकिन अब रूस ने चीन को हटा कर अपने प्रभाव को जमाने का इंतजाम कर लिया है। बढ़ते रूसी प्रभाव से अमेरिका भी शांत नजर आ रहा है क्योंकि वाशिंगटन वैसे भी इस क्षेत्र में अपनी उपस्थिति कम कर रहा है।

मॉस्को के लिए, यह समय पश्चिमी देशों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों के कारण खोई हुई कूटनीतिक ऊंचाइयों को हासिल करने का अवसर है। अमेरिका और चीन वैसे भी शीत युद्ध की ओर बढ़ चुके हैं, जिससे रूस को बिना शोर किए अपनी उपस्थिती बढ़ाने का मौका मिला है। इसके अलावा, चीन खुद मास्को के खिलाफ हथियार नहीं उठा सकता क्योंकि आज जिस तरह से वह भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया, ताइवान के साथ अमेरिका से घिर चुका है। वैसे समय में चीन रूस के रूप में एक और खतरनाक दुश्मन को बर्दाश्त नहीं कर सकता है। यानि अगर यह कहा जाए कि रूस कई मोर्चों पर चीन के खिलाफ एक प्रभावी युद्ध लड़ रहा है और साथ में उसे धूल चटा रहा है तो ये कहना गलत नहीं होगा।

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