इन दिनों फेसबुक और भाजपा के बीच तथाकथित सांठगांठ का मामला कांग्रेस की ओर से जोरों से उठाया जा रहा है। राहुल गाँधी सहित तमाम कांग्रेसी नेताओं ने फेसबुक की मोदी सरकार और भाजपा के साथ तथाकथित संलिप्तता को अपने आरोप का आधार बनाया है। विपक्ष का आरोप है कि फेसबुक भाजपा नेताओं के “हेट स्पीच” पर ध्यान नहीं देता और उनके पोस्ट पर कोई कार्रवाई नहीं करता, यही कारण है कि भाजपा इसका इस्तेमाल अपनी विषाक्त राजनीती को चलाने में कर रही है। विपक्ष द्वारा लगाए जा रहे इन सभी आरोपों का आधार wall street journal का एक आर्टिकल है ,जिसमें इस बात का दावा किया गया था। इस पोस्ट में बिना नाम वाले कई स्त्रोतों द्वारा उपलब्ध करवाई गई जानकारी को वॉल स्ट्रीट ने अपने लेख का आधार बनाया है। किसी साधारण व्यक्ति के लिए यह लेख आश्चर्यजनक और प्रभावी हो सकता है। ऐसा आदमी जिसे फेसबुक की “हेट स्पीच” की नियमावली की जानकारी न हो और जिसे फेसबुक के कार्य करने की बारीकियों की समझ न हो वह इस पोस्ट पर आसानी से विश्वास कर ले। लेकिन मूल बात वही है कि किसी ऐसे पोस्ट को आधार बनाना क्या सही है जो अपने सभी आरोपों का आधार बिना नाम वाले स्त्रोतों और कुछ पुरानी घटनाओं को बनाए?
वस्तुतः फेसबुक की पॉलिसी यह है कि वे किसी भी ऐसे पोस्ट की रीच कम कर देते हैं जिसे वे नकारात्मक समझते हैं। वास्तव में इसका शिकार अक्सर दक्षिणपंथी पेज ही होते हैं। ऐसे में राहुल गाँधी जिस लेख को आरोपों का आधार बना रहे हैं, उसकी निष्पक्षता और सत्यता संदिग्ध है।
एक वर्ष पूर्व फेसबुक ने, फेसबुक इंडिया के Managing Director और Vice-President के रूप में अजित मोहन को नियुक्त किया था। अजित मोहन हॉटस्टार के CEO भी रहे है और कांग्रेस सरकार के समय शहरी विकास मंत्रालय, योजना आयोग सहित कई महत्वपूर्ण ऑफिस के साथ मिलकर काम कर चुके हैं,जो बताता है कि उनके भाजपा से सम्बन्ध हो न हो, कांग्रेस से अवश्य अच्छे सम्बन्ध हैं।
वास्तव में निशाना भाजपा या फेसबुक नहीं बल्कि डोनाल्ड ट्रम्प हैं। वॉल स्ट्रीट का यह खुलासा अमेरिका में होने वाले राष्ट्रपति चुनावों से जुड़ा है। जहाँ डोनाल्ड ट्रम्प ने फेसबुक को अपने प्रचार का सशक्त माध्यम बना लिया है। किसी अन्य माध्यम की अपेक्षा फेसबुक अधिक लोगों तक उनकी पहुँच को सुनिश्चित करता है। इनमें भी आम अमेरिकियों की संख्या अधिक है। यदि ट्रम्प और उनके प्रतिद्वंदी बाइडन की लोकप्रियता की बात करें तो दोनों के फेसबुक पेज ही उन दोनों के बीच के अन्तर को स्पष्ट करता है।
ट्रम्प ने “ब्लैक लाइव्स मैटर” आंदोलन के दौरान हुई हिंसा में फेसबुक बखूबी इस्तेमाल किया। उनपर बार-बार लग रहे नस्लभेदी होने के आरोपों पर सफाई देने के बजाए, अपने अभियान को लूटपाट से हुए नुकसान के इर्दगिर्द रखा। यही नहीं, पूरे प्रचार को सकारात्मक रखा। फेसबुक द्वारा चुनाव में ट्रम्प का बढ़ता प्रभाव ही वॉल स्ट्रीट द्वारा फेसबुक की आलोचना की असली वजह है।
ट्रम्प के विरोधियों की योजना है कि फेसबुक की विश्वसनीयता को ख़त्म किया जाए। अमेरिका में चल रहे चुनाव के दौरान अगर फेसबुक पर यह आरोप लगता कि वह ट्रम्प समर्थक है तो इसका उतना लाभ विपक्ष को होता नहीं दिख रहा क्योंकि ट्रम्प ऐसे हथकंडो से बचना जानते हैं। एक बार इसका प्रयास हुआ भी लेकिन कोई विशेष सफलता नहीं मिली थी।
भारत के तथाकथित बुद्धिजीवी ट्रम्प को मोदी का मित्र मानकर मोदी के खिलाफ एक माहौल बनाने की कोशिश में लगे हैं ताकी इसका प्रभाव अमेरिकी चुनाव पर भी हो। परंतु वर्तमान समय में ये तमाम चीजें महज अफवाहों के बुनियाद पर टिकी है न कि तर्को पर।