पिछले कुछ दिनों में तिब्बत को लेकर चीन के शासक शी जिनपिंग की घबराहट साफ देखने को मिली है। पिछले ही दिनों शी जिनपिंग ने अपनी पार्टी के उच्चाधिकारियों से तिब्बत को लेकर “एक अभेद्य किला” बनाने की बात कही थी ताकि तिब्बत में शांति बनाई रखी जा सके। और अब चीनी विदेश मंत्रालय ने कहा है कि “हम किसी भी देश द्वारा तिब्बत की स्वतन्त्रता की मांग करने वाली ताकतों को शरण देने का कड़ा विरोध करते हैं।’’ तिब्बत को लेकर अचानक चीन हरकत में आया हुआ है, आखिर इसका कारण क्या है?
दरअसल, पिछले कुछ दिनों में जिस प्रकार भारत और अमेरिका की राजधानियों में तिब्बत को लेकर सुगबुगाहट बढ़ी है, उसने चीन के दिल की धड़कनों को भी तेज कर दिया है। तिब्बत की निर्वासित सरकार को तो शुरू से ही भारत ने अपने यहाँ शरण दी हुई है, वहीं अब बढ़ते चीन-अमेरिका के बीच तनाव के कारण अमेरिका भी तिब्बत के मुद्दे को उठाने लगा है। तिब्बत को लेकर अब बेशक अमेरिका और भारत सक्रिय दिखाई दे रहे हों, लेकिन दोनों देशों का यह गठबंधन आज से नहीं बल्कि 50 और 60 के दशक के चला आ रहा है। बीच में अमेरिका और चीन के बीच व्यापारिक रिश्ते स्थापित होने के कारण यह गठबंधन अपने अंजाम तक नहीं पहुँच सका। हालांकि, अब ट्रम्प प्रशासन के आने के बाद यह गठबंधन दोबारा पुनर्जीवित होता दिखाई दे रहा है।
बता दें कि अमेरिका शुरू से ही रूस के साथ-साथ चीन को भी सबक सीखाना चाहता था। अमेरिका के लिए दोनों ही कम्युनिस्ट देश किसी खतरे से कम नहीं थे। चीन के खतरे से निपटने के लिए ही अमेरिका ने तिब्बत के मुद्दे को उठाना शुरू किया था। अमेरिका को पता था कि तिब्बत के रास्ते से ही चीन को कई भागों में तोड़ने का मंसूबा पूरा हो सकता था। 50 और 60 के दशक में तिब्बत को आज़ाद कराने के लिए भारत और अमेरिका साथ मिलकर काम करने के लिए तैयार हो गए थे। माना जाता है कि वर्ष 1959 में दलाई लामा को चीन से भारत लाने में भी CIA ने बड़ी भूमिका निभाई थी। दलाई लामा वह सबसे अहम कड़ी हैं, जिसके कारण आज भी तिब्बत की स्वतन्त्रता की लड़ाई ज़िंदा है।
इतना ही नहीं, वर्ष 1962 की भारत-चीन लड़ाई के बाद अमेरिकी की CIA ने Special Frontier Force को बनाने में भी भारत की सहायता की थी। आज इसे विकास रेजीमेंट के नाम से भी जाना जाता है और इसमें तिब्बती शरणार्थियों के नौजवानों को ही भर्ती किया जाता है। हाल के दिनों में इन्हीं SFF सैनिकों ने लद्दाख में चीनियों को धूल चटाने में सबसे बड़ी भूमिका निभाई है।
भारत-अमेरिका का यह विशेष गठबंधन 70 के दशक तक चला। वर्ष 1998 में NYT ने रिपोर्ट किया कि निर्वासित दलाई लामा ने यह स्वीकार कर लिया है कि अमेरिका की CIA ने उन्हें 1.7 मिलियन डॉलर की सहायता प्रदान की थी। हालांकि, 70 के दशक के बाद अमेरिका ने तिब्बत मुद्दे को गंभीरता से लेना बंद कर दिया। उस वक्त के अमेरिकी राष्ट्रपति वर्ष 1972 में चीनी राष्ट्रपति माओ जेडोंग से मिलने पहुँच गए थे। उस वक्त तक अमेरिका सोवियत को घेरने के लिए इतना बेताब हो गया था कि वह इसके लिए चीन को भी अपने पाले में करना चाहता था। इसलिए अमेरिका ने चीन की तरफ हाथ बढ़ाने की पहल की। दूसरी तरफ भारत और रूस की बढ़ती दोस्ती के कारण अमेरिका और चीन को लेकर भारत का रवैया भी काफी बदल गया।
दलाई लामा खुद यह बात स्वीकार कर चुके हैं कि अमेरिका ने चीन के साथ बढ़ते रिश्तों की वजह से तिब्बत को हमेशा के लिए भुला दिया। उनके एक बयान के मुताबिक “जब अमेरिका में चीन को लेकर नीति में बदलाव आया तो अमेरिका की ओर से मिलने वाली मदद बंद हो गयी। तिब्बतियों को अमेरिका से बहुत आशाएँ थी। हालांकि, बाद में पता चला कि अमेरिका और तिब्बतियों के रास्ते तो वाकई बहुत अलग थे।’’
70 के दशक के बाद अमेरिका का रुख तिब्बत को लेकर ऐसा ही रहा। हालांकि, अब ट्रम्प प्रशासन के आने के बाद दोबारा तिब्बतियों के मन में उम्मीद जागी है। अमेरिका में ट्रम्प और भारत में मोदी सरकार तिब्बतियों के लिए बहुत बड़ी राहत लेकर आ सकती है। आज अमेरिका के लिए रूस से कई बड़ा गुना खतरा चीन बन चुका है। इसलिए अब दोबारा वॉशिंग्टन में तिब्बत का मुद्दा उठाया जाने लगा है। इसी वर्ष जुलाई में US Agency for International Development यानि USAID ने तिब्बत की निर्वासित सरकार को 1 मिलियन डॉलर की सहायता प्रदान करने का ऐलान भी किया था।
अमेरिका की रणनीति साफ है। एक तरफ पूर्व में वह दक्षिण चीन सागर में चीन को घेरने के लिए तैयार दिखाई दे रहा है, तो वहीं पश्चिम में उसने चीन के सामने तिब्बत की समस्या को खड़ा करने की योजना बना ली है और उसमें उसे भारत से भी पूरा समर्थन मिल रहा है। ऐसे में आज से करीब छह दशक पहले बनाया गया भारत-अमेरिकी गठबंधन दोबारा पुनर्जीवित होता दिखाई दे रहा है और यह चीन के लिए बेहद बुरी खबर है।