जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने रूसी राष्ट्रपति पुतिन पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उन्होंने आरोप लगाया है कि रूसी राष्ट्रपति के इशारे पर उनकी प्रमुख आलोचक एलेक्सी नवलनी को जहर देकर मारने की कोशिश की गई है। उन्होंने कहा कि नवलनी जब साइबेरिया से मॉस्को की हवाई यात्रा कर रहीं थीं तो रास्ते में वह बेहोश हो गईं। मॉस्को में उनका प्राथमिक इलाज हुआ जिसके बाद उन्हें बर्लिन लाया गया। यहाँ पर जाँच में पता चला कि उन्हें नोविचोक जहर दिया गया है।
मर्केल द्वारा पुतिन पर किये गए इस दावे का रूस ने खंडन किया है परन्तु मर्केल अपने रुख पर बरकरार हैं और NATO के सदस्य देशों ने भी इसकी निंदा की है परन्तु इस मामले में अमेरिका की तरफ से कोई प्रतिक्रिया सामने नहीं आयी है। मर्केल NATO के जरिये रूस प और कड़े प्रतिबन्ध की उम्मीद में थीं परन्तु अमेरिका की चुप्पी उनकी योजना पर पानी फेर रही है। इसे चीन के प्रति अमेरिका की रणनीति से जोड़कर देखा जा रहा है।
दरअसल, कोरोनावायरस के कारण आयी महामारी में अमेरिका का पूरा ध्यान चीन को सबक सीखाने पर है। अमेरिका अब रूस से बड़ा दुशमन चीन को मानता है और चीन को वैश्विक सप्लाई चेन से बाहर करने की दिशा में प्रयासरत है। ऐसे में रूस के प्रति अमेरिका का रुख काफी नरम हुआ है जबकि चीन के लिए आक्रामक। आये दिन आर्थिक प्रहार कर अमेरिका चीन को सबक सीखा रहा है यहाँ तक कि वो इस योजना की पूर्ति के लिए रूस की ओर भी देख रहा है। अमेरिकी चुनाव से पहले दोनों की होने वाली मुलाकात से भी एंजेला मर्केल डरी हुई हैं क्योंकि वो नहीं चाहती हैं कि ट्रम्प और पुतिन के बीच किसी भी तरह का गठबंधन हो।
ऐसे जर्मनी लगातार इस कोशिश में है कि अमेरिका और रूस एक मंच पर न आएं। यही कारण था कि जब अमेरिका ने रूस को G-7 में शामिल होने का आमंत्रण देने की बात उठाई थी तो जर्मनी ने प्रमुखता से इसका विरोध किया था। यह सर्वविदित तथ्य है कि यूरोपीय महाशक्तियों में सबसे बड़ी शक्ति जर्मनी है। जर्मनी का शुरू से प्रयास रहा है कि वह यूरोप का नेतृत्व करे तथा वैश्विक राजनीति में अपने लिए एक उचित स्थान भी बनाए रखे। परन्तु रूस और अमेरिका के साथ हो जाने से जर्मनी की सभी महत्वाकांक्षाओं पर पानी फिर जायेगा।
वर्तमान परिदृश्य में अमेरिका चीन के विरुद्ध दुनियाभर की शक्तियों को लामबंद कर रहा है। चीन और अमेरिका के बीच शीतयुद्ध जैसे हालात हैं और दुनिया पुनः बहुपक्षीय व्यवस्था से द्विध्रुवीय व्यवस्था की ओर बढ़ रही है। परन्तु चीन के खिलाफ इस लड़ाई में जिस तरह से दो बड़े देश एकसाथ आ रहे हैं जो कभी एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते थे और वो दोनों देश रूस और अमेरिका है। ऐसे में अब जर्मनी को डर लग रहा है कि यदि नवंबर में होने वाले अमेरिकी चुनाव से पहले अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच मुलाक़ात हुई और दोनों देशों के बीच कोई समझौता हुआ तो वैश्विक राजनीति में यूरोप अलग-थलग का न पड़ जाए। बता दें कि अमेरिकी चुनाव से पहले दोनों देशों के राष्ट्राध्यक्ष मिलेंगे जिसे Trump-Putin summit का नाम दिया गया है। इस दौरान दोनों देशों के बीच एक नया परमाणु हथियार नियंत्रण समझौता होने की संभावना है। ट्रंप सरकार की कोशिश ये भी है कि इस मीटिंग में US और रूस चीन के विरुद्ध कार्रवाई का फ्रेमवर्क तय किया जाए। हमने अपने कई लेखों में बताया है कि रूस और चीन के बीच टकराव है, जो सतह पर दिखाई नहीं दे रहा लेकिन अंदर ही अंदर गहराता जा रहा है।
जिस प्रकार से अमेरिका चीन के खिलाफ है उसी प्रकार रूस भी चीन की हरकतों से आक्रोशित है. यही कारण है कि अमेरिका की तरफ से मिले संकेतों को रूस ने आसानी से समझ लिया। परन्तु इन दोनों के साथ आ जाने से NATO की प्रासंगिकता कम हो जाएगी और इसकी शुरुआत क्वैड के रूप में भी हो चुकी है। भविष्य में रूस भी इस समूह में शामिल हो सकता है और अमेरिका इसे औपचारिक रूप देने के प्रयासों में भी जुट चुका है। स्पष्ट है भू-राजनीतिक गतिशीलता का केंद्र यूरोप और अटलांटिक से इंडो-पैसिफिक में स्थानांतरित हो रहा है जिससे यूरोप की चिंता बढ़ गयी है। कुल मिलाकर, यदि अमेरिका और रूस एक मंच पर आ गए तो EU और उसका नेता जर्मनी पूर्णतः अप्रासंगिक हो जाएंगे। यही कारण है कि मर्केल फिर से रूस और अमेरिका के बीच की कड़वाहट को बढ़ाना चाहती हैं परन्तु उनके प्रयास सफल होते नजर नहीं आ रहे.