भारत में कई ऐसी सार्वजनिक संस्थाएं हैं जो चलती तो सार्वजनिक फंड से हैं लेकिन उनका काम किसी काम का नहीं। जिस तरह से HAL आज एक असफल संस्था बन कर देश के करोड़ो रुपये खा रही है लेकिन काम के नाम पर हड़ताल ही दिखाई देती है, वैसे ही एक और संस्था है CSIR यानि Council of Scientific and Industrial Research।
यह संस्था काम और शोध तो सभी क्षेत्रों में करती है लेकिन न तो उस काम से राजस्व का उत्पादन हो रहा है और न ही उन शोधों का भारत की जनता के जीवन में लाभ हो रहा है। इस संस्था को हर वर्ष करोड़ों का बजट आवंटित होता है परन्तु उपलब्धि के नाम पर कोई विशेष रिकॉर्ड नहीं। भारत का सबसे बड़ा सार्वजनिक वित्त पोषित अनुसंधान संस्थान, वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (CSIR) ने पिछले पांच वर्षों से अपनी वार्षिक रिपोर्ट और विवरण को सार्वजनिक भी नहीं किया है जिससे इसके कार्यों और उपलब्धियों का पता चल सके।
CSIR जिनकी प्रयोगशालाएं विभिन्न उद्योग जैसे एयरोस्पेस से लेकर खाद्य प्रौद्योगिकी तक लगी हुई हैं, उसे हर साल हजारों करोड़ रुपये का सार्वजनिक धन मिलता है। लेकिन कहीं भी पारदर्शिता नहीं है। उदाहरण के लिए, केंद्र ने वित्त वर्ष 2019-20 के लिए CSIR को 4,832 करोड़ आवंटित किए थे।
1942 में स्थापित, सीएसआईआर PHD की डिग्री सबसे अधिक देता है और राष्ट्र में किसी भी अन्य अनुसंधान और विकास सुविधा की तुलना में अधिक पेटेंट फाइल किए, लेकिन इसने उन पेटेंटों से राजस्व कमाई करने में संघर्ष करता है। CSIR द्वारा विकसित प्रौद्योगिकियां सार्वजनिक और निजी दोनों क्षेत्रों में विफल रही हैं।
CSIR देश का सबसे बड़ा सार्वजनिक क्षेत्र का अनुसंधान और विकास संगठन है, जिसमें 4600 से अधिक वैज्ञानिक कार्यरत हैं। लखनऊ स्थित सेंटर फॉर माइक्रोबियल रिसर्च के निदेशक गणेश पांडे कहते हैं कि CSIR ‘कई मुद्दों से घिरी’ है।
2009 की एक रिपोर्ट के अनुसार 1999 से 2009 के बीच CSIR प्रयोगशालाओं को भारत और विदेशों में 5,014 पेटेंट दिए गए हैं। हिंदुस्तान टाइम्स (HT) द्वारा सूचना के अधिकार के माध्यम से प्राप्त आंकड़ों के अनुसार, इनसे अर्जित धन 36.8 करोड़ रुपए था, लेकिन इन्हें दाखिल करने की लागत 228.64 करोड़ रुपये थी। यानि जितने रुपये का खिलौना नहीं उससे अधिक का तो झुनझुना हो जाता है जिससे न तो देश को कोई फायदा होता है और नहीं ही सरकार को।
ऐसा नहीं है कि CSIR द्वारा बनाई गई हर चीज़ नाकामयाब है। एक रिपोर्ट CSIR-Tech: Path Forward के अनुसार CSIR द्वारा बनाए गए कई ऐसे तकनीक हैं जो विश्व स्तरीय है और उनसे कई बिलियन डॉलर की कमाई की जा सकती है लेकिन CSIR अपने टाल मटोल रवैये के कारण इसका फायदा नहीं उठा पाई है। ऐसा तभी होता है जब किसी संस्था में “व्यावसायिकता की कमी” होती है और नेतृत्व पर भी शक होता है। रिपोर्ट लिखने वाले वैज्ञानिक Shiva Ayyadurai ने CSIR को “एक दूसरे से संपर्क में खुलेपन” और “सभी प्रतिभागियों की जवाबदेही” स्थापित करने की सिफारिश की थी।
ऐसा नहीं है कि इस संस्था का यह हाल पिछले कुछ वर्षों में हुआ है, बल्कि यह ढीलापन इसकी स्थापना के बाद से ही है। वर्ष 1984 में प्रकाशित इंडिया टू़डे की एक रिपोर्ट के अनुसार उस दौरान भी यह संस्था इससे भी औसत दर्जे की थी। 1983-84 में, CSIR की तत्कालीन 39 प्रयोगशालाओं में से 13 ने एक भी पेटेंट दाखिल नहीं करा पाई थी जबकि इनके खर्च करोड़ों में थे। उस समय, CSIR का उसके 39 प्रयोगशालाओं के साथ 18,203 वैज्ञानिकों और 5,942 प्रशासनिक कर्मियों का वार्षिक खर्च लगभग 130 करोड़ रुपये था परंतु आउटकम शून्य था।
इस संस्था ने भारत के पहले नागरिक विमान SARAS को बनाने में सरकार के 400 करोड़ रुपये खर्च कर दिए जिसे नेशनल एयरोस्पेस लैबोरेटरीज, बेंगलुरु द्वारा तैयार किया गया था और यह विमान अपने पहले ही परीक्षण में दुर्घटनाग्रस्त हो गया, जिसमें कोई लाभ नहीं हुआ। इसके अलावा इस संस्था का ओपन सोर्स ड्रग डिस्कवरी ’कार्यक्रम भी बेहद असफल रहा।
यही नहीं वैज्ञानिक और औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सीएसआईआर) भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक यानि CAG के रडार पर भी आया था। CAG ने इस संस्थान को कुप्रबंधन, उपकरणों का उपयोग न करने, राजस्व की कमाई में कमी और शोध पत्रों के प्रकाशन में 40 से 70 प्रतिशत से अधिक की कमी के कारण फटकार लगाई थी।
वर्ष 2006 में वैज्ञानिक विभागों पर अपनी रिपोर्ट में, CAG ने कहा था कि CSIR ने 39 प्रयोगशालाओं और संस्थानों के आधुनिकीकरण पर 262.38 करोड़ रुपये खर्च किए, लेकिन अतिरिक्त राजस्व उत्पन्न करने का मुख्य उद्देश्य हासिल नहीं कर सका। इसके अलावा कई प्रयोगशालाएं और संस्थान निर्धारित लक्ष्य को प्राप्त करने में असमर्थ थे।
CSIR की मौजूदा समस्याओं में ‘उचित दृष्टिकोण की कमी, संगठन को बदलने के लिए प्रेरक नेतृत्व की कमी और इंडस्ट्री के साथ उसके घटते संबंध शामिल हैं। यही नहीं पिछले दो दशकों में कदमों के कारण भी कई समस्याएँ पैदा हुई हैं जो इस संस्था को सिर्फ रुपया खाने वाले संस्थान में परिवर्तित कर दिया है। कुछ CSIR प्रयोगशालाओं को छोड़कर, अधिकांश प्रयोगशालाएँ निजी कंपनियों से पैसा नहीं जुटा सकतीं क्योंकि उनके पास न ही technology marketing है और न ही intellectual property या उद्योगों के साथ बातचीत करने की क्षमताएं। यानि यह कहना गलत नहीं होगा कि CSIR ने अपने संसाधनों के साथ सभी क्षेत्रों हाथ फैलाने के असंभव कार्य को करने की कोशिश की जिसमें वो लगभग सभी में असफल ही नजर आई।
आज अगर देखा जाए तो यह संस्था हाथी के दिखने वाले दांत की तरह नजर आ रही है जिसका कोई फायदा नहीं है और ऊपर से सार्वजनिक फंड खा रही वो अलग। CSIR को 21 वीं सदी की वैश्विक चुनौतियों का सामना करने के लिए एक उचित दृष्टिकोण के साथ एक पूर्ण ओवरहॉल की आवश्यकता है। अगर बदलाव नहीं हो सकता है तो इस संस्था का बंद कर दिया जाना या इसे प्राइवेट बना दिया जाना एक उचित कदम रहेगा।