भारत चीन के बीच सीमा पर तनातनी ने एक नया मोड़ लिया है। हाल ही में चीन ने ‘चेतावनी’ के नाम पर पूर्वी लद्दाख में हवाई फायरिंग की है और खबरें आ रही हैं कि अरुणाचल प्रदेश से पाँच युवकों के गायब होने में भी चीन का ही हाथ है। ऐसे में अब भारत के पास तिब्बत की स्वतन्त्रता की ज्योति को पुनः प्रज्वलित करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बच रहा है।
भारत ने स्थिति को भाँपते हुए पहले से ही स्पेशल फ़्रंटियर फोर्स को एलएसी पर तैनात कर दिया है, जिसमें काफी संख्या में तिब्बती भर्ती होते हैं। चूंकि इस फोर्स के लड़ाकों ने बांग्लादेश को पाकिस्तान के चंगुल से मुक्त कराने में एक अहम भूमिका भी निभाई थी, इसीलिए भारत ने इस फोर्स को एलएसी पर तैनात कर एक स्पष्ट संदेश भेजा है – यदि हम बांग्लादेश को पाकिस्तान के चंगुल से मुक्त करा सकते हैं, तो तिब्बत को भी हम चीन से मुक्त करा सकते हैं।
बांग्लादेश और तिब्बत में काफी समानताएँ है। दोनों ही साम्राज्यवाद के शिकार रहे हैं। जहां बांग्लादेश पर पाकिस्तानी पंजाबी समुदाय का दमन रहा तो वहीं तिब्बत के बौद्ध सभ्यता पर हान चीनी सभ्यता ने आक्रमण किया। हालांकि पाकिस्तान और बांग्लादेश में एक बात तो समान थी – दोनों इस्लाम बहुल थे, परंतु बौद्ध बहुल तिब्बत और कम्युनिस्ट चीन में ऐसी कोई भी समानता नहीं है।
इसके अलावा शरणार्थियों की समस्या भी एक जैसी है। पाकिस्तान आर्मी द्वारा 1971 में चलाये गए Operation Searchlight में बांग्लादेश (तब पूर्वी पाकिस्तान) के लाखों बंगाली मुसलमानों का कत्लेआम हुआ था। इसके कारण करोड़ों की संख्या में पीड़ित शरणार्थी भारत आए थे। तिब्बत की स्थिति भी कुछ ऐसी ही रही है और इसकी शुरुआत तब हुई, जब 1951 में चीन ने इसपर कब्जा जमा लिया।
1959 तक ये स्पष्ट हो चुका था कि चीनी शासक माओ जेडोंग किसी भी तिब्बती बौद्ध को नहीं बख्शेगा। इस कारण तेनजिंग ज्ञोत्सो यानी 14वें दलाई लामा समेत कई तिब्बती बौद्ध नागरिकों को भारत में शरण लेनी पड़ी। जहां तिब्बतियों ने अपना बचपन बिताया था, अब वो भूमि एक क्रूर शासक के कब्जे में आ चुकी थी।
रणनीतिक दृष्टिकोण से भी भारत का रवैया बांग्लादेश और तिब्बत के प्रति अलग नहीं है। भारत सीमा पर तनाव रखने वाले पाकिस्तान के बजाय एक लोकतान्त्रिक और पंथनिरपेक्ष बांग्लादेश अधिक प्रिय है। इसी तरह भारत की एलएसी संबंधी बॉर्डर समस्या इसलिए भी व्याप्त है, क्योंकि तिब्बत पर इस समय साम्राज्यवादी चीन का कब्जा है। यदि तिब्बत स्वतंत्र होता, तो ऐसी कोई समस्या नहीं होती। हमें चीन के साथ इसलिए लड़ाई लड़नी पड़ रही है, क्योंकि वह इस समय तिब्बत पर कब्जा जमाये बैठा है।
शुरुआत में तिब्बत की आज़ादी भारत और अमेरिका दोनों के एजेंडा में था। पर 1960 का दशक आते-आते भारतीयों और अमेरिकियों दोनों के ही एजेंडा से तिब्बत गायब हो गया। लेकिन अब ऐसा बिलकुल नहीं है। अब SFF के योगदान को सार्वजनिक तौर पर भारत स्वीकार भी रहा है। नई दिल्ली विश्व को बता रहा है कि, तिब्बत के स्वतंत्रता अभियान को भारत भूला नहीं है। जिस उद्देश्य के लिए SFF का गठन किया गया था, अब उसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए उसका उपयोग भी किया जा रहा है। ऐसे में जिस SFF ने बांग्लादेश की मुक्ति में एक अहम भूमिका निभाई थी, वह अब तिब्बत की मुक्ति में भी एक अहम भूमिका निभा रहा है।