भारत की विदेश नीति से संबन्धित कल यानि 23 सितंबर को एक बेहद ही दिलचस्प और दुर्लभ नज़ारा देखने को मिला। सऊदी राष्ट्रीय दिवस के मौके पर कल भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर समेत भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल नई दिल्ली में मौजूद सऊदी दूतावास में दिखाई दिये। उनके साथ केंद्रीय अल्पसंख्यक मामलों के मंत्री मुख़्तार अब्बास नक़वी भी थे। आखिरी बार वर्ष 2018 में भारत की तत्कालीन विदेश मंत्री सुषमा स्वराज रूस के राष्ट्रीय दिवस के मौके पर रूस के दूतावास में दिखाई दी थीं। हालांकि, कोरोना के दौर में भी भारत के तीन कैबिनेट मंत्रियों का सऊदी अरब के दूतावास जाना दिखाता है कि पश्चिमी एशिया से संबन्धित भारत की कूटनीति में सऊदी अरब का बेहद अहम स्थान है। सऊदी अरब ना सिर्फ मुस्लिम दुनिया का बेताज बादशाह माना जाता है, बल्कि वह भारत की तुर्की समस्या का हल भी कर सकता है।
22 सितंबर को UN में तुर्की के राष्ट्रपति ने कश्मीर को लेकर भारत की आलोचना की थी। एर्दोगन ने कश्मीर को “एक ज्वलंत मुद्दा” बताते हुए कहा “हम UN के तंत्र के तहत बातचीत के जरिये कश्मीर के लोगों की इच्छा के अनुरूप इस मुद्दे को सुलझाने के पक्षधर हैं।” हर बार की तरह भारत ने इस बार भी एर्दोगन के इन बयानों की निंदा की और इसे “अस्वीकार्य” ठहराया। उसके ठीक एक दिन बाद नई दिल्ली में इस मुलाक़ात का होना दिखाता है कि भारत और सऊदी अरब एक दूसरे के साथ मिलकर अपने शत्रु तुर्की को बड़ा झटका दे सकते हैं, फिर चाहे वह आर्थिक तौर पर हो या फिर कूटनीतिक तौर पर!
इस बात में किसी को कोई शक नहीं है कि तुर्की और सऊदी अरब एक दूसरे के सबसे कट्टर दुश्मनों में से एक हैं। खलीफा बनने का सपना देखने वाले एर्दोगन मुस्लिम दुनिया पर अपना प्रभाव जमाना चाहते हैं, और सऊदी अरब के नेतृत्व के लिए चुनौती पेश करना चाहते हैं। इसके कारण सऊदी अरब और तुर्की के रिश्ते सऊदी-ईरान के रिश्तों की तरह ही बेहद तनावपूर्ण स्थिति में पहुंच चुके हैं। ऐसे में भारत के विदेश मंत्री और राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों का सऊदी के दूतावास में मौजूद होना दिखाता है कि सऊदी अरब के नेतृत्व को पूरा समर्थन देने के लिए भारत एकदम तैयार खड़ा है, और अगर तुर्की कश्मीर मामले पर भारत को घेरने की कोशिश करेगा तो भारत भी उसी की भाषा में उसके दुश्मन अरब देशों के साथ मिलकर उसे अलग-थलग करने की दिशा में काम करेगा।
बता दें कि सऊदी अरब और तुर्की लीबिया में एक दूसरे के सामने खड़े हैं, जहां पर UAE और फ्रांस जैसे देश खुलकर Libyan National Army और हफ्तार का समर्थन कर रहे हैं तो वहीं तुर्की मुस्लिम ब्रदरहुड के जरिये इस देश पर अपना कब्जा करना चाहता है। मुस्लिम ब्रदरहुड एक ऐसा विचार है, जिससे अरब देश बिलकुल भी सहमत नहीं है और वे इसे तुर्की द्वारा प्रायोजित आतंकवाद का कारण मानते हैं। वहीं, तुर्की लगातार दूसरे देशों में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए तथाकथित मुस्लिम ब्रदरहुड संगठन का इस्तेमाल करता आया है। हालांकि, जिस प्रकार अब तुर्की ने दोनों, भारत और सऊदी अरब के साथ रिश्ते खराब कर इन्हें अपना दुश्मन बना लिया है, उसके बाद ये दोनों देश मिलकर बड़ी आसानी से क्षेत्र में तुर्की के लिए मुश्किलें खड़ी कर सकते हैं।
आज सऊदी अरब और भारत रणनीतिक साझेदारी बन चुके हैं। वर्ष 2014 में देश में मोदी सरकार आने के बाद से UAE, ओमान, बहरीन और सऊदी अरब भारत के बड़े साझेदार बनकर उभरे हैं। यह वही समय था जब दुनियाभर में तेल के दामों में तेजी से गिरावट देखने को मिल रही थी। उस समय अमेरिका द्वारा बड़ी मात्रा में तेल उत्पादन से तेल के दामों में भारी कमी आ गयी थी, जिसके कारण सऊदी की अर्थव्यवस्था को और बड़ा झटका लगा था। पिछले एक दशक से सऊदी भारत की तेल आवश्यकताओं को पूरा करता आया है, तो वहीं भारत भी सऊदी का बड़ा व्यापारिक साझेदार बनकर उभरा है। वर्ष 2017 में सऊदी के कुल ऑइल एक्स्पोर्ट्स का करीब 11 प्रतिशत हिस्सा अकेले भारत ने खरीदा था। इस उभरती आर्थिक साझेदारी का ही परिणाम है कि अरब देशों में से एक भी देश ने कश्मीर, राम मंदिर, CAA और NRC जैसे मुद्दों पर एक शब्द भी नहीं बोला है, जबकि पाकिस्तान हर मुद्दे पर चीख-चीख कर अरब देशों से भारत के खिलाफ बोलने की अपील करता रहा है।
भारत और सऊदी अरब की जोड़ी तुर्की और पाकिस्तान जैसे देशों के लिए बेशक किसी दुर्घटना से कम नहीं है। भारत में मौजूद सऊदी अरब के राजदूत ने कल बैठक के बाद भारत को “एक करीबी दोस्त और अहम रणनीतिक साझेदार” बताया। तुर्की ने अपने ही पैरों पर कुल्हाड़ी मारते हुए अपने दो बड़े दुश्मनों को हाथ मिलाने पर मजबूर कर दिया है और ज़ाहिर सी बात है कि यह तुर्की की सेहत के लिए बिलकुल भी अच्छा नहीं रहने वाला।