पाकिस्तान में सुन्नी (बहुसंख्यक) और शिया (अल्पसंख्यक) समुदाय के मुसलमानों के बीच विवाद दिन-प्रतिदिन बढ़ता ही जा रहा है। यहां आतंकी संगठन सिपाह-ए-सहाबा की अपील के बाद सुन्नी समुदाय के हजारों लोग शिया मुसलमानों के खिलाफ सड़क पर उतर चुके हैं और प्रदर्शन में शिया मुसलमानों को काफिर कहा गया। पाकिस्तान में शिया पर अत्याचार होते थे लेकिन इस तरह का आंदोलन पहले कभी देखने को नहीं मिला। यह आंदोलन ऐसे समय में ज़ोर पकड़ रहा है जब पाकिस्तान में सरकार और सेना के खिलाफ विपक्षी पार्टियां अपना आंदोलन तेज़ कर रही हैं और सेना के सरकार के कामों में हस्तक्षेप का विरोध कर रही हैं। ऐसे में यह कहना गलत नहीं होगा कि कहीं न कहीं शिया मुसलमानों के खिलाफ बढ़ते आंदोलन में सरकार और सेना के Deep State का हाथ है जिससे जनता और विपक्षी पार्टियों का ध्यान सरकार और सेना की नाकामियों से हटाया जा सके।
दरअसल, इस महीने की शुरुआत में, कराची के शाहराह-ए-फैसल रोड में सुन्नी रूढ़िवादी समूहों और देवबंदी अनुयायियों द्वारा बड़े पैमाने पर रैलियां की गईं। प्रदर्शनकारियों ने शिया विरोधी नारे लगाए और उन्हें काफ़िर (गैर-मुस्लिम) कहा। यही नहीं, इस्लामिक कैलेंडर, मुहर्रम में महीने के दसवें दिन मनाए जाने वाले आशूरा पर प्रतिबंध लगाने की भी मांग की गयी।
पाकिस्तान में भड़का मुसलमानों के बीच यह विवाद अकारण नहीं हुआ है बल्कि इसे भड़काया गया है। पाकिस्तान में अभी विपक्ष बहुत मजबूत हो रहा है। विपक्षी पार्टियां सेना के खिलाफ गोलबंद हो चुकी है। नवाज शरीफ की पार्टी पूरे विरोध में है और यह विरोध और बढ़ गया जब इमरान खान की सरकार ने सोमवार को देश के विपक्षी नेता शाहबाज शरीफ को गिरफ्तार कर लिया।
बता दें कि शाहबाज शरीफ तीन बार के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के भाई हैं। पूर्व प्रधानमंत्री की बेटी मरियम नवाज ने भी ट्विटर पर अपने चाचा की गिरफ्तारी की पुष्टि की। उन्होंने कहा, “शरीफ को केवल इसलिए गिरफ्तार किया गया क्योंकि उन्होंने अपने भाई के खिलाफ अपना इस्तेमाल नहीं होने दिया। उन्होंने अपने भाई के खिलाफ खड़े होने के बजाय जेल की सलाखों के पीछे खड़े रहना पसंद किया।”
नवाज के भाई और विपक्ष के नेता की गिरफ्तारी ऐसे वक्त पर हुई जब विपक्षी दलों ने सरकार से इस्तीफे की मांग करते हुए विरोध आंदोलन को और अधिक ताकतवर बना रहे हैं। यह आंदोलन इमरान खान को पद से हटाने और सेना के हस्तक्षेपों को कम करने के मुद्दे पर आधारित है जिसमें लगभग सभी विपक्षी पार्टियां Pakistan Democratic Movement के बैनर तले गोलबंद हो चुकी हैं। पाकिस्तान में लोकतान्त्रिक चीज़ों को ख़त्म करने की कोशिश हो रही है। पाकिस्तान के राष्ट्रपति आरिफ अल्वी ने अवैध रूप से कब्जे वाले गिलगित बाल्टिस्तान की विधान सभा के लिए होने वाले चुनावों को 15 नवंबर को कराने की मंजूरी दे दी। यह प्रस्ताव किसी और का नहीं बल्कि सेना का था जिसने अवैध रूप से कब्जे वाले गिलगित बाल्टिस्तान में चुनाव के लिए हामी भरी थी।
इन सभी की मांग सेना के हस्तक्षेप को कम करने की है। यह सभी को पता है कि सेना खुफिया विभाग से ले कर विदेश नीति तक नियंत्रण करती है। सेना के अधिकारियों की पाकिस्तान के बिजनेस में भी सामान्य व्यक्तियों से अधिक भूमिका है। यही कारण है कि इस बार का आंदोलन सेना के खिलाफ ज़ोर पकड़ चुका है। ऐसे में यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि सेना पाकिस्तान की जनता का ध्यान इन आंदोलनों से हटाने का भरपूर प्रयास करेगी। ऐसे भी अनुमान हैं कि इन रैलियों का उपयोग सेवानिवृत्त लेफ्टिनेंट जनरल असीम बाजवा के अमेरिका में पिज्जा श्रृंखला के अपने बड़े व्यक्तिगत व्यापार साम्राज्य के घोटाले से ध्यान हटाने के लिए किया जा रहा है।
जिस तरह से पाकिस्तान में घटनाएँ घट रही है वैसे में यह माना जा सकता है कि ये शिया सुन्नी के बीच बढ्ने वाला विवाद स्टेट स्पॉन्सर्ड हैं ताकि ध्यान बाहरी मुद्दों से हट सके। पाकिस्तान के भीतर नैरेटिव पर सेना का नियंत्रण है ऐसे में उसके लिए इन विवादों को भड़काना कोई कठिन काम नहीं है। पाकिस्तान को न तो कश्मीर में सफलता मिल रही है और न ही अंतराष्ट्रीय मंचों पर। हाल ही में सम्पन्न हुए UNGA में भी पाकिस्तान को भारत ने जबर्दस्त लताड़ लगाई थी। अब पाकितान के अंदर भी सरकार और सेना दोनों के खिलाफ आंदोलन शुरू हो चुका है। पाकिस्तानी सरकार की वर्तमान हालात धोबी के कुत्ते की तरह हो चुकी है। यही कारण है कि सेना पूरी तरह से बौखलाई हुई है और वह किसी भी हद तक जाने से पीछे नहीं हटेगी चाहे उसके लिए शिया को सुन्नी से लड़वाना ही क्यों न हो। जिस तरह से विवाद बढ़ रहा है उससे कुछ ही दिनों में सड़कों पर मार-काट होने से कोई नहीं रोक सकता। इस गृह युद्ध में पाकिस्तान का भी नामोनिशान मिट सकता है।