अज़रबैजान और अर्मेनिया के बीच की लड़ाई में कूदकर तुर्की ने खुलेआम रूस को चुनौती दी है। चूंकि तुर्की के NATO से संबंध वैसे ही खराब है, ऐसे में रूस को युद्ध में शामिल होने का ‘न्योता’ देकर तुर्की ने अपनी शामत ही बुलाई है, और ऐसी स्थिति में तुर्की के लिए रूस की सैन्य ताकत का अकेले सामना करना बेहद मुश्किल रहने वाला है।
NATO के नियमावली के अनुसार यदि एक सदस्य पर हमला होता है, तो स्थिति कैसी भी हो, उसकी सहायता करना NATO के सदस्यों का कर्तव्य है, क्योंकि एक NATO सदस्य पर हमला सभी सदस्यों पर हमला माना जाता है। लेकिन यहाँ पर स्पष्ट देखा जा सकता है कि हमला तुर्की ने किया है और जो युद्धक्षेत्र है, वो तुर्की की सीमाओं से बाहर है।
ऐसे में जिस प्रकार से Turkey ने अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारकर अज़रबैजान और अर्मेनिया के युद्ध में हस्तक्षेप किया है, उसके कारण NATO के उसके साथी उसकी सहायता के लिए आने को विवश नहीं हो सकते, क्योंकि वे एर्दोगन की नीतियों से काफी नाराज़ हैं, खासकर उस निर्णय से जब एर्दोगन ने हागिया सोफिया चर्च परिसर को पुनः मस्जिद में परिवर्तित कराया था।
यही नहीं, यूरोपीय संघ और अमेरिका दोनों ही तुर्की द्वारा ग्रीस के जलक्षेत्र में घुसपैठ को लेके Turkey से काफी नाराज़ हैं, और दोनों ने अपने क्रोध को जगजाहिर किया है। ऐसे समय में अज़रबैजान और तुर्की को शायद ही रूस के खिलाफ लड़ाई में NATO का समर्थन मिले। वहीं अर्मेनिया खुलकर तुर्की के खिलाफ मैदान में उतर गया है, और वह Collective Security treaty Organization यानि CSTO के तहत इस विवाद में रूस को शामिल करने पर अड़ा हुआ है।
इस परिप्रेक्ष्य में अर्मेनियाई प्रधानमंत्री ने कल ट्वीट करते हुए कहा, “अज़रबैजान Turkey के सक्रिय बढ़ावा मिलने के कारण अर्मेनिया से युद्ध मोल लेना चाहता है। अर्मेनिया अज़रबैजान के हर नापाक कदम का मुंहतोड़ जवाब देने के लिए तैयार है”। चूंकि अर्मेनिया रूस के प्रमुख सहयोगियों में से एक है, और रूस के नेतृत्व में CSTO का सदस्य है, इसलिए इस विवाद में रूस के आने की पूरी-पूरी संभावनाएं हैं।
रणनीतिक रूप से अर्मेनिया मॉस्को के लिए बहुत आवश्यक, क्योंकि Caucus क्षेत्र में अपनी पकड़ बनाए के लिए अर्मेनिया जैसे सहयोगी देश की उपस्थिति रूस के लिए बेहद आवश्यक है। पुतिन मध्य एशिया क्षेत्र में तुर्की के हेकड़ी को भी कम करना चाहता है, जिसके बारे में बात करते हुए TFI पोस्ट ने अपने एक लेख में बताया, “रूस के अर्मेनिया में दो सैन्य बेस भी है। मॉस्को अर्मेनिया को शस्त्र भी देता है और तुर्की से उसकी सीमाओं की रक्षा भी करता है। एक पारंपरिक ईसाई देश होने के नाते अर्मेनिया रूस को अपने भाग्य विधाता के तौर पर भी मानता है, जो उसे तुर्की के प्रकोप से भी बचा सकता है”।
सच कहें तो रूसी राष्ट्राध्यक्ष इस मामले में बड़े ही ठंडे दिमाग से अपनी चालें चल रहे हैं। इसके कारण तुर्की की सारी करतूत जगजाहिर हो चुकी हैं, जिसके कारण अब NATO के सदस्यों ने भी तुर्की से दूरी बना ली है, और वे इसी मामले पर शायद ही अंकारा की कोई मदद नहीं करें। अब तुर्की ने अपनी हेकड़ी से अपनी शामत बुलाई है, और इस बार रूस उसे कहीं का नहीं छोड़ने वाला।