नीतीश कुमार के निजी सहायक सुशील मोदी BJP में क्या कर रहे हैं? इन्हें तुरंत बाहर फेंको

बिहार में BJP को लाना है, तो SuMo को बाहर बिठाना ही होगा

सुशील मोदी

(pc -khabar ndtv)

बिहार में चुनावों को लेकर निर्वाचन आयोग ने गाइडलाइन्स जारी कर दी है। आयोग कह चुका है कि 29 नवंबर से पहले चुनाव संपन्न हो जाएंगे। जाहिर है कि अब सारी राजनीतिक पार्टियां तैयारियों में जुटी हुई हैं। लेकिन बिहार के डिप्टी सीएम और बीजेपी नेता सुशील मोदी ने एक ऐसा बयान दिया है जो अब पार्टी को ही खटकने लगा है और वो कहीं-न-कहीं ये दिखाता है कि सुशील मोदी पूर्णतः नीतीश कुमार के असिस्टेंट बन चुके हैं।

नीतीश के प्रति निष्ठा

बिहार की राजनीति में नीतीश कुमार पिछले 15 सालों से मुख्यमंत्री हैं वहीं जदयू-भाजपा गठबंधन की इस सरकार में सुशील मोदी लगभग 11 साल तक नीतीश के डिप्टी रहे हैं। लगातार एक ही पद पर सत्ता के बीच रहने के बावजूद नीतीश के प्रति सुशील मोदी में इतनी ज्यादा निष्ठा है कि वो नीतीश की हर एक बात पर आंख मूंद कर भरोसा करते हैं।

हाल ही में उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार ही हमारे सीएम कैंडिडेट हैं और उनके नेतृत्व पर कोई शक की गुंजाइश ही नहीं है। नीतीश कुमार कुछ भी करें इन्हें शक की गुंजाइश नजर नहीं आती। बतौर पॉलिसी मेकर नीतीश जी लगातार फेल हो रहे हैं पर फिर भी इन्हें संदेह नहीं है। हर राजनीतिक पार्टी का एक मकसद होता है कि वह जनता में अपनी पैठ बढ़ाए और जिस जगह आज है, कल उससे आगे बढ़े। बिहार एक ऐसा राज्य है जहाँ बीजेपी पिछले लगभग 25 वर्षों से नीतीश कुमार की पिछलग्गू बनी हुई है। एक पार्टी के लिए लगातार एक ही जगह बने रहना और वो भी नंबर 2 पार्टी की जगह, एक पराजय के ही समान है। इन सबके पीछे आजतक एक ही कारण रहा है और वो हैं सुशील मोदी। सुशील मोदी बिहार राज्य के एक ऐसे नेता हैं जिनका राज्य में कोई जनाधार नहीं है। अब जिस नेता के पास जनाधार ही न हो और सत्ता में बने रहने का सुख भी चाहिए तो उसे ऐसे काम करके पार्टी की तिलांजलि तो देनी ही होगी। इसमें कोई दो मत की बात नहीं कि सुशील मोदी के कारण ही आज पूरे बिहार में भाजपा के लिए कोई खड़ा होने को तैयार ही नहीं है क्योंकि उन्हें लगता है कि अगर भाजपा सत्ता के नजदीक आती है तो कहीं मुख्यमंत्री सुशील मोदी न हो जाएं। 2015 चुनावों में भी भाजपा की हार के सबसे बड़े जिम्मेदार सुशील मोदी ही थे। बतौर पार्टी सत्ता में रहने के बावजूद भाजपा अपना कोई अलग विज़न राज्य के लिए नहीं रख पाई क्योंकि नीतीश बाबू के निजी सहायक सुशील बाबू के लिए जो नीतीश बाबू का विजन है वही उनका भी विजन है।

सीमित रही है पार्टी

एक तरफ लोकजनशक्ति पार्टी के नौजवान अध्यक्ष चिराग पासवान अपनी पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए बग़ावती सुर अख्तियार करते हुए सुशासन बाबू से सीट बंटवारे को लेकर मोर्चा खोल रहे हैं तो दूसरी ओर सुशील मोदी एक बार फिर नीतीश के पीछे ही चलने को आतुर हैं। बिना जेडीयू गठबंधन 2014 के आम चुनावों में बीजेपी ने बिना 40 में 22 सीटें जीतीं और जेडीयू दो पर ढेर हो गई। लेकिन गठबंधन के बाद पुनः 2019 में उसी 17-17 के फार्मूले के तहत बीजेपी को ही अपनी पांच सीटों से हाथ धोना पड़ा, गठबंधन तो मजबूत रहा लेकिन बूस्ट जदयू को मिला। 2014 में 2 सीटों पर सिमटी पार्टी दोबारा बड़ी भूमिका में आ गई जिसने सवाल भी खड़े किए कि क्या बिहार में गठबंधन की जरूरत भी है और अगर है भी तो मुख्यमंत्री पद को लेकर पुनर्विचार क्यों नहीं होना चाहिए।

विरोध के बावजूद चुप्पी

जून 2013 में जब नीतीश ने एनडीए का साथ छोड़ा तो सुशील मोदी ने नीतीश पर सीधे हमले करने से खुद को बचाकर रखा, राजनीतिक हमले तो किए लेकिन बेहद ही सधे अंदाज में। 2015 में जब नीतीश ने महागठबंधन के नेता होने के नाते मुख्यमंत्री पद संभाला तब से लेकर जुलाई 2017 में गठबंधन टूटने तक सुशील मोदी मुख्यत: उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव उनके पिता और आरजेडी नेता लालू यादव समेत उनके परिवार के भ्रष्टाचार पर ही बोलते रहे। उनकी मंशा गठबंधन तोड़कर नीतीश का डिप्टी ही बनने की थी न कि नीतीश को कमजोर कर बिहार की राजनीति में बीजेपी का नया अध्याय लिखने की।

आखिरकार 2017 में उन्होंने अपना टारगेट पूरा कर लिया और आज भी पूरी निष्ठा के साथ डिप्टी बने रहने की विवादित सोच लिए हुए हैं। सुशील मोदी कुछ यूं सुशासन बाबू के साथ खड़े दिखते हैं जिससे उनकी अपनी ही पार्टी के नेताओं को ये लगता है कि वो जेडीयू में है। राजनीतिक पंडित इसे तथाकथित ट्यूनिंग कहते हैं लेकिन इस ट्यूनिंग के नाम पर बिहार में बीजेपी का कद नंबर दो ही रहा है क्योंकि सुशील मोदी कभी सीएम पद की मंशा जाहिर ही नहीं करते न ही किसी को करने देते हैं। नीतीश कुमार कई बार अनुच्छेद 370 और 35ए के मामलों समेत भाजपा के कई संवेदनशील मुद्दो पर बेतुके बयान दे चुके हैं लेकिन सुशील बाबू उनके सारे जहरीले बयानों को नजरंदाज कर देते हैं।

हर मुद्दे पर करते बचाव

ऐसा कई बार हुआ है कि नीतीश कुमार के फैसलों को लेकर सवाल खड़े किए गए। हाल ही में कोरोनावायरस के बढ़ते मामलों और प्रवासी मजदूरों की वापसी पर देर से फैसला लेने के चलते नीतीश पर खूब सवाल खड़े हुए लेकिन मजाल है कि बीजेपी से कोई सुशासन बाबू को दोषी ठहराए, बल्कि नीतीश के डिप्टी से उनके सिपहसलार की जगह ले चुके सुशील सवाल उठाने वालों को आड़े हाथों लेते गए, नीतीश को ज्यादा कुछ बोलना ही नहीं पड़ा। इसके अलावा मुजफ्फरपुर में बच्चों की मौतों का मामला हो या बाढ़ के कारण हर बार बिगड़ती बिहार की हालत, सुशील बाबू सब संभाल लेते हैं‌। गठबंधन के नाते सुशील कभी नीतीश के बारे में कुछ नहीं बोलते लेकिन जनहित के मुद्दों और विकास कार्यों का विफल होना भी उनके लिए कोई मायने नहीं रखता है।

मोह हो रहा भंग

बीजेपी में नीतीश का असिस्टेंट होना सुशील मोदी के लिए पार्टी में धीरे-धीरे मुसीबतें खड़ी करेगा क्योकि जेडीयू के हठी रवैए के कारण पार्टी का विस्तार नहीं हो पाया है। जेडीयू से ज्यादा वोट प्रतिशत होने के बावजूद बीजेपी नंबर दो है। वहीं लोजपा जब भी ज्यादा सीटों की मांग करती है तो नीतीश बाबू टस-से-मस नहीं होते हैं और नतीजा ये कि नुकसान बीजेपी का होता है जिस कारण अब बीजेपी का ही सुशील मोदी से मोह भंग हो रहा है। ऐसा वक्त जब लोजपा नीतीश पर दबाव बना रही है तो ऐसे में सुशील मोदी का बिना कुछ सोचे-समझे नीतीश के समर्थन में बयान देना बीजेपी को भी खास रास नहीं आ रहा है और अंदरखाने ये कवायदें शुरू हो गई है कि नीतीश के इस असिस्टेंट का कोई स्थायी समाधान निकाला जाए।

अब यह तय बीजेपी को करना है कि आने वाले वर्षों में वह राज्य का नेतृत्व करना चाहती है या नंबर दो से विलुप्त होकर बिहार में खत्म होना चाहती है क्योंकि सुशील मोदी जैसे बिना जनाधार के नेता के नेतृत्व में बिहार राज्य में भाजपा के लिए केवल पिछलग्गू बनना ही संभव है।

 

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