किसी युद्ध की शुरुआत किसी मुद्दे पर बहसबाजी से ही शुरू होती है जिसके बाद दोनों पक्षों के बीच माहौल गरमा जाता है। आज कल यूरोप में भी यही देखने को मिल रहा है। यूरोप की दो बड़ी शक्तियाँ फ्रांस और जर्मनी एक दूसरे को चेतावनी देते नजर आ रहे हैं और कारण है UK के जलक्षेत्र की मछलियाँ। इससे पहले जब दोनों देशों के बीच तनाव बढ़ा था तब विश्व युद्ध शुरू हो गया था, अब उसके बाद पहली बार इस तरह का तनाव देखने को मिल रहा है।
दरअसल, जब ब्रेक्जिट नहीं हुआ था तब EU के सारे देश एक दूसरे के यहाँ आराम से ट्रैवल करते थे कोई भी रोक नहीं थी। जलक्षेत्र को लेकर भी आपसी सहमति थी लोग किसी के भी जल क्षेत्र से मछली पकड़त सकते थे और उसका व्यापार कर सकते थे। हालांकि, ब्रिटेन ने औपचारिक रूप से यूरोपीय संघ को 31 जनवरी को छोड़ दिया, लेकिन अभी भी यूरोपीय संघ के नियमों से बाध्य है, जिसमें इस वर्ष के अंत तक Common Fisheries Policy भी शामिल है।
इसका अर्थ यह है कि इसमें शामिल EU देशों के मछुआरों को किसी भी देश के तट से पहले 12 समुद्री मील के अलावा, एक-दूसरे के जल क्षेत्र में पूरी ऐक्सेस है। परंतु वहाँ सभी देशों के लिए कोटा सिस्टम बनाया गया है। आज की स्थिति देखा जाए तो इंग्लैंड का आधा से अधिक कोटा विदेशी हाथों में है। ब्रिटिश जल में 60% से अधिक मछ्ली विदेशी नावों द्वारा पकड़ी जाती है।
अब यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि यूरोपीय संघ के अंदर, सभी सदस्य देशों के जलक्षेत्र और EEZ एक दूसरे में संयुक्त रूप बांटा जाता है। अगर ब्रिटेन यूरोपीय संघ के बाहर हो जाने और Common Fisheries Policy के इस वर्ष के अंत तक समाप्त हो जाने के बाद EU के अन्य देश ब्रिटिश जल क्षेत्र का फायदा नहीं उठा पाएंगे।
Common Fisheries Policy के समाप्त होने के बाद UK एक “स्वतंत्र तटीय देश” के रूप में exclusive economic zone को नियंत्रित करेगा जो उत्तरी अटलांटिक में 200 समुद्री मील तक फैला होगा और वह अपने मन से इस पानी पर अधिकार जमा सकेगा और EU के अन्य देशों के हाथ से UK का जलक्षेत्र निकल जाएगा। यही कारण है कि EU के सदस्य देश ब्रिटेन और यूरोपीय संघ के जलक्षेत्र पर ऐक्सेस पर और कोटा पर वार्षिक वार्ता करना चाहते हैं।
यूके का पानी बहुत महत्वपूर्ण है, और यह मछलियों से भरपूर है, यूरोपीय संघ अपने मछली पकड़ने वाले समुदायों की तरफ से यथास्थिति बनाए रखने के लिए भारी दबाव में है। वह चाहता है कि यूके उसे उसी स्तर का ऐक्सेस प्रदान करे जैसा अभी है। परंतु brexit के बाद ब्रिटेन ने सीधे तौर पर मना कर दिया है कि उसके जल क्षेत्र में ऐसा कोई काम नहीं होगा। जिसे लेकर फ़्रांस ब्रिटेन के खिलाफ हो गया और पूरे EU की आवाज बनकर वह बोला है कि ऐसा नहीं होना चाहिए।
फ्रांस अब तक मौजूदा व्यवस्थाओं में किसी भी तरह के बदलाव से इनकार कर रहा है। फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने कहा, ब्रेक्जिट (ब्रिटेन के ईयू से अलगाव) के चलते हम अपने मछुआरों के हितों का बलिदान नहीं होने देंगे। अगर बातचीत के जरिये हम सही नतीजे पर नहीं पहुंच पाए तो ब्रिटेन के साथ भविष्य में किसी तरह का समझौता न रखने के लिए हम तैयार हैं। कोई भी सौदा न होना एक बुरे सौदे के होने से बेहतर है।”
अब दिक्कत जर्मनी को हो रही है उसे लगता है कि फ़्रांस EU को लीड करने लगेगा इसलिए उसने अब आगे आकर मोर्चा थामा है और फ्रांस को चेतावनी जारी की है। जर्मन सरकार द्वारा मैक्रॉन को चेतावनी दी गई है कि उनकी जिद्द के कारण वार्ता में बाधा आ सकती है जिसके कारण पूरे यूरोपीय संघ को खाली हाथ आना पड़ सकता है।
बर्लिन ने फ्रांस के राष्ट्रपति को चेतावनी दी कि अगर वह समझौता नहीं करता है तो पूरे EU को अपनी नौकाओं को यूके के पानी से हटाना पड़ेगा और उनका कोटा “शून्य” हो जाएगा। जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल ने कहा, हम व्यापार समझौता चाहते हैं लेकिन हर कीमत पर नहीं। यह पारदर्शी और साफ-सुथरा समझौता होना चाहिए जिसमें दोनों पक्षों के हितों के लिए स्थान हो। इसके लिए हर संभव प्रयास होने चाहिए।
यह विश्व युद्ध के बाद ऐसा पहली बार है दोनों देश किसी मुद्दे को ले कर इतने प्रखर रूप से आमने-सामने हैं। ऐतिहासिक रूप से ये दोनों देश एक दूसरे के प्रतिद्वंदी रहे हैं और कई युद्ध लड़े हैं। 1870-1871 के Franco-Prussian युद्ध में जर्मनी द्वारा फ्रांस के Alsace-Lorraine क्षेत्र पर कब्जा करने को ले कर फ्रांस की बदले की आग ने प्रथम विश्व युद्ध को जन्म दिया था। पहले विश्व युद्ध में फ्रांस Allied Forces के साथ जर्मनी के खिलाफ उतरा तथा जीत के बाद अपने फ्रांस के Alsace-Lorraine पर फिर से कब्जा कर लिया। इस जीत के बाद यूरोपीय महाद्वीप पर फ्रांस एक प्रमुख शक्ति के रूप में अपनी पुरानी स्थिति को स्थापित किया। पेरिस शांति सम्मेलन में फ्रांस जर्मनी के खिलाफ कठोर शांति शर्तों का प्रमुख समर्थक भी रहा था। वहीं जब हिटलर ने जर्मनी का उत्थान कर पहले विश्व युद्ध में हुई बेइज्जती का बदला लेने के लिए धकेला तो उसका सबसे प्रमुख निशाना फ्रांस ही था। जर्मनों ने 1940 में फ्रांस पर अपने हमले का आक्रमण शुरू किया, फ्रांसीसी सेना हफ्तों के भीतर गिर गई, और ब्रिटेन के पीछे हटने के साथ फ्रांस को अपमान और हार सहना पड़ा। परंतु विश्व युद्ध के समाप्ती के बाद 1950 के दशक में, फ्रेंच और जर्मनों ने फ्रेंको-जर्मन सहयोग की एक नई पारी शुरू की जिसके कारण यूरोपीय संघ का गठन हुआ। आज एक बार फिर से दोनों देश एक दूसरे को आँख दिखाते नजर आ रहे हैं।
अब तक EU पर अपनी पकड़ मजबूत रखने वाला जर्मनी फ़्रांस को लीड करते सहन नहीं पा रहा। उसे ऐसा लग रहा है कि अब EU का नियंत्रण उसके हाथ से फ्रांस के हाथ में जा रहा है। यही कारण है कि कई बार जर्मनी फ्रांस को देख कर अपनी नीतियों में भी बदलाव कर रहा है। कोरोना से पहले और उसके बाद भी कई महीनों तक मर्कल के नेतृत्व में जर्मनी चीन के साथ दिखाई दे रहा था पर उसने देख लिया कि फ़्रांस खुल कर चीन के खिलाफ आ चुका है और उसे EU के कई देशों का समर्थन भी मिल रहा है तो उसने भी अपनी नीतियों में बदलाव किया। वो डर गया कि कहीं यूरोप में उसके साख को बट्टा न लग जाए इसीलिए वो ज्यादा मुखर होकर चीन का विरोधी हो गया। हिन्द प्रशांत क्षेत्र में अपनी उपस्थिती दर्ज कराने के लिए फ़्रांस ने भारत और ऑस्ट्रेलिया के साथ मीटिंग की तो जर्मनी ने भी अपनी नीतियों को बदलते हुए Indo-Pacific में रुचि दिखाई। कुल मिलकर EU के अंदर ये लड़ाई अब वर्चस्व की है। जर्मनी अपने पुराने पावर वाले हैंगओवर से बाहर ही नहीं आ पा रहा, जबकि फ़्रांस स्पष्ट रूप से EU का नया लीडर बनता दिख रहा हैं।